भटक कर अँगुलियों के पोरों तक आ जाता है
सामने पड़े सफ़ेद पर बस फ़ैल जाता है
खून
लाल होता है कहा जाता है
सफ़ेद होकर कब पानी में बदल जाता है
कहीं जिक्र नहीं करता है कोई
इंसान होने में अब किसे फक्र हो पाता है
कूंची
लिए हाथ में कसमसाता है
रंगों से इन्द्रधनुष बनाना चाहता है
एक रंग काफी होता है
पागल बादशाह जब जाल
अपना फैलाता है
सीधे
तू चोर है कभी भी नहीं कहना चाहिए
ना ही किसी से सीधे कहा जाता है
अलीबाबा के समय चालीस रहे होंगे
अब तो पांच सौ चालीस से देश चल पाता है
सीवर जरूरी नहीं सब बहा कर ले जाए
बहुत कुछ सब के हिस्से का बचा रह जाता है
सफाई और गन्दगी के बीच की लाइन खींचना ठीक नहीं
अब माना जाता है
सब कुछ हम्माम हो चला है देख रहे हैं खुद
को नहाते हुए इसी में
कौन हडबड़ाता है
गांधी को सोचना और उसकी बात करने वाला
अब एक निहायती गंवार माना जाता है
खोदना जरूरी है सारी खूबसूरत इमारतों को एक बार
और ये उसे करना है
तू किसलिए लरबराता
है
ईट बहुत है औकात बताने के लिए
क्यों पगलाता है
चर्च मन्दिर मस्जिद
गुरूद्वारा अगर भरभराता है
बहुत सारी गन्दगी है बहुत बदबूदार है
फेंकना भी होता है हर कोई फेंकना भी चाहता है
‘उलूक’ आसान नहीं होता है शब्द नहीं होते हैं पास में
एक वाक्य तक नहीं बनाया जाता
है |
अब तो ५४० … भाई जी ५४३ हैं …
जवाब देंहटाएंएक ही काफ़ी है गुलशन के लिए … बहुत मस्त …
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 08 अगस्त 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंगज़ब
जवाब देंहटाएंअद्धभुत
समझ में नहीं आया कौन पँक्ति ज्यादा विशेष है
बेहतरीन सामयिक प्रस्तुति
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (१०-०८-२०२३) को 'कितना कुछ कुलबुलाता है'(चर्चा अंक-४६७६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अलीबाबा के समय चालीस रहे होंगे
जवाब देंहटाएंअब तो पांच सौ चालीस से देश चल पाता है......लाजवाब!!!
सच को सच कहने का साहस
जवाब देंहटाएंकेवल किसी कलम के सिपाही में पाया जाता है,
किंतु यह भी समय की ज़रूरत बन जाती है
कि कभी-कभी पुराने को मिटा कर नया बनाया जाता है
बहुत बढ़िया प्रस्तुति आदरणीय सुशील जी! उलूक के सिवा किसकी इतनी पैनी नजर है जो सच को इतनी गहराई से नाप सके!बधाइयाँ एक और महत्वपूर्ण और शानदार रचना के लिए!
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