रविवार, 21 जनवरी 2024

कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी

शीशे के घर में बैठ कर
आसान है बयां करना उस पार का धुंआ
खुद में लगी आग
कहां नजर आती है आईने के सामने भी तभी

बेफ़िक्र लिखता है
सारे शहर के घोड़ों के खुरों के निशां लाजवाब
अपनी फटी आंते और खून से सनी सोच
खोदनी भी क्यों है कभी

हर जर्रा सुकूं है
महसूस करने की जरूरत है लिखा है किताब में भी
सब कुछ ला कर बिखेर दे सड़क में
गली के उठा कर हिजाब सभी

पलकें ही बंद नहीं होती हैं कभी
पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
रात के अँधेरे में से अँधेरा भी छान लेता है
क़यामत है आज का कवि 

कौन अपनी लिखे बिवाइयां
और आंखिर लिखे भी क्यों बतानी क्यों है
सारी दुनियां के फटे में टांग अड़ा कर
और फाड़ बने एक कहानी अभी

‘उलूक’ तूने करनी है बस बकवास
और बकवास इतिहास नहीं होता है कभी
कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख
कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी 

नबी = ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदेर्शों का उद्घोषक।
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

11 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी बकवास कर पाना भी आसान कहाँ हैं सर।
    प्रणाम सर
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २३ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. पलकें ही बंद नहीं होती हैं कभी
    पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
    रात के अँधेरे में से अँधेरा भी छान लेता है
    क़यामत है आज का कवि
    सच में रात के अंधेरे से अंधेरा छना मिलता है उलूक टाइम्स में...
    कयामत है....
    वाह!!!!

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  3. बहुत सुंदर सराहनीय सृजन।
    शीशे के घर में बैठ कर
    आसान है बयां करना उस पार का धुंआ..
    वाह!👌

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  4. यही विरोधाभास तो जीवन का सच है

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  5. ' उलूक' की बकवास भी कितनी प्यारी होती।
    बहुत उम्दा...

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