शनिवार, 19 जुलाई 2025

शेख ही जब गुबार हो गया है

ताजा है खबर
पानी सारे जहां का सुथरा और साफ हो गया है
घिसा गया है इतना शरीर दर शरीर
उसे आदमी आदमी याद हो गया है

कुछ धुला है कुछ घुला है कुछ तैरा है कुछ बह गया है
कुछ चक्कर लगाकर लगाकर भंवर में उस्ताद हो गया है

गिन लिए गए हैं तारे आसमान के एक एक करके सारे सभी
बारह का पहाड़ा ही लेकिन बस एक इतिहास हो गया है

आस्था के सैलाब जर्रे जर्रे पर लिए खड़े हैं विशाल बेमिसाल झंडे
विज्ञान को अपने अज्ञान का होना ही था आभास विश्वास हो गया है

रेत पर खींच दी गई लकीरें ज़ियादा समझ ले रहे हैं अब लोग
शब्द ढूंढ रहे हैं रोजगार बाजार भी कुछ बेज़ार हो गया है

‘उलूक’ ताकता रह आसमान की ओर लगातार टकटकी लगा कर
कारवां किसलिए सोचना हुआ अब यहाँ शेख ही जब गुबार हो गया है |

 चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

बुधवार, 9 जुलाई 2025

छील कुछ दिखा कुछ हाथी के ही सही


कुछ
बक बका दिया कर
हर समय नहीं भी 
कभी
किसी रोज

चाँद
निकलने से पहले
या सूरज डूबने के बाद

किसने
देखना है समय
किसने सुननी है बकबास
जमीन में बैठे ठाले
मिट्टी फथोड़ने वाले से

उबलते दूध के उफना के
चूल्हे से बाहर कूदने के
समीकरण बना
फिर देख

अधकच्चे
फटे छिलकों से झाँकते
मूंगफलियों के दानों की
बिकवाली में उछाल

सब समझ में
आना भी नहीं चाहिए

पालतू कौए का
सफेद कबूतर से
चोंच लड़ाना भी 
गणित ही है

वो बात अलग है
किताब में
सफेद और काले पन्नों की गिनतियाँ
अलग अलग रंगों से नहीं गिनी जाती हैं

इसलिए
उजाले में ही सही निकल कोटर से

दांत
ना भी हों फिर भी
छील कुछ
कुछ दिखा 
हाथी के ही सही

 ‘उलूक’
मर गया और मरा हुआ
दो अलग अलग बातें हैं |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/