रविवार, 17 जनवरी 2010

भ्रम

आदमी 
क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर जीना

सिर्फ अमन चैन
सुख की  हरियाली में सोना

ढूंढता है 
कड़वे स्वाद में मिठास
और दुर्गंध में सुगंध

हाँ 
ये आदमी
की ही तो है चाहत 
उसे भूलने से मिलती है राहत

फिर भी 
पीड़ा 
 दुख 
का अहसास
एक स्वप्न नहीं
सुख की ही है छाया

और
छाया कभी
पीछा नहीं छोड़ती
सिर्फ अँधेरे से है मुंह मोड़ती

आदमी अंधेरा भी नहीं चाहता
करता है सुबह का इंतजार

अंधेरा मिटाने को
रात का इंतजार
छाया भगाने को

और ऎसे ही
निकलते हैं दिन बरस

फिर भी न जाने 
आदमी क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर जीना ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. 'admi kyon chahta hai apni sharto par jeena'... bahut badhiya ! kuch shabdon mein aapne badi baat keh daali !

    जवाब देंहटाएं
  2. Warna shayad wah jee bhee na sake...
    kabhee yahan bhee aayiye: http://newideass.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (25-11-2012) के चर्चा मंच-1060 (क्या ब्लॉगिंग को सीरियसली लेना चाहिए) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

    जवाब देंहटाएं
  4. सोचने को विवश करती सुंदर रचना...

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-09-2014) को "उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए" (चर्चा मंच 1730) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोेमवार 04 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

    जवाब देंहटाएं