रविवार, 30 अक्तूबर 2011

नासमझ

कहाँ पता चल पाता है आदमी को
कि वो एक माला पहने हुवे फोटो हो जाता है

अगरबत्ती की खुश्बू भी कहां आ पाती है उसे
तीन पीढ़ियों के चित्र
दिखाई देते हैं सामने कानस में
धूल झाड़ने के लिये
दीपावली से एक दिन पहले

चौथी पीढ़ी का चित्र वहां नहीं दिखता
शायद मिटा चुका होगा सिल्वर फिश की भूख

गद्दाफी को क्रूरता से नंगा कर
नाले में दी गयी मौत
कोल्ड स्टोरेज में रखा उसका शव भी नहीं देख पाया होगा
वो अकूत संपत्ति
जो अगली सात पीढ़ियों के लिये भी कम होती
पर बगल में पड़ा
उसके बेटे का शव भी खिलखिला के हँसता रहा होगा
शायद

कौन बेवकूफ समझना चाहता है ये सब कहानियां
रोज शामिल होता है एक शव यात्रा में
लौटते लौटते उसे याद आने लगती है
जीवन बीमा की किस्त ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गंभीर कविता... अंतिम पंक्तियाँ उद्वेलित कर देती हैं...

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (09-08-2014) को "अत्यल्प है यह आयु" (चर्चा मंच 1700) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. जीवन का सत्य--कठोर,नंगा,भीवत्स--फिर भी जीते हैं झूठ ही.

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  4. कटु सत्य...बहुत गहन और प्रभावी अभिव्यक्ति...

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