रविवार, 6 मई 2012

बैठे ठाले उलूक चिंतन

रविवार को
उलूक चिंतन
कुछ ढीला
पढ़ जाता है

लिखने के लिये
कुछ भी नया
आसपास जब
नहीं ढूँढा जाता है

घर पर बैठे ठाले
अगर कुछ
कोई लिखना
भी चाहता है

परिणाम के
रूप में झाड़ू
अपने सामने
से पाता है

अपनी
कमजोरियों
को दिखाना
भी कहाँ अच्छा
माना जाता है

हर कोई
अपनी छुरी को
तलवार ही
बताना चाहता है

दो काम हों
करने अगर
अच्छा काम
पहले करने को
हमेशा से
कहा जाता है

पर ऎसा
कहाँ किसी से
हर समय
हो पाता है

रावण भी
तो स्वर्ग तक
सीढ़ियाँ नहीं
बना पाता है

पहले सीता
मैया जी को
हरने के लिये
चला जाता है

पुरुस्कार
के रूप में
रामचन्द्र जी
के हाथों मार
दिया जाता है

उलूक भी
इसीलिये
सोच में कुछ
पड़ जाता है

सब्जी
बाजार से
लाने से पहले
चौका बरतन
झाड़ू पौछा
करने को चला
ही जाता है

कभी कभी
बुद्धिमानी कर
मार खाने से
बच जाता है ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी दुर्दशा है सखे, लेता लड्डू लील |
    बढे पित्त कफ वात सब, तीन बरस गुड फील |

    तीन बरस गुड फील, उडाये खिल्ली बेजा |
    मांसाहारी चील, खाय उल्लू का भेजा |

    बीते बरस पचीस, शिकंजा मजबूत कसा |
    काम करो बिन रीस, लिखी है बड़ी दुर्दशा ||

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  2. बीते बरस पचीस, कसे मजबूत शिकंजा |

    कर ले काम खबीस, चील नत मारे पंजा ||

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