बुधवार, 19 सितंबर 2012

महापुरुष

बहुत कुछ कहें
या सब कुछ
कोई फर्क
नहीं होता है
एक महापुरुष
के पास जितना
अपना होता है
कहीं भी नहीं
उतना होता है
लिखना शुरु हो जाये
भरते चले जाते हैं
गागर सागरों से
जाते जाते अगर
लिख भी जाता है
जीवनवृतांत
कुछ नदियाँ नीर भरी
नीली नीली सी
फैल जाती हैं
गागर फिर भी
छलकता हुआ ही
नजर आता है
बचा हुआ भी इतना
ज्यादा होता है
एक दूसरा शख्स
उसपर उसकी
आत्मकथा लिख
ले जाता है
पन्ने दर पन्ने
किताब से किताब
होता हुआ वो कहीं
से शुरु होता हुआ
कहीं भी खत्म
नहीं हो पाता है
आज हर शख्स
अपने में एक
महापुरुष पाता है
एक पन्ना लिखना
भी चाहे तो भी
पूरा नहीं कर पाता है
महापुरुषों की
श्रेणी में फिर भी
आने का जुगाड़
लगाने का कोई
भी मौका नहीं
गवाना चाहता है ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    गणेशचतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  2. प्रश्नाकुल करते रहे सभी हाइगा,सुन्दर मनोहर .

    लेकिन मेरे दोस्त महापुरुष और उसके प्रोजेक्शन ,उसकी छाया में फर्क है ,सिगार पीने से कोई आइन्स्टीन और चिलम पीने से दार्शनिक नहीं हो जाता है .
    (यूं): वक्त की दीवार पे पैगम्बरों के लव्ज़ भी तो ,
    बे -खयाली में घसीटे दस्तखत समझे गए हैं ,
    होश के लम्हे नशे की कैफियत समझे गए हैं ,
    फ़िक्र के पंछी ज़मीं के मातहत समझे गएँ हैं ,
    नाम था ,अपना ,पता भी ,दर्द भी ,इज़हार भी ,
    पर -
    हम हमेशा !दूसरों की मार्फ़त समझे गएँ हैं .
    अच्छा विचार मंथन कराता है उलूक टाइम्स .वह तो यह शासन ही उलूकों का है .

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  3. आज के महापुरूषो की बात ही अलग है ।

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  4. :)यहाँ भी खरगोश कछुए की दौड़-अभिमान और विश्वास की गति हमेशा हर कहीं नज़र आती है- हर युग,हर काल में

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