शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सदबुद्धि दो भगवान

एक
बुद्धिजीवी
का खोल

बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है

जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है

बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है

यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता

किस नाली में
समा जाता है

सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है

जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है

एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है

देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है

उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है

ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है

जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. भूले अपनी जड़ों को, लूले झूले झूल |
    फूट डालते राज जो, अंग्रेजी के फूल |
    अंग्रेजी के फूल, धूल में मिल जाते हैं |
    बोले जो दिग्विजय, ठाकरे चिल्लाते हैं |
    अरे बिहारी राज, लाज ना आती तोको |
    चाटुकार घर-बार, रोकता कैसे मोको ||

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  2. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (08-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  3. आग खुद को भी लील जाएगी ... यही समझ में आ जाए तो विनाश कम हो

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  4. ये बौद्धिक भकुवे(बधुआ )खुद को कोंग्रेसी चाणक्य मान बैठें हैं .इन दुर्मुखों को लगता है कोंग्रेस का भविष्य इनकी जेब में हैं लेकिन इन दुर्मुखों की जेब फटी हुई है .बढ़िया रचना है .वोट की खातिर एक बटवारा और करना चाहतें हैं वोटिस्तान में .

    शुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
    शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक

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  5. स्वार्थी सोच पराकाष्ठा यही हो सकती है....

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