शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

बता देना तूने क्या कुछ अलग ही देखा है

बचपन से
आज तक

देखता
आ रहा हूँ

दौड़
बच्चों की

दौड़
जवानों की

दौड़
अधेड़ों की

और
बूढ़ों की दौड़

हर दौर में
दौड़ को
बदलते देखा है

हौले हौले
मुस्कुराते हुऐ
एक दूसरे को
पछाड़ते हुऐ

गले मिलते
खुश होते
और
रोते हुओं
को देखा है

दौर
बदले हैं

दौड़ें
भी बदली हैं

मैदान
बदले हैं
दौड़ने के
तरीके बदले हैं

नंगे पैर
दौड़ते हुऐ
बच्चे के पैरों से

खून
के साथ
आँख से
खुशी को
छलकते
हुऐ देखा है

सोच में
आ रही है
एक छोटी
सी बात
आज
की दौड़ों
के दौर में

क्या
ये सब
अकेले
मैंने ही
और
बस मैंने ही
यहाँ देखा है

कुछ
मौसम
का मिजाज
ही है ऐसा

या
तेरे यहाँ भी
यही सब कुछ
तून भी
कभी देखा है

साथ साथ
कदमताल
पर चल कर
दौड़ने पहुंचने
वाले को

दौड़ के
शुरु होते ही
बदलते हुऐ
देखा है

दौड़ेंं
होती है
आज भी
उसी तरह से

जैसे
हमेशा
होती रही हैंं
मैदान दर मैदान

लेकिन
किसी
गिरते हुऐ
के ऊपर से

किसी को
दौड़ते हुऐ
तो मैंने

इसी
दौर में

और
बस यहीं

और
यहीं देखा है ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति ....!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (12-10-2013) को "उठो नव निर्माण करो" (चर्चा मंचःअंक-1396) पर भी होगी!
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. आप की ये खूबसूरत रचना आने वाले शनीवार यानी 12/10/2013 को ब्लौग प्रसारण पर भी लिंक की गयी है...

    सूचनार्थ।

    जवाब देंहटाएं