शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

मुआ आईना कुछ नहीं कर पा रहा था

हाथ में
आईना
उठाये हुऐ
बाजार
की तरफ
निकलते हुऐ
मैंने जब
उसे देखा
तो बस
यूं ही
पूछ बैठा

भाई
क्या बात है
कहाँ को
जा रहे हो

क्या आईने को
फ्रेम पहनाना
चाह रहे हो

थोड़ा सा
झेंपते हुऐ
उसने आईने
को पीठ की
तरफ पहुँचाया

आगे आकर
कुछ
फुसफुसाते
हुऐ ये बताया

अब क्या
करूं जनाब
समझ में नहीं
आ रहा था

मैं तो रोज
सुबह सुबह
उठ कर
साबुन से मुंह
धोता ही
जा रहा था

बीच बीच में
बाजार से
फेशियल भी
कभी कभी
करवा रहा था

आईने
को भी हमेशा
कोलिन से
चमका रहा था

आईने
की बेशर्मी
तो देखिये जरा

जैसा दिखता
था मैं सालों
साल पहले
आज भी मुझे
वैसा ही दिखाये
जा रहा था

हीरो बनने
की तमन्ना
कभी
रही नहीं
पर मैं तो
हीरो के
अर्दली का
रोल भी
नहीं पा
पा रहा था

और
जिसने
जिंदगी में
आईना नहीं
देखा कभी

साहब उस
मोहतरमा की
फिलम
बनाने के लिये
पैसे लगाने
को तैयार
नजर आ
रहा था

इसीलिये
आज मैं
इस बेकार
आईने को
बेच कर
एक नया
आईना
खरीदने
को बाजार
तक जा
रहा था ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्कार आपकी यह रचना कल रविवार (13-10-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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  2. सत्य को उकेरती बहुत ही सार्थक रचना...
    विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ...
    :-)

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