रविवार, 13 अक्तूबर 2013

दुकान नहीं थी फिर भी दुकानदार कह कर बुलाया

अगला
बहुत
गुस्से में
मुझे आज
नजर आया

इस
बात पर कि
फंला ने उसको

दुकानदार
कह कर बुलाया

पूछने का
तमीज जैसे
पूछने वाला
अपने घर
छोड़ के हो आया

धंधा
कैसा
चल रहा है
जैसे प्रश्न

एक
शरीफ
के सामने
दागने की हिम्मत

पता नहीं
कैसे कर पाया

ये भी
नहीं सोच पाया

इतनी सारी
उपाधियां
जमा करने
के कारण ही
तो कोई
नीचे से ऊपर
तक है पहुंच पाया

बड़बड़
करते हुऐ
उसके निकलते ही

सामने से
मुझे अपने
अंदर से
निकलता हुआ

एक
दुकानदार
नजर आया

मौका
मिलते ही

कुछ
बेच डालने
के हुनरमंद
लोगों का
खयाल आया

थोड़ा ईमान
थोड़ा जमीर
बेचने का मौका

आज
के समय पर
थोड़ा थोड़ा तो

हर
किसी ने
कभी
ना कभी
है पाया

ये बात
अलग है

एक
पक्की दुकान

बनाने
की हिम्मत
कोई नहीं कर पाया

क्योंकि
रोज के धंधे
की ईमानदारी
के बुर्के की
आड़ को

छोड़ने का
रिस्क लेने का

थोड़ा सा
साहस

बस
नहीं कर पाया ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [14.10.2013]
    चर्चामंच 1398 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    रामनवमी एवं विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं सहित
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,विजयादशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  3. आपकी यह पोस्ट आज के (१३ अक्टूबर, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - बुरा भला है - भला बुरा है - क्या कलयुग का यह खेल नया है ? पर प्रस्तुत की जा रही है | आपको विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनायें और सहर्ष बधाई ।

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  4. सुन्दर प्रस्तुति,......विजयादशमी की शुभकामनाएँ

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  5. सुशील जी ! सादर . आपने लिंक की गलती की ओर ध्यान दिला दिया ,वरना मैं तो कई दिनों से इसी तरह पोस्ट कर रहा था . दरअसल, लिंक के आगे गलती से / (forward slash) लग गया था.अब ठीक कर दिया है .

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