शनिवार, 22 मार्च 2014

शब्दों के कपड़े उतार नहीं पाने की जिम्मेदारी तेरी हो जाती है

हमाम में आते 
और जाते रहना
बाहर आकर कुछ और कह देना
आज से नहीं सालों साल से चल रहा है
कमजोर कलेजे पर खुद का जोर ही नहीं चल रहा है

थोड़ी सी हिम्मत 
किसी रोज  बट भी कभी जाती है
बताने की बारी आती है तो
गीले हो गये पठाके की तरह फुस्स हो जाती है

नंगा होना हमाम 
के अंदर
शायद 
जरूरी होता है हर कोई होता है
शरम थोड़ी सी भी नहीं आती है
कपड़े पहन कर पानी की बौछारें
वैसे भी कुछ कम कम ही झेली जाती हैं

बहुत से कर्मो 
के लिये
शब्द 
ही नहीं होते कभी पास में
शब्द के अर्थ होने से भी
कोई बात समझ में आ जानी जरूरी नहीं हो जाती है

सभी नहाते हैं 
नहाने के लिये ही हमाम बनाने की जरूरत हो जाती है
शब्दों को नँगा कर लेने जैसी बात
किसी से 
कभी भी कहीं भी नहीं कही जाती है

हमाम में 
नहाने वाले से
इतनी बात जरूर सीखी जाती है
खुद कपड़े उतार भी ले कोई सभी अपने 'उलूक'
आ ही जानी चाहिये
इतने सालों में तेरे खाली दिमाग में
बात को कपड़े पहना कर बताने की कला
बिना हमाम में रहे और नहाये
कभी 
भी नहीं किसी को आ पाती है ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

5 टिप्‍पणियां:

  1. सशक्त भावाभिव्यक्ति बढ़िया बिम्ब कपड़ों के हमाम का

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  2. बात को कपड़े
    पहना कर बताने
    की कला
    बिना हमाम
    में रहे और
    नहाये कभी
    भी नहीं किसी
    को आ पाती है
    बिलकुल खरी खरी बात

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