शुक्रवार, 21 मार्च 2014

गंंदगी ही गंंदगी को गंंदगी में मिलाती है

होनी तो होनी
ही होती है
होती रहती है
अनहोनी होने
की खबर
कभी कभी
आ जाती है
कुछ देर के
लिये ही सही
कुछ लोगों की
बांंछे खिल कर
कमल जैसी
हो जाती हैं
गंंदगी से भरे
नाले की
कुछ गंंदगी
अपने आप
निकल कर
जब बाहर को
चली आती है
फैलती है खबर
आग की तरह
चारों तरफ
पहाड़ों और
मैदानो तक
नालों से
होते होते
नाले नदियों
तक फैल जाती है
गंंदगी को
गंंदगी खीँचती है
अपनी तरफ
हमेशा से ही
इस नाले से
निकलते निकलते
दूसरे नालों के
द्वारा लपक
ली जाती है
गंंदगी करती है
प्रवचन गीता के
लिपटी रहती है
झक्क सफेद
कपड़ों में हमेशा
फूल मालाओं से
ढक कर बदबू
सारी छुपाती है
आदत हो चुकी
होती है कीड़ों को
इस नाले के हो
या किसी और
नाले के भी
एक गँदगी के
निकलते ही
कमी पूरी करने
के लिये दूसरी
कहीं से बुला
ली जाती है
खेल गंंदगी का
देखने सुनने
वाले समझते हैं
बहुत अच्छी तरह से
हमेशा से ही
नाक में रुमाल
लगाने की भी
किसी को जरूरत
नहीं रह जाती है
बस देखना भर
रह गया है
थोड़ा सा इतना
और कितनी गंंदगी
अपने साथ उधर से
चिपका कर लाती है
और कौन सी
दूसरी नाली है
जो उसको अब
लपकने के लिये
सामने आती है ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, शनिवार, दिनांक :- 22/03/2014 को "दर्द की बस्ती":चर्चा मंच:चर्चा अंक:1559 पर.

    जवाब देंहटाएं
  2. होनी अनहोनी की जननी
    गंदगी गंदगी का आह्वान
    हर रोज सोचती हूँ - कौन है महान !

    जवाब देंहटाएं
  3. सही बयान !!
    भई वाह , आनंद आ गया !!

    जवाब देंहटाएं
  4. बिल्कुल सच...बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति...

    जवाब देंहटाएं