शनिवार, 29 मार्च 2014

विषय ‘बदलते समाज के आईने में सिनेमा और सिनेमा के आईने में बदलता समाज’ अवसर ‘पंचम बी. डी. पाण्डे स्मृति व्याख्यान’ स्थान ‘अल्मोड़ा’ वक्ता 'श्री जावेद अख्तर'

कौन छोड़ता स्वर्णिम
अवसर सुनने का
समय से पहले
इसीलिये जा पहुँचा
खाली कुर्सियाँ
बहुत बची हुई थी .
एक पर पैर फैला
कर आराम से बैठा
समय पर शुरु
हुआ व्याख्यान
रोज किसी ना किसी
मँच पर बैठे
दिखने वाले दिखे
सुनने वालों में आज
नजर आये कुछ
असहज हैरान और
थोड़ा सा परेशान
सिनेमा कब देखा
ये तो याद नहीं आया
पर मेरा समाज
सिनेमा के समाज
की बात सुनने
के लिये ही है
यहाँ पर आया
ऐसा ही जैसा कुछ
मेरी समझ में
जरूर आ पाया
बोलने वाला
था वाकपटु
घंटाभर बोलता
ही चला गया
नदी पहाड़ मैदान
से शुरु हुई बात
कुछ इस तरह
समाज को सिनेमा
और सिनेमा को
समाज से
जोड़ता चला गया
कवि गीतकार
पटकथा लेखक
के पास शब्दों
की कमी नहीं थी
बुनता चला गया
सुनने वाला भी
बहुत शांत भाव से
सब कुछ ही
सुनता चला गया
नाई की दुकान के
आमने सामने के
शीशों में एक
को सिनेमा और
एक को समाज
होने का उदाहरण
पेश किया गया
समझने वाले
ने क्या समझा
पर उससे
किस शीशे ने
किस शीशे को
पहले देखा होगा
जरूर पूछा गया
सामाजिक मूल्यों के
बदलने के साथ
सिनेमा के बदलने
की बात को
समाज की सहमति
की तरह देखा गया
कोई सामजिक और
राजनीतिक मुद्दा
अब नहीं झलकता है
इसीलिये अब वहाँ भी
समाज को इस
जिम्मेदारी का ही
तोहफा दिया गया
किताबें कौन सी
खरीद कर अपने
शौक से पढ़ता है
कोई आजकल
इंटीरियर डेकोरेटर
किताबों को परदे
और सौफे के रंग
से मैच करते हुऐ
किताबों के कवर
छाँट कर जब हो
किसी को दे गया
आठ घंटे में एक
सिनेमा  बन रहा
हो जिस देश में
पैसा सिनेमा से
बनाने के लिये तो
बस साबुन तेल
और कारों का ही
विज्ञापन बस
एक रह गया
हर जमाने के
विलेन और हीरो
के क्लास का
बदलना भी एक
इत्तेफाक नहीं रहा
जहाँ कभी एक
गरीब हुआ करता था
अब वो भी पैसे वाला
एक मिडिल क्लास
का आदमी हो गया
कविता भी सुनाई
अंत में चुनाव
की बेला में
किसी सुनने वाले
की माँग पर
शतरंज का उदाहरण
देकर सुनने वालों
को प्यादा और
नेताओं को
राजा कह गया
आईना ले के आया
था दिखाने को
उस समाज को
अपने आईनों में ही
कब से जिससे
खुद का चेहरा
नहीं देखा गया
खुश होना ही था

उलूक को भी
सुन के उसकी
बातों को मजबूरन
बहुत कुछ था
जिसे पूरा कहना
मुश्किल हुआ
थोड़ा उसमें से
जो कहा गया
यहाँ 
आ कर के
वो भी कह गया । 

5 टिप्‍पणियां:

  1. गंभीर विषयों पर भी पैनी नज़र रखते हैं.
    वैसे सिनेमा कभी समाज का दर्पण हुआ करती थी,बिल्कुल साहित्य की तरह.पर अब ? फूहड़ मनोरंजन के अलावा क्या सोचा जा सकता है? याद नहीं,सिनेमा हॉल में आखिरी फिल्म कब देखी थी.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (30-03-2014) को "कितने एहसास, कितने ख़याल": चर्चा मंच: चर्चा अंक 1567 पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सच कहा है आप ने ! ऐसा ही हों रहा है आज कल !!

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