शनिवार, 12 अक्तूबर 2024
क्या लिखे क्यों लिखे किसके लिये लिखे जानेजां
शनिवार, 31 अगस्त 2024
सब कुछ इसी हमाम से तो था
कितना कुछ पकड़ कर रखा था
वहम ही सही सारा अपने पास में तो था
बारिश उस पहाड़ में थी
और दूर समुंदर ही तो उफान में था
देखने का जुनून ही तो खत्म हुआ था
सपना तो अपनी ही उड़ान में था
जब सुनाई देता था
उजड़ गया अपना नहीं उसका ही मकान तो था
अच्छा हुआ सुनाई नहीं देता बंद है अपना ही कान तो था
जुबान से निकला था तीर जो भी निकला था
कौन सा कुछ किसी की दुकान से था
ना ही कहने को कुछ मचलती
मनचला था
कौन यहां कुरुक्षेत्र के मैदान से था
बहुत कुछ बिना चबाए निगलना था
सभी कुछ किसी गांधी के एक बंदर की
नजदीकी पहचान से तो था
गलतफहमी के दौरे तुझे भी
पता है वो भी जानता है
सब कुछ इसी हमाम से तो था
बुधवार, 31 जुलाई 2024
जब भी कभी याद आ जाये लिखने की कुछ लिखें कहीं
कुछ लिखें
कहीं दीवार पर
कुछ कहीं आंगन में लिखें
कुछ कहीं पेड़
पर भी लिखें
पत्ते सा हरा लिखें
लिखें तो
सही
गहरा नहीं भी हो कहीं
हो पानी सा कांच के ऊपर पतला सा फ़ैला
दूध सा सफ़ेद या
थोड़ा सा पीला पीला
सूखी हुई पथरा गयी आंखों के आसपास नहीं भी हो कहीं
बहुत दूर
आसमान में फ़ैले
छितराये से बादलों से मिलते आश्वासनों सा गीला
लिखें बहुत पुरानी
ही कहानी
मां की कही हो या कही हो कोई मोहल्ले की बूढ़ी नानी
आज की लिखें
झूठ ही
सही
मरे हुऐ किसी सच को ओढ़ाती सफ़ेद कफ़न पुरानी
लिखें दूर की एक कौढ़ी
आने वाले कल की झक्क सफ़ेद झूठी भविष्यवाणी
लिखें धीमी
चलती लेखनियों का सीखना
पकड़ना रफ़्तार
और हो जाना दिखना लिखे का
सामने सामने ये
जाना और वो जाना
सारे काले लिखे का हो जाना
सफ़ेद लिखें
लिखें सफ़ेद लिखे का काला हो जाना
पर लिखें कहीं दीवार पर कुछ
कहीं आंगन
में लिखें कुछ
कहीं पेड़ पर भी लिखें पत्ते सा हरा
लिखें जब भी कभी याद आ जाये
लिखने की
कुछ लिखें कहीं
चित्र साभार:
https://www.tansyleemoir.co.uk/the-writing-on-the-tree/
सोमवार, 3 जून 2024
रुको एक दिन बकवासी कल आना रायता फैलायेंगे
शनिवार, 25 मई 2024
रोज एक ना सही कभी तो कर पर कर बकवास दो चार
हो ले इनमें से कोई भी एक किस्मत लगा अपनी पार
नैया पार लगाने में बस ये ही सब तो होते हैं मददगार
सबका साथ सबका विकास बहुत ही जरूरी है यार
क्यों अटका रहता है तू भी कभी एक तो झटका मार
घर पर रह कर लिख गली में जा कर कभी झाडू मार
शहर की खबरों को गोली मार सीख भी जा ना तडीपार
बगल में रखा कर सुबह का एक ताजा कोई अखबार
मुंह में रख पान का बीड़ा जपा कर राम रोज कई हजार
ज़माना समझ नहीं पाया तू रहने दे तेरे बस का नहीं प्रचार
वोट देने जाना जरूर बटन दबाना पर्ची देखना है बेकार
पता है सबको सब कुछ क्या आना है काहे करना है रे इंतज़ार
सबकी अपनी ढपली सबके अपने राग तू भी गा ले मल्हार
लिख कर पढ़ पढ़ कर लिख सीख कर बना उत्तम अचार
‘उलूक’ नारद नहीं नारायण नहीं भज ले कोई व्यापार
रोज एक ना सही कभी तो कर पर कर बकवास दो चार |
चित्र साभार: https://www.quora.com/
बुधवार, 15 मई 2024
सब जानते है सीवर खुला है और आ रही है बदबू सड़न की खुशबू गाने में किसी का क्या चला जाता है
किसी को कुछ कहीं नजर नहीं आता है
ये समझ से बाहर हो जाता है
वो वो नहीं है जो वो बताता है
वो तो बस एक झंडा फहराता है
लिखे में दिख रहा है उनके
राम भी समझ में आता है
एक और केवल एक ही दिन
एक भीड़ से बांच दिया जाता है
कटोरा पकडे हुए एक इंसान की कहानी
उसे कहाँ कोई समझाता है
कहां समय लगता है
दीमक होशियारी अपनी कहाँ छुपाता है
पढकर किसी का पन्ना
ब्लोगिंग में ब्लोगर बहुत बढ़ा
ऐसा कौन हो पाता है
सीवर खुला है और आ रही है बदबू
सड़न की खुशबू गाने में
किसी का क्या चला जाता है |
शनिवार, 4 मई 2024
‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे
कुछ इधर की लिखेंगे कुछ उधर की लिखेंगे
लिखेंगे और रोज कुछ लिखेंगे
हम पेड़ पर लिखेंगे उसकी छाँव पर लिखेंगे
हम ठंडी हवा लिखेंगे और गाँव लिखेंगे
सच की वकालत पर लिखेंगे हम पड़ताल लिखेंगे
हम लिखे में अपने सारे हस्पताल लिखेंगे
गांधी और नेहरू को पडी लात की सौगात लिखेंगे
उनकी औकात लिखेंगे उनकी जात लिखेंगे
दो चार पांच को ले जाकर रोज सुबह
बेरोकटोक सूबेदार लिखेंगे
गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे
रविवार, 28 अप्रैल 2024
ईसा मसीह भी है की खबर पता नहीं कहाँ है नहीं आती है
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
खा गालियाँ गिन नाले बनते बड़े छोटी होती नालियों से क्या उलझना
बस कुछ पढ़ा कुछ सुना
दिखा बना बैठा कुछ तुनतुना कुछ भुनभुना
तू गीत तरन्नुम में गा गुनगुना
कहीं तो बटा है और इफरात में झुनझुना
सारे रोक ले कुछ भी मत सुना
बस बाहर ना निकलना
खुद सीख ले कुछ काटना कुछ भौंकना
आदमी में भगवान को चेपना
सबसे बड़ा है आज का लपेटना
छोटी होती नालियों से क्या उलझना
शनिवार, 20 अप्रैल 2024
शाबाश है ‘उलूक’ खबरची की खबर पर वाह कह के मगर जरूर आता है
यहाँ तो कुछ भी समझ में ही नहीं आता है
ढूंढना शुरू करते हैं
जहां कोई भी अपना जैसा नजर नहीं आता है
सोच में तेरी ही कुछ खोट है ऐसा कुछ लगता है
सबका तुझे टेढ़ा देखना बताता है
सामने वाला हर एक सोचता है अपनी सोच
तुझे छोड़ हर कोई तालियाँ बजाता है
मतदान करने की बातें सब ने की बहुत की
वोट देने की शपथ लेना दिखाता है
लोग घर से ही नहीं निकले जुखाम हो गया था
ऐसे में वोट देने कौन जाता है
परिवार के लोग ही नहीं दिखे
व्यस्त होंगे प्रचार में कहीं
अपना क्या जाता है
मतदान करवाने वालों की मजबूरी थी
कहना ही था ये भी आता है वो भी आता है
खबर मेरी थी मैंने बुलाये थे मीडिया वाले
चाय नाश्ता कराने में क्या जाता है
छपा बहुत कुछ था घर की फोटो के साथ था
बस मैं ही नहीं था तो क्या हो जाता है
खबर देते हैं
जाने माने खबरची दुनिया जहां की
अपने घर में बैठ कर समझ में आता है
वाह रे ‘उलूक’
तेरे घर तेरे शहर में हो रहे को तू देखता है
और अपना मुंह छुपाता है
शाबाश है खबरचियों की ओर से
खबरची की खबर पर
वाह कह के मगर जरूर आता है
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/
रविवार, 14 अप्रैल 2024
इस बार करनी है आत्महत्या या रुक लें पांच और साल या देखना है अभी भी कोई पागल पागल खेलता हुआ पागल हो गया होगा
नक्कारखाना कहता है जिसे तू
वहां तूती बजाना तेरे लिए ही आसान होगा
अब तक तो निगल लेनी चाहिये थी
तुझे भी गले में फंसी हड्डियां
तुझ सा बेवकूफ यहाँ नहीं होगा तो कहां होगा
किसी बीन की आवाज के बिना भी
कदम ताल कर रहा होगा
किसलिए अपने आसपास के लेनदेन को
रोज खुली आँखों से तू क्यों देखता होगा
उन्हें भी सारा सब कुछ सही समय पर
मालूम होता ही होगा
दिखाने के लिए गधे चारों और के अपने
गधा भी इस सब के लिए कुछ तो कर रहा होगा
इस गधे को इतना गधा किसने बनाया सोचता होगा
इक इशारे के साथ घोड़ों को घसीटता
शेर्रों को कुत्ता बना कर लपेटता होगा
पागलों के जंगल में बैठ कर
पाठ्यक्रम
इस बार करनी है आत्महत्या
या रुक लें पांच और साल
या देखना है अभी भी
कि कोई पागल पागल खेलता हुआ
पागल हो गया होगा |
गुरुवार, 11 अप्रैल 2024
इंतज़ार है है मर्यादा पुरुषोत्तम दिखेगा राम नाम सत्य ज़ुबानी ज़ुबानी
सोमवार, 8 अप्रैल 2024
‘उलूक’ थे और वो थे बस कुछ बेवकूफों में गिने जाते थे मगर मशहूर थे
घड़ी पहने लोग कोई और थे
समझाने वाले थे मगर कहीं और थे
और थे कुछ चोर मगर चोर थे
चोर ही थे मगर जो सच में चोर थे
मोर थे हर तरफ बस मोर थे
उस तरफ आये इक शोर थे
सच में बेचारे थे बहुत ही कमजोर थे
नहीं कहना था बस मजबूर थे
वो कुछ बेवकूफों में गिने जाते थे मगर मशहूर थे |
शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024
अवतार है इक चुनाव मैदान में ब्रह्मा विष्णु महेश को कौन बताएगा
मत कहां जा कर गिरेगा पता चल जाएगा
चिंता किसी को हो ना हो क्या फर्क पड़ता है
इतिहास में पक्का दर्ज किया जाएगा |
रविवार, 31 मार्च 2024
ईश्वर है है ईश्वर मंदिर मूरत छोड़ कर आज वो एक नश्वर हो गया है
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024
‘उलूक’ अच्छा है रात के अँधेरे में देखना दिन में रोशनी को पीटने से
और देख लेना
फिर इत्मीनान से बैठ कर
उजाले पर एक कविता लिखना
लिखना
बंद कर के किताबें सारी
कोई एक किताब
जिसके सारे पन्नो पर लिखा हो हिसाब
जिसे समझना हो किसी को
जिससे पता चल रहा हो
किसी रेजगारी को नोटों में बदलने का
वो सब लिख देना
साथ में लिखना
सूरज पर लिखना चाँद पर लिखना
खबरदार
वो कुछ भी कहीं मत लिखना
रोज लिखना
कुछ गुलाबजामुन
या
कुछ भी ऐसा
लेखकों को और छापने वालों को
उस सब पर
‘उलूक’ रातें अच्छी होती हैं
और वो आँखें भी
कोशिश करती है देखने की रोशनी
जो दिन के उजाले में रोशनी पीटते हैं |
चित्र साभार: https://www.gettyimages.in/
रविवार, 21 जनवरी 2024
कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी
आसान है बयां करना उस पार का धुंआ
कहां नजर आती है आईने के सामने भी तभी
सारे शहर के घोड़ों के खुरों के निशां लाजवाब
खोदनी भी क्यों है कभी
महसूस करने की जरूरत है लिखा है किताब में भी
गली के उठा कर हिजाब सभी
पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
क़यामत है आज का कवि
और आंखिर लिखे भी क्यों बतानी क्यों है
और फाड़ बने एक कहानी अभी
और बकवास इतिहास नहीं होता है कभी
कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी
गुरुवार, 18 जनवरी 2024
कितना बहकेगा तू खुद उल्लू थोड़ा कभी बहकाना सीख
सोमवार, 15 जनवरी 2024
निमंत्रण देते हैं सबके कांव कांव कर देने के अभिलाषी
करते नहीं ज़रा सा भी शोर हैं
इतनी सारी कांव कांव
कोशिश करने की
उसी तरह की कुछ आवाजें
चमगादड़ का
फिसल जैसा रहा है पाँव पाँव
सारी की सारी बीच सड़क पर
कदमताल करती
समानांतर कौवों के साथ जैसे उड़ती
ता धिन धिन ना ता तिरकट
अरे अरे कट कट
चित्र पूरा हुआ
चित्रमय हो चली सारी धरती
लेता आधी नींद से उठा जैसा
आधी कुछ बेसब्री सी उबासी
कुछ कौवे कुछ कबूतर
हर तरफ अफरा तफरी
दुनियां नई
नई दुल्हन कहीं
कहीं कौवों के झुण्ड
निमंत्रण देते हैं सबके
कांव कांव कर देने के
अभिलाषी |
बुधवार, 10 जनवरी 2024
लिख कुछ भी लिख लिखे पर ही लगायेंगे मोहर लोग कुछ कह कर जरूर लिख कुछ भी लिख
गिन और बेहिसाब लिख
थोड़ा कभी जुलाब कुछ लिख
शुक्रवार, 5 जनवरी 2024
लिखना जरूरी है इतिहास ताकि वो बदल सकें समय आने पर उसे
लेकिन बेताल और विक्रमादित्य को भी
भगवान कल्कि का कलयुगी अवतार
गुरुवार, 4 जनवरी 2024
हथियार किसी के हाथ में ना कभी थे ना अभी हैं
बुधवार, 3 जनवरी 2024
रोज पढ़े फिर याद करे ‘उलूक’ उल्लू का अखबार
मंगलवार, 2 जनवरी 2024
ऐसे ही २०२४ नहीं है आया कल्कि आयेंगे सुना है अभी तो मंदिर ही है आया
मगर क्यों हुआ समझ में ही नहीं आया
क्यों कोई आस पास लिखे के नजर नहीं आया
एक नया साल है अब आया
लिखने वाला आँखिर क्यों कर शरमाया
‘रूपचन्द्र’ का लिखना कौन रोक पाया
एक से एक हैं यहाँ ये आया वो भी आया
सब जानते हैं लोग किस ने है कब्जाया
कुछ कुछ हैं चिट्ठाकार
लिखते हैं निर्भीक कुछ नहीं कमाया
कुछ ने दिनचर्या लिखने का मन है बनाया
बकवास को पढ़ने कौन इच्छा से सामने है आया