मदारी जमूरा और बंदर
बहुत कम नजर आते हैं
अब घर घर नहीं जाते हैं
मैदान में स्कूल में
या चौराहे के आस पास
तमाशा अब भी दिखाते हैं
बहुत हैं पर हाँ पुराने भेष में नहीं
कुछ नया करने के लिये
नया सा कुछ पहन कर आते हैं
सब नहीं जानते हैं
सब नहीं पहचानते हैं
मगर रिश्तेदारी वाले
रिश्ता कहीं ना कहीं से
ढूँढ ही निकालते हैं
तमाशा शुरु भी होता है
तमाशा पूरा भी होता है
बंदर फिर हाथ में लकड़ी ले लेता है
चक्कर लगता है भीड़ होती है
साथ साथ मदारी का जमूरा भी होता है
भीड़ बंदर से बहुत कुछ सीख ले जाती है
बंदर के हाथ में चिल्लर दे जाती है
भीड़ छंंटती जरूर है
लेकिन खुद उसके बाद बंदर हो जाती है
बंदर शहर से होते होते
गाँव तक पहुँच जाते हैं
परेशान गाँव वाले
अपनी सारी समस्यायें भूल जाते हैं
दो रोटी की फसल बचाने की खातिर
बंदर बाड़े बनवाने की अर्जी
जमूरे के हाथ मदारी को भिजवाते हैं
बंदर बाड़े बनते हैंं
बंदर अंदर हो जाते हैं
कुछ बंदर दुभाषिये बना लिये जाते हैं
आदमी और बंदरों के बीच संवाद करवाते हैं
ऐसे कुछ बंदर बाड़े से बाहर रख लिये जाते हैं
पहचान के लिये
कुछ झंडे और डंडे
उनको मुफ्त में दे दिये जाते हैं ।
चित्र सभार: https://www.shutterstock.com/
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आज तो आपने सभी कुछ ले लिया चर्चा के लिये दिल से आभार शास्त्री जी आपका :)
हटाएंआपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 11 मई 2019 को साझा की गई है......... मुखरित मौन पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंVery Nice Post
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