बड़े दिनों के
बाद आज
अचानक फिर
याद आ पड़े
सियार
कि बहुत
अच्छे
उदाहरण
के रूप में
प्रयोग किये
जा सकते हैं
समझाने
के लिये
बेतार के तार
रात के
किसी भी प्रहर
शहर के शहर
हर जगह मिलते
हैं मिलाते हुऐ
सुर में सुर
एक दूसरे के
जैसे हों बहुत
हिले मिले हुऐ
एक दूसरे में
यारों के हो यार
और
आदमी इस
सब की रख
रहा है खबर
हो रहा है
याँत्रिक
यंत्रों के जखीरे
से दबा हुआ
ढूँढता
फिर रहा है
बिना बताये
सब कुछ छुपाये
तारों में
बिजली के
संकेतों में
दौड़ता हुआ
अपने खुद के
लिये प्रेम प्यार
और मनुहार
सियार दिख
नहीं रहे हैं
कई दिन
हो गये हैं
सुनाई नहीं
दे रही हैं आवाजें
नजर नहीं
आ रहे हैं
कहीं भी
सुर में सुर
मिलाते हुऐ
सियारों के सियार
सारे लंगोटिया यार
जरूरत
नहीं है
जरा सा भी
मायूस होने
की सरकार
बन्द कर
रहे हैं लोग
दिमाग
अपने अपने
दिख रहा है
भेजते हुऐ संदेश
बैठा कोई
बहुत दूर
कहीं उस पार
खड़ी हो रही
हैं गर्दने
पंक्तिबद्ध
होकर
उठाये मुँह
आकाश की ओर
मिलाते हुऐ
आवाज से आवाज
याद आ रहा
है एक शहर
भरे हुऐ हर तरफ
सियार ही सियार
जुड़े हुऐ सियार से
और
बेतार का एक तार
बहुत लम्बा मजबूत
जैसे गा रहे हों
हर तरफ
हूँकते हुऐ सियारों
के साथ
मिल कर सियार।
चित्र साभार: http://www.poptechjam.com
कब किस को
देख कर क्या
और
कैसी पल्टी
खाना शुरु कर दे
दिमाग के अन्दर
भरा हुआ भूसा
भरे दिमाग वालों
से पूछने की हिम्मत
ही नहीं पड़ी कभी
बस
इसलिये पूछना
चाह कर भी
नहीं पूछा
उलझता रहा
उलटते पलटते
आक्टोपस से
यूँ ही खयालों में
बेखयाली से
यहाँ से वहाँ
इधर से उधर
कहीं भी
किधर भी
घुसे हुऐ को
देखकर
फिर कुछ भी
कहने लिखने
के लिये नहीं सूझा
बेवकूफ
आक्टोपस
आठ हाथ पैरों
को लेकर तैरता
रहा जिंदगी
भर अपनी
क्या फायदा
जब बिना
कुछ लपेटे
इधर से उधर
और
उधर से इधर
कूदता रहा
कौन पूछे
कहाँ कूदा
किसलिये
और
क्यों कूदा
गधे से लेकर
स्वान तक
कबूतर से
लेकर
कौए तक
मिलाता चल
आदमी की
कलाबाजियों
को देखकर
‘उलूक’
आठ जगह
एक साथ
घुस लेने की
कारीगरी
छोड़ कर
हर जगह
एक हाथ
या एक पैर
छोड़ कर
आना सीख
और
कुछ मत कर
कहीं भी
कहीं और
बैठ कर
कर बस
मौज कर
आक्टोपस बन
मगर मत चल
आठों लेकर
एक साथ हाथ
बस रख
आया कर
हर जगह कुछ
बताने के लिये
अपने आने
का निशान
किस ने
देखना है
कौन
कह रहा है
आ बता
अपनी
पहचान
आक्टोपस
होते हैं
कोई बात
है क्या
आक्टोपस
हो जाना
सीख ना
आदमी से।
चित्र साभार: cz.depositphotos.com
बहुत कुछ
कहना है
कैसे
कहा जाये
नहीं कहा
जा सकता है
लिखना
सोच के
हिसाब से
किसने
कह दिया
सब कुछ
साफ साफ
सफेद लिखा
जा सकता है
सब दावा
करते हैं
सफेद झूठ
लिखते हैं
सच
लिखने वाले
शहीद हो
चुके हैं
कई जमाने
पहले
ये जरूर
कहा जा
सकता है
लिखने
लिखाने
के कोर्ट
पढ़े लिखे
वकील
परिपक्व
जज
होते होंगे
बस इतना
कहा जा
सकता है
सबको पता
होता है
सब ही
जानते है
सबकुछ
कुछ
कहते हैं
कुछ कुछ
पढ़ते हैं
कुछ
ज्यादा
टिप्पणी
नहीं देते हैं
कुछ
दे देते हैं
यूँ ही
देना है
करके कुछ
कुछ
अपने अपने
का रिश्ता
अपने अपने
का धंधा
लिखने
लिखाने
ने भी
बना रखा है
‘उलूक’
खींच
अपने बाल
किसी ने
रोका
कहाँ है
बस मगर
थोड़ा सा
हौले हौले
जोर से
खींचना
ठीक नहीं
गालियाँ
खायेंगे
गालियाँ
खाने वाले
कह कर
दिन की
अंधी एक
रात की
चिड़िया को
सरे आम
गंजा बना
रखा है।
चित्र साभार: Dreamstime.com
बस चार
दिन की है
बची बैचेनी
फिर बजा
लेना बाँसुरी
लगा कर आग
रोम को पूरे
सब कुछ
बदल
जायेगा जब
बनेगी राख
देख लेना
मिचमिचाती
सी अगर
बन्द भी होगी
तब भी आँख
धुआँ खाँसेगा
खुद बूढ़ा
होकर जले
जंगल का
बहेगी नाक
आपदा के
पानी की
बहुत जोरों से
सारा हरा भूरा
और सारा भूरा
हरा हो लेगा
यूँ ही बातों
बातों के बीच
घुस लेंगे सारे
दीमक छोड़
कर कुतरना
जीते हुऐ और
मरे हुऐ को
जैसे थे जहाँ थे
की स्थिति में
उगना शुरु
होंगे जंगल
के जंगल
लदने लगेंगे
फल फूल
पौंधों में पेड़
बनने से
ही पहले
दौड़ेंगे उल्टे
पाँव बंदर
सुअर
और बाघ
घर वापसी
के लिये
खुशी से
दीवाली
के दीये
खनखनायेंगे
पुराने पीतल
के बने घर के
भरे लबलबा
तेल ही तेल से
उधरते घरों
के आंगन
में रम्भायेंगी
भैसें गायें और
बकरियाँ
सूखे खुरदरे
उधरते पहाड़ों
के हाड़ों से
निकलते
सारे के सारे
नदी धारे
दिखेंगे
छलछलाते
सपने बेचने
निकले हैं अपने
खुद के
लोग कुछ
थोड़े से
खरीददार
सारे सब
लगे हैं
साथ में
अपने
अपने
हिसाब से
अपनी
किताबें
पढ़ कर
समझ कर
गणित
दो में दो
जोड़ कर
करने पाँच
सात या
और
ज्यादा
जितना
हो सके
जहाँ तक
चल तैयार
हो ले तू भी
‘उलूक’
लगाने
स्याही
कहीं
थोड़ी सी
अपने भी
गवाही देगें
सुना हैं
रंग नाखूनों के
आने वाले
दिनो में
उत्सवों में
जीत के
पहाड़ों की।
चित्र साभार: Freepik
युद्ध
हो रहा है
बिगुल
बज रहा है
सारे सिपाही
हो रहे हैं
अपने अपने
हथियारों
के साथ
सीमा पर
जा रहे हैं
देश के
अन्दर
की बात
हो रही है
कुछ ही
देश प्रेमी हैं
बता रहे हैं
बाकी सब
देश द्रोही हैं
देश द्रोहियों
से आह्वान
कर रहे है
देश प्रेमियों
को चुनने
को क्यों
नहीं आगे
आ रहे हैं
देश को
किसलिये
थोड़ा सा
भी नहीं
बचा रहे हैं
देश
द्रोहियों से
कह रहे है
थोड़ा सा
कुछ तो
शरमायें
कुछ
देश भक्त
गिड़गिड़ा
रहे हैं
फालतू में
कुछ
देश द्रोहियों
के चरण
पकड़े थे
पिछली बार
आज खुल
कर बता
रहे हैं
प्रायश्चित
कर रहे हैं
इस बार
वो भी
देशभक्तों
के साथ
आ रहे हैं
समझा रहे हैं
समझिये
देश भक्त
देशभक्ति
चुनाव और
लोगों की
सक्रियता
सभी कर
रहे हैं
कुछ
ना कुछ
देश के
लिये
शहीद
होने
जा रहे हैं
‘उलूक’
तेरे दिमाग
में भरे
हुऐ गोबर
के कीड़े
बहुत
ज्यादा
कुलबुला
रहे हैं
मत खोला
कर अपना
मुँह इस
तरह से
तेरे बारे में
बहुत से
लोग लगे हैं
समझाने में
बहुत से
लोगों को
बहुत कुछ
पता नहीं
इतना एक
उल्लू से
किसलिये
लोग
घबरा रहे हैं
कल किसे
पता है
कौन रहेगा
देश भक्तों
के साथ
किसे
मालूम है
कौन रहेगा
देश द्रोहियों
के साथ
कौन से
देश भक्त
अभी जा
रहे हैं
या
कुछ देर
के बाद
आ रहे हैं
जो अभी हैं
वो रहेंगे
जो नहीं हैं
वो क्या करेंगे
किसे पता है
किसे पड़ी है
अपनी अपनी
खुजली लोग
अपने आप
खुजला रहे हैं ?
चित्र साभार: ClipartFest
एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के
फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना
कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है
जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ
इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है
फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा
निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है
खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है
पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है
आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है
भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये
रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये
उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती
ही हैं
आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'
कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी
तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।
चित्र साभार: Free Clip art
(कृपया बकवास को
कवि, कविता और
हिंदी की किसी
विधा से ना जोड़ेंं
और
टुकड़ों को ना जोड़ें,
अभिव्यक्ति कविता से हो
और कवि ही करे
जरूरी नहीं होता है )
सोच खोलना
बंद करना भी
आना चाहिये
सरकारी
दायरे में
ज्यादा नहीं भी
कम से कम
कुछ घंटे ही सही
>>>>>>>>>>>>
बेहिसाब
रेत में
बिखरे हुऐ
सवालों को
रौंदते हुऐ
दौड़ने में
कोई बुराई
नहीं है
गलती
सवालों
की है
किसने
कहा था
उनसे उठने
के लिये
बेवजह
बिना सोचे
बिना समझे
बिना जाने
बिना बूझे
और
बिना पूछे
उससे
जिसपर
उठना शुरु
हो चले
>>>>>>
मालूम है
बात को
लम्बा
खींच
देने से
ज्यादा
समझ
में नहीं
आता है
खींचने की
आदत पड़
गई होती
है जिसे
उससे
फिर भी
आदतन
खींचा ही
जाता है
जानता है
ज्ञानी
बहुत अच्छी
तरह से
अपने घर में
बैठे बैठे भी
अपने
आस पास
दूसरों के
घरों के
कटोरों की
मलाई की
फोटो देख
देख कर
अपने फटे
दूध को
नहीं सिला
जाता है
>>>>>>>
कोई नहीं
खोलता है
अपनी खुद
की किताबें
दूसरों
के सामने
खोलनी
भी क्यों हैं
पढ़ाने की
कोशिश
जरूर
करते
हैं लोग
समझाने
के लिये
किताबें
लोगों को
बहुत सी
किताबें
रखी हुई
दिखती
भी हैं
किताबचियों
के आस पास
कहीं करीने
से लगी हुई
कहीं बिखरी
हुई सी
कहीं धूल
में लिपटी
कहीं साफ
धूप
दिखाई गई
सूखी हुई सी ।