पता नहीं
क्या क्या
उल्टा सीधा
देख सुन कर
आ जा रहा है
चुपचाप
बैठ ले रहा था
कुछ दिन के लिये
बीच बीच में इधर
फिर से
जरा सा में
सनक जा रहा है
कोई
क्यों नहीं
समझा रहा है
बेटी बेटी
नहीं कही
जा सकती है
जब उम्र
पचास पचपन
के पार
हो जाती है
बेटी की
बेटियाँ पैदा
हो जाती हैं
उम्र के
किसी मोड़
पर जा कर
माँग भी
उजड़ जाती है
सुगम के
सपने
देखते देखते
दुर्गम की
कठिन हवा धूप
में सूख जाती है
ऐसी महिला को
कैसे सोच रहा है
लक्ष्मीबाई
खुद को मान
लेने का हक
बेटी पढ़ाओ
बेटी बचाओ
के नारों के
जमाने में
फालतू में
यूँ ही मिल
जा रहा है
अखबार
रेडियो दूरदर्शन
सब देख रहे हैं
सब सही हो रहा है
इनमें से कोई भी
उसके लिये
रोने नहीं जा रहा है
बेटी
कहलवाने
का भाव उसके
सनकी हो गये
दिमाग में से
नहीं निकल
पा रहा है
उसकी समस्या है
तू किसलिये
फनफना रहा है
अगर कोई
बेटी
धमका रहा है
ठन्ड रख
उसके सनकने
का दण्ड भी उसे
निलम्बित कर के
दिया जा रहा है
बहुत सही
हो रहा है
‘उलूक’
तेरे सनकने
के लिये रोज
एक ना एक
बखेड़ा
जरूरी किताब
के जरूरी पाठ
का एक जरूरी
दोहा हो जा रहा है।
चित्र साभार: https://drawingismagic.com
आज
अचानक
गली के
मोड़ पर
तेजी से
भागता हुआ
कबीर मिला था
एक नयी
बहुत मंहगी
चमकीली
साफ सुथरी
चादर से
ढका हुआ
उड़ता हुआ
जैसे एक
बुलबुला
बन रहा था
पूछ बैठा
था कोई
भाई तू
लगभग
पाँच सौ
साल से
यूँ ही
पड़ा रहा था
अब
किस लिये
मजार
छोड़ कर
भाग आया
एक नयी
चादर में
उलझा हुआ
अपना
एक पाँव
बाहर
निकाल
कर उसने
चादर को
किनारे लगाया
जोर से
चिल्लाया
समझा करो
कबीर था
तब तक
जब तक
किसी को
मेरे जुलाहे
होने का
पता नहीं था
पाँच सौ
साल में
बदल जाती
है कायनात तक
मैं तो
उस जमाने
के सीधे साधे
आदमियों के
बीच का था
बस एक
फकीर था
हिंन्दू रहा था
ना मुसलमान रहा था
जुलाहे होने का
थोड़ा सा बस
अभिमान रहा था
दोहे
कह बैठा था
उस समय
के हिसाब से
पर आज
उन सब में जैसे
सारी जिन्दगी का
फलसफाऐ शैतान था
किसे पता था
पाँच सौ साल बाद
रजिया गुँडों के
बीच फंस जायेगी
कबीर के दोहे
किताबों से
दब जायेंगे
ईवीएम
की मशीन
कबीर के
भजन गायेगी
संगीत सुनायेगी
‘उलूक’
कब सुधरेगा
पता नहीं
उसकी बकवास
करने की आदत
भी नहीं जायेगी
कबीर ने
कुछ कहा था
समझना जरूरी
भी नहीं था
कल शायद
सूर की भी बारी
कहीं ना कहीं
आ जायेगी
तुलसी
फंसा हुआ है
मन्दिर की
सोच रहा है
पता नहीं
कौन सी कब्र
किस समय
और किसलिये
खोली जायेगी
बकवास है
शहर की
नहीं है
विनती है आपसे
मत कह देना
कबीर की आत्मा
मेरे घर में रुकी थी
कल चली जायेगी।
चित्र साभार: http://www.pngnames.com
छोड़ें
शराफतें
करें
शरारतें
कुछ
खुराफातें
अपनी
नहीं भी हों
कोई बात नहीं
पर गिनें
सामने वाले की
बड़ी या छोटी
जो भी दिख जाये
सामने से
वो वाली आतें
रोकें
लटक कर
आगे बढ़ रही
घड़ी की सूईयों पर
समय
को खींचें
पीछे ले जायें
बायीं नाक से
खींच कर हवा
आहिस्ता
दायीं नाक से
बाहर का रास्ता
बना कर दिखायें
उल्टा पीछे को
चलने का
रास्ता सिखायेंं
बहुत
जरूरी है
समय को भी
सीख लेना
इस जमाने में
करना प्राणायाम
उसके भी
निकाले
जा सकते हैं
कभी भी
कैसे भी
कहीं भी
प्राण
लिखाकर
थाने में
चोर रहा था
बेशरम
आने वाले
समय के
पेड़ों से
समय से
पहले ही
पके हुऐ
लाल पीले
हरे आम
पीछे चलें
उल्टे पैरों से
मुँह आगे कर
कहीं भी
जाकर गिनें
गिरे हुऐ मरे हुऐ
बटेर और तीतर
शिकारी को
बिल्कुल भी
नहीं पकड़ना
है ठानकर
गिनती बढ़ायें
सौ के दस
हजार दिखायें
उस
समय के चित्र
इस समय
के अखबार
में छपवायें
ढोल नगाड़े
बजवायें
तीतर बटेरों
की आत्मायें
आकर
बता गयी हैं
शिकारी
के नाम पते
हरे पेड़ों के
झड़ गये
पत्तों पत्तों
पर लिखवा
लिखवा
कर बटवायें
मुनादी करवायें
पिछ्ली पीढ़ी
के भूत पिशाचों
को फाँसी की
सजा दिलवायें
आओ
‘उलूक’
संकल्प करें
प्राणवान
कुछ भी
समझ
में आये
उसका श्राद्ध
गया जाकर
प्राण
निकलवाने
से पहले
करवाने
का आदेश
करवायें
आओ
भूत खोद
कर लायें
भविष्य की
बात आये
उससे पहले
उसकी कब्र
वर्तमान में
ही बनाकर
मंगलगीत
मिलकर गायें।
चित्र साभार: https://www.fotosearch.com/
तपती रेत है
बहुत तेज धूप है
हैरान नहीं होना है
रोज की परेशानी है
यहाँ की रेत की
बात यहीं तक रखनी है
किसी को नहीं बतानी है
बस हरी दूब लानी है
बहुत जगह उगी है
बहुत सारी उगी है
हरी हरी दूब है
पानी नहीं होने की
बात ही बेमानी है
बहुत तेज जोरों से
प्यास ही तो लगी है
धैर्य रख
ज्ञानी हैं विज्ञानी हैं
बस यहीं कहीं हैं
सच बात है
नहीं कोई कहानी है
करना कुछ नहीं है
सपने उगाने तो हैं
पर बोना कुछ नहीं हैं
बीज ही नहीं हैं
देखनी रेत है
दूब बस सोचनी है
कौन सा उगानी है
पानी नहीं है
पीना कुछ नहीं है
प्यास
बस एक सोच है
बातें की बहती हुई
नदी एक दिखानी है
एक साफ
चादर ही तो लानी है
गरम रेत
के ऊपर से बिछानी है
दूब हरी हरी
दूर से कहीं से भी
लाकर फैलानी है
बोनी नहीं है
उगानी नहीं है
बस एक दिन
की बात ही है
कुछ नहीं होना है
सूखनी है सुखानी है
गाय भैंस बकरी हैं
कम ज्यादा
कुछ भी मिले
बिकनी बिकानी है
कुछ खड़े होना है
कुछ देर सोना है
इसको उसको सबको
एक साथ एक बार
एक ही बात बतानी है
चोंच नीचे लानी है
पूँछ ऊपर उठानी है
‘उलूक’
कुछ भी कह देने की
तेरी आदत पुरानी है
भीड़ नहीं कहते हैं
बहुत सारे लोगों को
दूर तलक दूर दूर
कतारें खूबसूरत
सारी की सारी
बहुत सारी
बस आज
और आज
ऐसे ही
बनानी हैं।
चित्र साभार: www.123rf.com
झंडों को
हो रही
इधर की
बैचेनी
कुछ कुछ
समझ में
आ रही है
शहर में
आज एक
नयी भीड़
एक नये
रंग के
एक नये
झंडे के नीचे
एक नया
झंडा गीत
गा रही है
पुराने
झंडों के
आशीर्वादों
से भर चुके
झंडा
बरदारों
को नींद से
लग रहा है
जैसे
नयी हवा
जगा रही है
कुछ उस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर
कुछ इस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर
कुछ बेरंगे
हो चुके रंगों
में नया रंग
भरने
जा रही है
एक नये रंग
के झंडे का
पुराने झंडों
में से ही
मिल जुल कर
पैदा हो जाने
की खबर
कल के
अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
सुबह सुबह
आने जा रही है
अवसरवादियों
की बाँछें
फिर से एक बार
और जोर लगा कर
मुस्कुरा रही हैं
इस झंडे को
उठाने वालों को
उस झंडे को
उठाने वालों से
मिलजुल कर
रहने का अभ्यास
नये झंडे तले
करा रही हैं
लाल गेरुआ
नीला पीला
हरा बैगनी
की बात
करने की
रुत जा रही है
मेला नजदीक है
सुनाई दे रहा है
झंडों की
नई दुकाने
सजाने के लिये
फड़ों
की लाईन
लगायी
जा रही है
झंडों के
ठेकेदारों की
नयी योजना से
बेपेंदे के लौटों
के लुढ़कने की
आदत सुना है
बदलने जा रही है
झंडे खुश हैं
झंडा बरदार
भी खुश हैं
धीरे धीरे
हौले हौले
टोपियाँ
इस सर से
उस सर
की ओर
खिसकायी
जा रही हैं
‘उलूक’
तू दो हजार
में उन्नीस
जोड़ या
इक्कीस घटा
तेरी
बकवास
करने की
आदत का
सरकार
पेटेंट कराने
फिर भी
नहीं जा
रही है।
चित्र साभार: www.dreamstime.com
खोल
जरूरी है
साफ
सफेद झक्क
फटी हुई
रजाई को
ढकने के लिये
सारे
सफेद खोल
लटके हुऐ
करीने से
चमचमाती
धूप में
सूखते हुऐ
खुशनसीब
खुशफहमी
की रूईयाँ
उधड़ी
दरारों से
झाँकती हुई
घर के अन्दर
अंधेरे की
खिड़कियों को
समझाती हुई
परहेज करना
रोशनी से
फटी
रजाई ओढ़ते
आदमी का
बाहर
झाँकता चेहरा
साँस लेने के लिये
साफ हवा
भी जरूरी है
लेकिन खोल
ज्यादा जरूरी है
और
जरूरी है
उसका
धुला होना
साफ होना
झक्कास रहना
चमकना
धूप में
फिर स्त्री
किया जाना
फटी हुयी
रजाइयाँ
और
आदत
में शामिल
बाहर
को लटकते
रूई के फाहे
खोल
मजबूरी
नहीं होते हैं
किसी के लिये
एक
पाठ्यक्रम
हो जाते हैं
बिना
खोल के
उधड़ा
हुआ आदमी
बेकार है
बेमानी है
आइये
सजायें
ला ला कर
सफेद
झक्कास
खोलों को
अलग अलग
जगह के
अलग अलग
आदमी के
आदमी के
लिये ही
बनाने
और
दिखाने के
लिये इंद्रधनुष
सात रंगों
के नशे में
चूर के लिये
नशे की सोच
भी पाप है
और
प्रायश्चित
बस
एक ही है
साफ
सफेद
धुले हुऐ
धूप में
लाईन
लगा कर
सुखाये
गये खोल
फटी हुई
रजाई
कहीं भी
नजर नहीं
आनी चाहिये
'उलूक'
किसे
जरूरत है
आँखें
अच्छा देखें
कान
अच्छा सुनें
अच्छे
की आशायें
खोल में
समाहित
होती हैं
यही
फलसफा है
बकवास
करते चले
जाने का।
चित्र साभार: www.amazon.com
बहुत
दिन हो गये
चुपचाप बैठे
चलिये
बैठे ठाले
के
जमा किये
का
कुछ बाहर
निकालें
कथा
करा लें
ठीक नहीं
होता है
देखा भाला
सुना समझा
सम्भाल लेना
पोटली में
कहीं अंदर
अपनी
भाषा में
फिर से
कुछ
जुगाली
कर डालें
आईये
बिना तीरों
की
कमान से
कुछ तीखे
तीर निकालें
मरना
मारना
किस को
करना है
कुछ
हल्ला गुल्ला
हल्ले गुल्ले
के लिये
कर डालें
दर्ज करें
उपस्थिति
समाज में
सामाजिक
होने का दावा
मुट्ठी बन्द कर
हवा में उछालें
बैठे बैठे
इधर उधर
बिखरे
कंकड़ पत्थर
जमा करें
कुछ फैलायें
कुछ उछालें
कुछ लाईन
में लगा कर
रास्ते दिखाने
भर के लिये
दीवारों में
चिपका कर
पोस्टर बाजी
ही कर डालें
आईये
चीटियों के
काटने के
निशानों की
कुछ फोटो
खिंचवालें
कुछ
फाईल में
दबा लें
कुछ
धो पोछ कर
अखबार
नवीसों
के घर जा
कर दे डालें
कुछ तो करें
कभी ही सही
थोड़ी देर
के लिये
ही सही
कहीं भी
एक लाईन
लगवालें
आईये
कुछ
कबूतरों को
कुछ
कौओं को
कुछ
चूहों को
कुछ
शेरों को
जंगल गीत
गाने
का न्योता
शहर के
पाँँच सितारा
में दे डालें
आईये
अन्धे बन कर
कुछ आइने
ही सही
आँख वालों
को बेच डालें
कुछ बदलें
कुछ बदलने
का आह्वाहन
बस कर डालें
कुछ
श्रँगार रस
विधवाओं के
श्रँगार करने
के लिये
रच डालें
आईये रूप बदलें
बहुरूपियों
को ललकारें
शब्दों की
निकाल कर
कुछ कटारें
सफेद
पृष्ठभूमि पर
काले खून से
होली
काली सफेद
ही सही मनालें
आईये
नासमझ
‘उलूक’ को
कुछ
पढ़ालें
कुछ
समझालें
ढोंगियों
के बीच
रहकर
लिलार
पढ़ने
की आदत
बहुत हो गया
अब तो
डाल ही डाले
‘आम’
को ‘राम’
और
‘राम’ को
‘आम’
समझाना
सीखे
जगह जगह
हर जगह
‘उल्लू’ के
मन्दिर
ढलवा ले
‘आमकथा’
लिखवाले
कथावाचकों
को तैयार करे
अपनी पूजा
खुद करने
की आदत
खुद भी डाले
और भी
जिस जिस
से करवा
सके
करवाले ।
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