भीड़ वही थी
चेहरे वही थे कुछ खास नहीं बदला था
एक दिन
इसी भीड़ के बीच से निकल कर
उसने उसको
सरे आम एक चोर बोला था
सबने
उसे कहते हुऐ देखा और सुना था
उसके लिये
उसे इस तरह से
ऐसा कहना सुन कर बहुत बुरा लगा था
कुछ
किया विया तो नहीं था
बस
उस कहने वाले से किनारा कर लिया था
पता ही नहीं था
हर घटना की तरह इस घटना से भी
जिंदगी का एक नया सबक नासमझी का
एक बार फिर से सीखना था
सूरज को हमेशा
उसी तरह सुबह पूरब से ही निकलना था
चाँद को भी हमेशा पश्चिम में जा कर ही डूबना था
भीड़ के बनाये
उसके अपने नियमों का
हमेशा की तरह कुछ नहीं होना था
काम निकलवाने के क्रमसंचय और संयोजन को
समझ लेना इतना आसान भी नहीं था
मसला
मगर बहुत छोटा सा
एक रोज के होने वाले
मसलों के बीच का ही एक मसला था
आज उन दोनों का जोड़ा
सामने से ही
हाथ में हाथ डाल कर जब निकला था
कुछ हुआ था या नहीं हुआ था
पता ही नहीं चल सका था
भीड़ वही थी चेहरे वही थे
कहीं कुछ हुआ भी है
का कोई भी निशान
किसी चेहरे पर बदलता हुआ
कहीं भी नहीं दिखा था
‘उलूक’ ने
खिसियाते हुऐ हमेशा की तरह
एक बार फिर अपनी होशियारी का सबक
उगलते उगलते
अपने ही थूक के साथ
कड़वी सच्चाई की तरह ही निगला था ।
चित्र साभार: davidharbinson.com