उलूक टाइम्स: अंतिम दिन
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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

कभी कुछ भी नहीं होता है कहने के लिये तब भी कुछ कुछ कह दिया जाता है


महीने की
अंतिम साँस लेने की
आवाजें आनी शुरु होती ही हैं
अंतिम सप्ताह के अंतिम दिनों में

और मरता भी है महीना
अठाईस से तीस नहीं भी तो
पक्का सौ प्रतिशत इक्तीस दिनों में

लिखने वाले कई होते हैं
रसोई के
खाली होते जा रहे डिब्बों पर
ध्यान नहीं देते हैं
भूख मर भी जाती है
खाली बीड़ी के बंडल के खोल रह जाते हैं

बीड़ी
धुआँ हो कर हवा में उड़ जाती है
बंडल की राख 
खाली चाय के टूटे कपों की
तलहटी में चिपक जाती है

जितनी बढ़ती है बैचेनी
उतनी कलम पागल होना शुरु हो जाती है

कलम का पागल हो जाना
सबको नजर भी नहीं आता है

ऐसे ऐरे गैरे लिखने वालों के बीच
पागलों का डाक्टर भी नहीं जाता है

एक नहीं कई कई हैं
गली गली में हैं 
मुहल्ले मुहल्ले में जिनके हल्ले हैं

अच्छा है
चिट्ठों के बारे में
उनको कोई नहीं बताता है

‘उलूक’
परेशान मत हो लगा रह
किसी को पता नहीं है
तू यहाँ रोज आता है रोज जाता है

चिट्ठागिरी है
कोई शेयर बाजार नहीं है
लिखने लिखाने का भाव
ना चढ़ता है ना ही कोई उतार पाता है

इधर
राशन खत्म होता है हर महीने
महीना पूरा होने से कुछ दिन पहले ही हमेशा

उधर लिखने वालों के बाजार में
एक शब्द के साथ कई शब्दों को
मुफ्त में दिया जाता है

चिट्ठागिरी है
कोई दादागिरी नहीं है
ज्यादा पता भी नहीं है अभी लोगों को

तब तक
जब तक यहाँ भी
निविदाओं को आमंत्रित नहीं किया जाता है ।

चित्र साभार: juiceteam.wordpress.com

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

दिवाला होना किस चीज का अच्छा होता है

महीने के
अंतिम दिन
तक आते
जेब का
दिवाला होना
कुछ समझ
में आता है
सोच से
दिवालिया
होने के लिये
दिन साल
महीने को
कहां गिना
जाता है

बहुत
होते हैं
जेब से
दिवालिये
पर अपनी
सोच का
जनाजा
कभी
निकलने
नहीं
देते हैं

सोच का
दिवाला
खुद ही
निकाल
जेब के
हवाले
करने
वाले
पर
हर जगह
होते हैं
और
कम नहीं
होते हैं
ज्यादा
होते हैं
और
बहुत
होते हैं

सोच के
होने को
आज कौन
भाव देता है
सबकी
नजर में
जेब होती है
और
हर जेब
का भाव
बस वही
जैसे आज
बाजार में
प्याज
होता है

जो भी
होता है
बस एक
बाजार
होता है
चढ़ता है
कुछ कहीं
कहीं कुछ
उतर रहा
होता है

सबकी
अपनी
फितरत है
कहाँ इसका
फर्क पड़
रहा होता है

कहीं सोच
मर रही
होती है
कहीं
जनाजा
सोच का
लेकर सामने
से ही कोई
गुजर रहा
होता है

बहुत कुछ
होता है
किसी के
लिये जो
किसी के
लिये कुछ
भी कहीं
नहीं
होता है ।