उलूक टाइम्स: नवंबर 2014

शनिवार, 29 नवंबर 2014

अंधेरा बाहर का कभी भी अंदर का नहीं होता है

अचानक
किसी क्षण
आभास
होता है
और याद
आना शुरु
होता
है अंधेरा
जिसे बहुत
आसान है
देखना और
टटोलना
अपने ही अंदर
बस आँखें
बंद करिये
और शुरु
हो जाईये
बाहर उजाले
में फैले हुऐ
अंधेरे के
आक्टोपस की
भुजाओं से
घिरे घिरे
आखिर कब
तक इंतजार
किया जा
सकता है
घुटन होने
के लिये
जरूरी नहीं
है एक
बंद कमरा
धूल और धुऐं
से भरा हुआ
साँस बंद
होती हुई
सी महसूस
होना शुरु
होने लगती है
कभी किसी
साफ सुथरे
माहौल में भी
ऐसे ही समय
पर बहुत
काम आता है
अपने अंदर
का अंधेरा
जो दे सकता
है सुकून
बस जरूरत
होती है उसे
टटोलने की
हाथों की
उँगलियों से नहीं
आखों की बंद
पुतलियों से ही
बस शर्त है
आँख बंद होते ही
देखना शुरु
नहीं करना है
कोई एक सपना
अंधेरे में फैले हुऐ
सपने कभी
किसी के
अपने नहीं होते हैं
अपने ही अंदर
का अंधेरा जितना
अपना होता है
उतना बाहर
का उजाला
नहीं होता है
बस टटोलना
आना जरूरी
होता है
जिसे सीख
लेने के लिये
जरूरी होता है
कभी कुछ
देर आँखे
बंद करना
और इस
बंद करने
का मतलब
बंद करना
ही होता है ।

चित्र साभार: tessbalexander.wordpress.com

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

बलात्कार चीत्कार व्यभिचार पर स्मारक बनें खूब बने बनाने बनवाने में किसलिये करना है और क्यों करना है कुछ भी विचार


क्या किया जाये बहुत बार होता है
लिखा जाये या नहीं लिखा जाये

होता है होता है
एक पूरा आदमी हो जाने से ही
सब कहाँ होता है

जैसे कि एक कच्ची रह गई सोच में हो
वही सब कुछ
जो किसी और की सोच से बाहर
आता हुआ तो दिखता है
पर अपनी ऊपर की मंजिल में ही बस
उसका पता नहीं मिलता है

होता है होता है
जैसे कि बहुत सी चीज अजीब लगती होती हैं
होती हुई अपने ही आस पास
पर बनती हैं इतिहास
बैचेनी होने लगती है देख देख कर कभी
और कुछ कुछ होता है

इतिहास हो जाती हैं आदत हो जाती है
फिर कुछ नहीं होता है
आदत हो गई होती है सब कर रहे होते हैं
कुछ नहीं कह रहे होते हैं

एक सामान्य सी ही बात हो जाती है
समझ में नहीं भी आती है तब भी
बहुत अच्छी तरह आ रही है
देखी और दिखाई जाती है
दिखाना पड़ता है

जैसे अपनी और अपनों की ही बात हो जा रही है
कहा नहीं भी जाता है पर जमाना मान जाता है

शहीदों की चिताओं पर लगने वाले मेलों की बात
एक इतिहास हो जाता है

जमाना बदलता है 
बलात्कार व्यभिचार अत्याचार और
ना जाने क्या क्या
सब पर ही बनाया जाता है

स्मारक दर स्मारक
स्मारक के ऊपर स्मारक चढ़ाया जाता है
कुछ समझ में आता भी है
कुछ समझ में नहीं भी आता है ।

चित्र साभार: www.clipartlogo.com

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

इंसानियत तो बस एक मुद्दा हो जाता सरे आम दिन दोपहर की रोशनी में उसे नंगा किया जाता है अंधा ‘उलूक’ देखने चला आता है

एक नहीं 
कई बार 
कहा है
तुझसे 

दिन में मत 
निकला कर 
निकल भी 
जाता है अगर 
तो जो दिखता है 
मत देखा कर 

ऐसा देख
कर आना 
फिर यहाँ आ 
कर बताना 

क्यों करता है 
रात का
निशाचर है 
दिन वालों की 
खबर रखता है 

हर प्रहर के 
अपने नियम कानून 
बनाये जाते हैं 

दिन के दिन में 
रात के रात में 
चलाये जाते हैं 

उल्लुओं की दुनियाँ 
के कब्रिस्तान 
दिन की फिल्मों में 
ही दिखाये जाते हैं 

इंसान इंसान होता है 
इंसान ही उसे 
समझ पाते हैं 

बलात्कार होना 
लाश हो जाना 
कीड़े पड़ जाना 
लाश घर में रख कर 
आँदोलित हो जाना 

वाजिब है 
समझ में भी आता है
आक्रोश होना
अलग बात होती है
आक्रोश दिखाया जाता है

स्कूल बंद कराये जाते हैं
बाजार बंद कराये जाते हैं
बंद कराने वाले
अपने अपने रंग बिरंगे
झंडे जरूर साथ
ले कर आते हैं

अखबार वाले
समाचार
बनाने आते हैं
टी वी वाले
वीडियो
बनाने आते हैं

अगला चुनाव
दिमाग में होता है
राजनीतिज्ञ
वक्तव्य दे जाते हैं

सब कुछ साफ साफ
देख लेता है ‘उलूक’

दिन के उजाले में भी
घटना दुर्घटना
महज मुद्दे हो जाते हैं

सबके लिये
काम होता है
मुद्दे भुनाने का

बस भोगने वाले
अपने आँसू खुद
ही पी जाते हैं

इंसान का हुआ होता
है बलात्कार और
बस इंसान ही खो जाते हैं
कहीं भी नजर नहीं आते हैं

सोच में आती है
कुछ देर के लिये
एक बात
सभी अपने रंगीन
झंडों को भूलकर

किसी एक घड़ी के लिये
काले झंडे एक साथ
एक सुर में
क्यों नहीं उठा पाते हैं ।

चित्र साभर: gladlylistening.wordpress.com

बुधवार, 26 नवंबर 2014

हैवानियत है कि इंसानियत का दीमक हुई जा रही है

शर्म आती है

कहने में भी
शर्म आ रही है

सात साल की
मासूम ‘कशिश’

जिस दरिंदगी
का हुई है शिकार

किसकी
रही गलती
कहाँ हो गई कमी


इंसानियत
क्यों हैवानियत
होती जा रही है

दानवों की सी
नोच खसोट जारी है

कितनी द्रोपदी

पता नहीं
कहाँ कहाँ

दुशासन की
पकड़ में
बस कसमसा रही हैं

भगवान
कृष्ण भी
कहाँ कहाँ पहुँचें

सारी घटनायें
सामने कहाँ
आ रही हैं

देवताओ
कुछ तो कहो

देव भूमि
पीड़ा से
छ्टपटा रही है

माँ की ममता
कितनी
हो चुकी है बेबस

गिद्धों की
नोची हुई
लाश को
देख देख कर
बेहोश हुई
जा रही है

इंसान
कलियुग़ में
इंसानियत का
कितना करेगा
और कत्ल

सजा
पता नहीं
कब और किसे
दी जा रही है

आँखें हैं नमी है
सिले हुऐ मुँह हैं

मोमबत्तियाँ
हाथों में ही
पिघलती
जा रही हैं

शर्म आ रही है

कहने में भी
शर्म आ रही है ।

चित्र साभार: imgarcade.com

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

हाथ की लकीरें माथे की लकीरें फकीरों को बता दें कि अब मिटा ली जायें

कुछ लगे
हल्की
ही सही

हवा संभाली जाये

थोड़ा
अपनी ओर से
फूँक मार कर

उछाली जाये

किस
हाथ में हैं
लकीरें कुछ
तूफान उठाने वाली

उस हाथ
वाले की
पूरी कुण्डली
बना कर

खंगाली जाये

फकीरों
की भी
आदतें हो रही हैं
कुछ अमीरों सी

गरीबों
की गलियों में
ऐशो आराम की
सवारी एक

निकाली जाये

कर ले
शौक से
अपने गली के

घोड़ों गधों 

और कुत्तों की
आदतों की बातें

अपनी आदतें
खुद तुझसे

कहाँ संभाली जायें

अच्छा नहीं है
बीच शहर में
बड़बड़ाना
शरीफों का

निकल
कर गाँवों
की तरफ
कुछ फुसफुसा के

पेड़ों से बातें
करने की आदतें

अब डाली जायें

करने
धरने में
कुछ रखा नहीं
इस जमाने में

किस्मत को
किस्मत से
लड़ाने की

तरकीब
सिखाने की

दुकानें
हर कोने में
घर घर में

बना ली जायें

लिख ही दे
‘उलूक’ तू भी
दीवाने उलूक

खींच खाँच कर
छोटी बातों को
कुछ इसी तरह

रोज का रोज
बात बात में
बात की
टाँगे तोड़
देने की

नई नई
तरकीबें

कुछ
निकाली जायें ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

सोमवार, 24 नवंबर 2014

कुछ करने वाले खुद नहीं लिखते हैं अपने किये कराये पर किसी से लिखाते हैं

कुछ मत
कह ना
लिखने
दे ना

लिख ही तो
रहें हैं
कुछ
कर तो
नहीं रहे हैं

वैसे भी
जो करते हैं
वो
ना लिखते हैं
ना लिखे हुऐ
को पढ़ते हैं

गीता पर
दिये गये
कृष्ण भगवान
के कर्म
के संदेश
को अपने
दिल में
रखते है

बीच बीच
में लिखने
वाले को
याद दिलाते हैं
अपना खुद
काम पर
लग जाते हैं

करने के
साथ साथ
लिख लेने
वाले भी
कुछ हुआ
करते हैं

लिख लेने
के बाद
कर लेने
वाले कुछ
हुआ करते हैं

अब
अपवाद
तो हर
जगह ही
हुआ
करते हैं

करने वाले
को हम
कौन सा
रोक पाते हैं

करते हुऐ
देखते हैं
और
लिखने के
लिये आ
जाते हैं

लिख
लेने से
करने वालों
पर कोई
प्रभाव नहीं
पढ़ता है

उनके करने
कराने
पर कहानी
बनाने वाले
कुछ अलग
तरह के लोग
अलग जगह
पर पाये
जाते हैं

वो ही
करने वालों
के करने
पर लिखते
चले जाते हैं

जिसे
सारे लोग
पढ़ते भी हैं
और
पढ़ाते भी हैं
जिसे
सारे लोग
समझते भी हैं
और
साथ में
समझाते भी हैं

‘उलूक’ के
लिखे को
ना ये
पढ़ते हैं
ना वो
पढ़ते है

करने वालों
के करने
का लिखना
तू जा कर
पढ़ ना

कुछ नहीं
करने वाले से
तुझे क्या
लेना देना
उसे लिखने
ही दे ना ।

चित्र साभार: becuo.com

रविवार, 23 नवंबर 2014

कुछ नहीं किया जा सकता है उस बेवकूफ के लिये जो आधी सदी गुजार कर भी कुछ नहीं सीख पाता है

रोज की बात है
रोज चौंकता है
अखबार पर
छपी खबर
पढ़ कर के
फिर यहाँ आ आ
कर भौंकता है
बिना आवाज के
कुत्ते की तरह
ऐसा चौंकना
भी क्या और
ऐसा भौंकना
भी क्या
अरे क्या हुआ
अगर एक चोर
कहीं सम्मानित
किया जाता है
ये भी तो देखा कर
एक चोर ही
उसके गले में
माला पहनाता है
अब चोर चोर के
बीच की बात में
तू काहे अपनी
गोबर भरे
दिमाग की
बुद्धी लगाता है
क्या होता है
अगर किसी
बंदरिया को
अदरख़ बेचने
खरीदने का
ठेका दे भी
दिया जाता है
और क्या होता है
अगर किसी
जुगाड़ी का जुगाड़
किसी की भी
हो सरकार
सबसे बड़ा जुगाड़
माना जाता है
बहुत हो चुका
तेरा भौंकना
तेरा गला भी
लगता है
कुछ विशेष है
खराब भी
नहीं होता है
थोड़ा बहुत
कुछ भी
कहीं भी
होता है
खरखराना
शुरु हो
जाता है
समय के
साथ साथ
बदलना
क्यों नहीं
सीखना
चाहता है
खुद का समय
तो निकल गया
के भ्रम से भ्रमित
हो भी चुका है
तो भी अपनी
अगली पीढ़ी को
ये कलाबाजियाँ
क्यों नहीं
सिखाता है
जी नहीं पायेगी
मर जायेगी
तेरी ही आत्मा
गालियाँ खायेगी
तेरी समझ में
इतना भी
नहीं आता है
कौन कह रहा है
करने के लिये
सिखाना है
समझा कर
समझने के लिये
ही उकसाना है
समझने के लिये
ही बताना है
चोरी चकारी
बे‌ईमानी भ्रष्टाचारी
किसी जमाने में
गलत मानी
जाती होंगी
अब तो बस
ये सब नहीं
सीख पाया तो
गंवारों में
गिना जाता है
वैसे सच तो ये है
कि करने वालों
का ही कुछ
नहीं जाता है
नहीं करने वाला
कहीं ना कहीं
कभी ना कभी
स्टिंग आपरेशन
के कैमरे में
फंसा दिया जाता है
इसी लिये ही तो
कह रहा है ‘उलूक’
गाँठ बाँध ले
बच्चों को अपने ही
मूल्यों में ये सब
बताना जरूरी
हो जाता है
करना सीख
लेता है जो
वो तो वैसे भी
बच जाता है
नहीं सीख पाता है
लेकिन जानता है
कम से कम
अपने आप को
बचाने का रास्ता तो
खोज ही ले जाता है ।

चित्र साभार: poetsareangels.com

शनिवार, 22 नवंबर 2014

लिखता लिखता ही पढ़ना भी सीख लेगा

जिस दिन
सीख लेगा
लिखना
बता उस दिन
क्या लिखेगा
अभी बताने
में भी कोई
हर्ज नहीं है
कविता
लिखेगा
या फिर कोई
गजल
लिखेगा
तब तक
ऐसा वैसा
भी लिखेगा
वो भी चलेगा
लिखना सीखने
के लिये जो
भी लिखेगा
वही तो
एक दिन
लिखना
सिखाने
के लिये
भी लिखेगा
लिखना एक
अलग बात है
लिखने वाला
बस लिखेगा
पढ़ना एक
अलग बात है
पढ़ने वाला
बस पढ़ेगा
लिखना पढ़ना
साथ करने
की कोशिश
जो भी करेगा
ना लिख
पायेगा कुछ
ना ही पढ़ेगा
लिखना सीख
ले कुछ
लिख लिखा
कर कुछ
दिनों तक
लिखना
सीख लेगा
जब ‘उलूक’
पूरा का पूरा
आधा
कम से कम
पढ़ना भी
सीख लेगा ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

बस चिंगारी से आग और आग से राख बनाने की बात करनी है


चिंगारियाँ उठने की बात आग़ लगने की बात बातों बातों में ही करनी है
इससे भी पूछना है उससे भी पूछना है
आग से भी पूछ कर कुछ सुलगने सुलगाने की बात करनी है

जलाना कितना भी है जलाना कुछ भी है बस जलाने की बात करनी है
आग लगनी है ना लगानी है बस आग दिखने और दिखाने की बात करनी है

धुँआ दिखना नहीं है राख बचनी नहीं है दिल को जलना नहीं है
तूफान आने की बात करनी है

कत्ल होना नहीं है खून बहना नहीं है क्राँतिकारियों की बात करनी है 
बहुत हो चुकी इंसानों की बातें पामेरियन ऐप्सो एल्शेशियन की बात करनी है

बहुत बेच दिये आदमी ने आदमी
अब लाशें दफनानी हैं  मूर्तियाँ लगवानी हैं कमीशन बनाने की बात करनी है

आग होती भी है आग लगती भी है मत करो जुल्म उसपर बड़ा
उसे भी कभी थोड़ा सा कुछ सोने जाने की बात करनी है 

सालों हो गये तुझको बातें बनाते ‘उलूक’ सबको पता है
तुझे तो बस दिया सलाई की बात करनी है


चित्र साभार: www.dreamstime.com

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जानवर पढ़ के इस लिखे लिखाये को कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा


नंगों के लिये कपड़े लिख देने से
ढका कुछ भी नहीं जायेगा
कुछ नहीं किया जा सकता है
कुछ बेशर्मियों के लिये
जिन्हें ढकने के लिये
पता होता है कपड़ा ही छोटा पड़ जायेगा

आँखों को ढकना सीखना सिखाना
चल रहा होता है सब जगह जहाँ
मालूम होता है अच्छी तरह
एक छोटे से कपड़े के टुकड़े से भी काम चल जायेगा

दिखता है सबको सब कुछ
दिख गया लेकिन किसी से नहीं कहा जायेगा
ऐसे देखने वालों की आँखों का देखना
देखने का चश्मा कहाँ मिल पायेगा

दिखने को लिखना बहुत ही आसान है
मगर यहीं पर हर कोई
गंवार और अनपढ़ बन जायेगा

लिखता रहेगा रात भर अंधेरे को ‘उलूक’
हमेशा ही सवेरे के आने तक 
सवेरा निकलेगा उजाले के साथ
आँखों में धूप का चश्मा बहुत काला मगर लगायेगा

जल्दी नहीं आयेगा समझ में कुछ
कुछ समय खुद ही समय के साथ सिखायेगा

नंगेपन को ढकना नहीं है
लिखना सीखना है ज्यादा जरूरी
लिखते लिखते नंगापन ही एक फैशन भी हो जायेगा

कपड़ा सोचना कपड़ा लिखना
कपड़े का इतिहास बने या ना बने
बंद कुछ पढ़ने से खुला सब पढ़ना
हमेशा ही अच्छा कहा जायेगा ।

चित्र साभार: www.picsgag.com

बहुत कुछ हो रहा होता है पर क्या ? यही बस पता नहीं चल रहा होता है

बहते हुऐ पानी
को देखती हुई
दो आँखें इधर से
गिन रही होती हैं
पानी के अंदर
तैरती मछलियाँ
और उधर से
दो और आँखें
बहते हुऐ पानी
को गिन रही होती हैं
मछलियाँ
गिनना कहना
तो समझ में
आ रहा होता है
उसे भी जो पानी में
देख रहा होता है
और उसे भी जो
गिनती नहीं
जानता है पर
मछलियाँ
मछलियाँ होती हैं
अच्छी तरह
पहचानता है
पानी को गिनने
की बात करना
पानी को कोई
गिन रहा है जैसा
किसी को कहते
हुऐ सुनना और
पानी गिनने की
बात पर कुछ सोचना
किसी को भी
अजीब लग सकता है
लेकिन ऐसी ही
अजीब सी बातें
एक नहीं कई कई
रोज की जिंदगी
में आने लगी हैं
सामने से
इस तरह की बातों को
कोई किस से कहे
कौन सिद्ध करे
अपने दिमाग का
दिवालियापन
बहुत से लोग अब
यही सब करते हैं
समझते हैं और
बहुत आसान होता है
ऐसा महसूस होता है
क्योंकि ऐसा एक नहीं
कर रहा होता है
बल्कि एक दो को
छोड़ कर हर कोई
इसी चीज को लेकर
एक दूसरे को समझ
और समझा रहा होता है
‘उलूक’ परेशान होकर
पानी के सामने
अपने कैल्कुलेटर की
पुरानी बैटरी को
नई बैटरी से
बदल रहा होता है
सारा का सारा पानी
बह कर उसके ही
सामने से निकल
रहा होता है
क्या किया
जा सकता है
कुछ लोगों की
फितरत ऐसी
ही होती है
वो कुछ नहीं
कर सकते हैं
और उनसे
कभी भी
कुछ भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: cwanews.com

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

कहने को कुछ नहीं है ऐसे हालातों में कैसे कोई कुछ कहेगा

दिख तो रहा है
अब मत कह देना
नहीं दिख रहा है
क्यों दिख रहा है
दिखना तो
नहीं चाहिये था
क्या हुआ ऐसा
दिखाई दे गया
और जो दिखा
वही सच है
ऐसे कई सच
हर जगह
सीँच रहे हैं
खून से
जिंदा लाशों को
और बेशरम लाशें
खुश हैं व्यस्त हैं
बंद आँखों से
मरोड़ते हुऐ
सपने अपने भी
और सपनों के भी
ये दिखना दिखेगा
कोई कुछ कहेगा
कोई कुछ कहेगा
मकान चार खंभों पे
टिका ही रहेगा
खंभा खंभे
को नोचेगा
एक गिरेगा
तीन पर हिलेगा
दो गिरेंगे
दो पर चलेगा
लंगड़ायेगा
कोई नहीं देखेगा
लंगड़ा होकर भी
गिरा हुआ खंभा
मरेगा नहीं
खड़ा हो जायेगा
फिर से मकान
की खातिर नहीं
खंभे की खातिरदारी
के लिये
ऐसे ही चलेगा
कल मकान में
जलसा मिलेगा
दावत होगी
लाशें होंगी
मरी हुई नहीं
जिंदा होंगी
तालियाँ बजेंगी
एक लाल गुलाब
कहीं खिलेगा
आँसू रंगहीन
नहीं होंगे
हर जगह रंग
लाल ही होगा
पर लाली नहीं होगी
खून पीला हो चुकेगा
कोई नहीं कुछ कहेगा
कुछ दिन चलेगा
फिर कहीं कोई
किसी और रंग का
झंडा लिये खड़ा
झंडे की जगह ले लेगा
खंबा हिलेगा
हिलते खंबे को देख
खंबा हिलेगा
मकान में जलसा
फिर भी चलेगा।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

सोमवार, 17 नवंबर 2014

खुद का आईना है खुद ही देख रहा हूँ

अपने आईने
को अपने
हाथ में लेकर
घूम रहा हूँ

परेशान होने
की जरूरत
नहीं है
खुद अपना
ही चेहरा
ढूँढ रहा हूँ

तुम्हारे
पास होगा
तुम्हारा आईना
तुमसे अपने
आईने में कुछ
ढूँढने के लिये
नहीं बोल रहा हूँ

कौन क्या
देखता है जब
अपने आईने में
अपने को देखता है

मैंने कब कहा
मैं भी झूठ
नहीं बोल रहा हूँ

खयाल में नहीं
आ रहा है
अक्स अपना ही
जब से बैठा हूँ
लिखने की
सोचकर

उसके आईने में
खुद को देखकर
उसके बारे में
ही सोच रहा हूँ

सब अपने
आईने में
अपने को
देखते हैं

मैं अपने आईने
को देख रहा हूँ

उसने देखा हो
शायद मेरे
आईने में कुछ

मैं
उसपर पड़ी
हुई धूल में
जब से
देख रहा हूँ

कुछ ऐसा
और
कुछ वैसा
जैसा ही
देख रहा हूँ ।

चित्र साभार: vgmirrors.blogspot.com

जरूरी है याद कर लेना कभी कभी रहीम तुलसी या कबीर को भी



बहुत सारी तालियाँ
बजती हैं हमेशा ही
अच्छे पर अच्छा
बोलने के लिये
इधर भी और
उधर भी
 नीचे नजर
आ जाती हैं
दिखती हैं
दूरदर्शन में
सुनाई देती हैं
रेडियो में
छपती हैं
अखबार में
या जीवित
प्रसारण में भी
सामने से खुद
के अपने ही
शायद बजती
भी हों क्या पता
उसी समय
कहीं ऊपर भी
अच्छा बोलने
के लिये अच्छा
होना नहीं होता
बहुत ही जरूरी भी
बुरे को अच्छा
बोलने पर नहीं
कहीं कोई पाबंदी भी
अच्छे होते हैं
अच्छा ही देखते हैं
अच्छा ही बोलते हैं
ज्यादातर होते ही हैं
खुद अपने आप में
लोग अच्छे भी
बुरी कुछ बातें
देखने की उस पर
फिर कुछ कह देने की
उसी पर कुछ कुछ
लिख देने की
होती है कुछ बुरे
लोगों की आदत भी
अच्छा अच्छा होता है
अच्छे के लिये
कह लेना भी
और जरूरी भी है
बुरे को देखते
बुरा कुछ कहते
रहना भी
करते हुऐ याद
दोहा कबीर का
बुरा जो देखन मैं चला
हर सुबह उठने
के बाद और
रात में सोने से
पहले भी ।

 चित्र साभार:
funny-pictures.picphotos.net

शनिवार, 15 नवंबर 2014

कोई नई बात नहीं है बात बात में उठती ही है बात

बड़ी असमंजस है
मुँह से निकली
नहीं बात
बात उठना
शुरु हो जाती है
मायने निकलने की
और मायने
निकालने की
बात की तह में
पहुँचने की
बात को बात की
जगह पर पहुँचाने
की छिड़ ही
जाती है बहस भी
खुद की खुद से ही
नहीं तो सामने
आने वाले किसी
भी शख्स से
अब ढपली
जब सबकी अपनी
अपनी अपनी
जगह पर ही
होती है बजनी
तो राग किसी का
कौन काहे लेना
चाहेगा उधार
नकद में
बिना सूद का
जब पड़ा हुआ हो
सबके पास अपना
अपना कारोबार
कल मित्र के
समझने समझाने
पर कह बैठा
घर पर जब
यूँ ही एक बात
चढ़ बैठे
समझाने वाले
बातों का हंटर
उठाये अपने
अपने हाथ
काहे समझाना
चाहते हो
सब कुछ सब को
जितना ना आये
समझ में उतना
रहता है चैन
क्यों सब को
बनाना चाहते हो
अपना जैसा
समझदार और बैचेन
बात को उठा देने
के बाद बात को
उठने क्यों नहीं देते
जन धन योजना
की तरह
बिना पैसे के खाते
और उसपर मिलने
वाले एक लाख
रुपिये के
दुर्घटना बीमा से
अपनी और अपनी
सात पुश्तों का
भविष्य सुरक्षित
क्यों नहीं कर लेते
अब बात उठी है
समझी किसने है
सब खुश है
और हैं खुशहाल
और आप लगे हुऐ हैं
समझाने में
क्यों करना चाहते है
सबको बस एक बात
के लिये बेहाल
खुश रहने का मंत्र
गाँठ बांध लीजिये
जनाब
बात सुनिये
बात करिये
बात लिख
भी लिजिये
कोई नहीं
रोक रहा है
बात समझने
समझाने की
बात मत करिये
बस इसी बात
से ही होना शुरु
होता है बबाल ।

चित्र साभार: teacherzilla.wordpress.com

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

मित्रों का वार्तालाप


भाई
आपका लिखा
पढ़ता हूँ पर
समझ में ही
नहीं आता है
समझ में नहीं
आने के बावजूद
भी रोज पढ़ने
चला आता हूँ
सोचता हूँ शायद
किसी दिन कुछ
समझ में
आ ही जाये
लेकिन कुछ भी
अपने हाथ में
आया हुआ
नहीं पाता हूँ
जब यहाँ से
पढ़ पढ़ा कर
हमेशा कि तरह
खाली हाथ
खाली दिमाग
लौट जाता हूँ
ऐसा कुछ लिखना
जरूरी है क्या
जो पचाना तो दूर
खाया भी
नहीं जाता है ?

जरूरी नहीं है
भाई जी
मजबूरी है
समझ में मेरे भी
बहुत कुछ
नहीं आता है
कोशिश करता हूँ
समझने की बहुत
जितना कुछ है
सोचने समझने का
जुगाड़ पूरा ही
लगाता हूँ
जब क्यों हो रहा है
होता हुआ
अपने सामने से
होते हुऐ को
देखता चला जाता हूँ
जो नहीं होना चाहिये
उस होने के लिये
हर किसी को
उस ओर खड़ा
नहीं होने के
साथ पाता हूँ
तो अंत में
थक हार कर
नहीं समझे हुऐ को
लिख लिखा कर
जमा करने
यहाँ चला आता हूँ
सोचता हूँ
आज नहीं समझ में
आने वाली कच्ची बात
किसी दिन शायद
पक कर पूरी आ जायेगी
हो जायेगी खाने लायक
और होगी अपने ही हाथ
सोच सोच कर
बस इसी तरह का
एक खाता यहाँ
बनाये चला जाता हूँ
पर ये ही समझ
नहीं पाता हूँ
समझ में ना आने
के बाद भी कुछ भी
तुमको रोज
यहाँ आकर
लिखे को पढ़ चुके
लोगों की सूची में
क्यों और
किसलिये पाता हूँ ?


अरे कुछ नहीं
ऐसे ही मित्र ‘उलूक’
मैं भी कौन सा
तुम को उलझाना
चाहता हूँ
कुछ हो गया होता है
जब पता चलता है
तुमने कुछ लिखा होगा
उसपर जरूर
सोच कर बस यही
पता करने को
चला आता हूँ
पर तुम्हारे लिखने
में कुछ भी नहीं मिलता
क्यों लिखते हो
इस तरह का जो
ना आये किसी की
समझ में कभी भी
यहाँ से जाने के बाद
बस सोचता और
सोचता ही
रह जाता हूँ
जब नहीं सुलझती
है उलझन तो
पूछने चला आता हूँ ।

चित्र साभार: www.gograph.com

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

कभी लिख तो सही पेड़ जंगल मत लिख डालना लिखना बस एक या डेढ़ दो पेड़

पेड़ के इधर पेड़
पेड़ के उधर पेड़
बहुत सारे पेड़
एक दो नहीं
ढेर सारे पेड़
चीड़ के पेड़
देवदार के पेड़
नुकीली पत्तियों
वाले कुछ पेड़
चौड़ी पत्तियों
वाले कुछ पेड़
सदाबहार पेड़
पतझड़ में
पत्तियाँ झड़ाये खड़े
कई कई हजार पेड़
आदमी के आस
पास के पेड़
बहुत दूर
आदमी की पहुँच
से बाहर के पेड़
पेड़ के पास
के आदमी
आदमी और पेड़
पेड़ और आदमी
आदमी के
पास के आदमी
पेड़ के पास के
कुछ खुश
कुछ उदास पेड़
पेड़ से कुछ नहीं
कहते कभी
भी कुछ पेड़
आदमी से
कुछ नहीं लेते
कभी भी कुछ पेड़
आदमी से सभी कुछ
कह देते आदमी
जमीनों पर खुद ही
उग लेते
पनप लेते पेड़
जमीनों से कटते
उजड़ते पेड़
आदमी के
हाथ से कटते पेड़
आदमी के हाथ से
कटते आदमी
आदतन आदमी
के होते सभी पेड़
पेड़ को
जरूरत ही नहीं
पेड़ के होते
नहीं आदमी
पेड़ के होते
हुऐ सारे पेड़
पेड़ ने कभी
नहीं मारे पेड़
इंसानियत के
उदाहरण पेड़
इंसान के सहारे
एक ही नहीं
सारे के सारे पेड़
‘उलूक’ तेरी तो
तू ही जाने
किस ने तेरी सोच
में से आज
क्यों और
किसलिये
निकाले पेड़ ही पेड़ ।

चित्र साभार: imageenvision.com

बुधवार, 12 नवंबर 2014

एक सोच पैदा होती है साथ लेकर अपना ताबूत अपने साथ

जब तक ईमानदारी
के साथ सहजता से
बता ना दे कोई कुछ
इस तरह कि
चेहरे पर ना बने
कोई शिकन
और आँखे भी
चुगली ना करें
सोच किसकी
कितनी गहरी है
किसी की खुद के
डूबने के लिये है
या किसी को
डुबोने के लिये है
या पार लगाने
के लिये
बिना सोचे समझे
इस को भी
उस को भी
या किसी को भी
तूफानों में भी
बहुत प्यार से
प्यार के साथ
इस जहाँ से
उस जहाँ
ना जाने
कहाँ कहाँ
होते हुऐ
तब तक कुछ
सोचा भी
नहीं जाता है
अंधेरे बंद कमरे
सोच के
जहाँ रोशन दान
भी एक खुला
छोड़ा नहीं जाता है
और सोच की
कब्र खोदने के
सारे औजार
रखे जाते हैं
वो भी जंग लगे हुऐ
सम्भाल कर
कई साल तक
सालों साल तक
ताबूत भी कई
बंद पड़े हो
एक नहीं कई कई
खाली इंतजार में
मरने की
किसी सोच के
जो बन सके
एक लाश
बंद होने के लिये
इन खाली ताबूतों में
कितनी गजब
की बात है
आदमी के मरने
के बाद ताबूत
का इंतजाम
करना पड़ता है
मरी हुई सोच
ताबूत के
साथ साथ
जन्म लेना
शुरु कर देती है ।

चित्र साभार: http://pixgood.com

बंदर ने किया जो भी किया अच्छा किया दिमाग कहीं भी नहीं लगाया

कल परसों
का कूड़े दान
खाली नहीं
हो पाया

बंदरों ने
उत्पात मचा
मचा कर
दूरभाष का
तार ही
काट खाया

बहुत कुछ
पकाने का
ताजा सामान
एक ही दिन में
बासी हो आया

वैसे भी
यहाँ की इस
अजब गजब
दुनियाँ में
कहाँ पता
चलता है

कौन क्यूँ गया
यहाँ आकर
और
कौन क्यूँ कर
आँखिर यहाँ से
चले जाने के बाद
भी लौट लौट कर
फिर फिर यहाँ आया

बंदरों का देखिये
कितना अच्छा है
जहाँ मन किया
वहाँ से कूद लिये

जहाँ मन नहीं हुआ
खीसें दिखा कर
आवाज निकाल
सामने वाले को
बंदर घुड़कियाँ
दे दे कर डराया

कुछ करने की
तीव्र इच्छा कहीं
किसी कोने
में ही सही

होने वालों को
कर लेने से
वैसे भी कौन
है रोक पाया

बंदरों से ही
शुरु हुआ आदमी
बनने का क्रम

कितना आदमी
बना कितना
बंदर बचा
किसी ने किसी को
इस गणित को
नहीं समझाया

‘उलूक’ रात में
अवरक्त चश्मा
लगाने की सोचता
ही रह गया

ना दिन में
देख पाया
ना ही रात में
देख पाया ।

चित्र साभार: www.picturesof.net

रविवार, 9 नवंबर 2014

हैप्पी बर्थ डे उत्तराखंड

अब एक
चौदह बरस
के बच्चे से
क्यों उम्मींदे
अभी से
लगा रहे हो

सपने बुनने
के लिये
कोई सीकें
सलाई की
जरूरत तो
होती नहीं है
इफरात से
बिना रात हुऐ
बिना नींद आये
सपने पकौड़ियों
की तरह पकाये
जा रहे हो

कुछ बालक की
भी सोचो जरा
चौदह साल में
कितने बार
पिताजी बदलते
जा रहे हो
बढ़ने क्यों
नहीं देते हो
पढ़ने क्यों
नहीं देते हो
एक नन्हें बालक
को आदमी
क्यों नहीं कुछ
जिम्मेदार जैसा
होने देते हो

सारे बंजर
पहाड़ों के
खुरदुरे सपने
उसके लिये
अभी से
बिछा रहे हो
माना कि
चौदहवाँ
जन्मदिन है
मनाना
भी चाहिये
कुछ केक सेक
काट कर
जनता में
क्यों नहीं
बटवा रहे हो

अच्छे दिन
आयेंगे के
सपने देख
दिये तुमने
जन्म लेते
ही बच्चे के
इस बात का
कसूरवार
कितनो को
ठहरा रहे हो

घर छोड़
छा‌‌ड़ कर
पलायन करने
के लिये किसी
ने नहीं
कहा तुमसे
अपनी मर्जी से
भाग रहे हो
नाम बेचारी
सरकारों का
लगा रहे हो

समुद्र मंथन में
निकली थी सुरा
किस जमाने में
पहुँचा भी दी
जा रही है
दुर्गम से दुर्गम
स्थानों में
आभार जताने
के बजाये
सुगम दुर्गम के
बेसुरे गाने
गाये जा रहे हो

अभी अभी तो
पर्दा उठा है
नाटक का
मंचन होने से
पहले ही बिना
देखे सुने
भाग जा
रहे हो

मान लो
एक छोटा
सा राज्य है
आपका
और हमारा
ये भाग्य है
खुश होना
चाहिये
आज के दिन
कम से कम
रोना धोना
छोड़ कर
जय हो
उत्तराखंड
देवों की भूमि
की जय हो
के नारे
हम जैसे
यहाँ बसे
सारे असुरों
के साथ
मिल कर
क्यों नहीं
लगा रहे हो ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शनिवार, 8 नवंबर 2014

होता ही है एक बच्चे की खींची हुई लकीरें कागज पर ढेर सारी एक दूसरे से उलझ ही जाती हैं

शायद किसी दिन
कुछ लिखने के 
काबिल हो जाऊँ 
और पा लूँ एक 
अदद पाठक भी 
ऐसा पाठक जो 
पढ़े मेरे लिखे हुऐ को 
बहुत ध्यान से 
और समझा भी दे 
मुझे ही भावार्थ 
मेरे लिखे हुऐ का 
लिखने की चाह 
होना काफी नहीं होता 
बहुत ज्यादा और 
कुछ भी लिख देना 
कागज भरना 
कलम घिस देना 
ऐसे में कई बार 
आँखों के सामने 
आ जाता है कभी 
एक बच्चा जो 
बहुत शौक से 
बहुत सारी लाईने 
बनाता चला जाता है 
कागज ही नहीं 
दीवार पर भी 
जमीन पर और 
हर उस जगह पर 
जहाँ जहाँ तक 
उसकी और उसकी 
कलम की नोक 
की पहुँच होती है 
उसके पास बस
कलम होती है
कलम पर बहुत
मजबूत पकड़ होती है
बस उसकी सोच में
शब्द ही नहीं होते हैं
जो उसने उस समय
तक सीखे ही
नहीं होते हैं
इसी तरह किसी
खुशमिजाज दिन की
उदास होने जा रही
शाम जब शब्द
ढूँढना शुरु होती है
और माँगती है
किसी आशा से
मुझ से कुछ
उसके लिये भी
कह देने के लिये
दो चार शब्द
जो समझा सकें
मेरे लिखे हुऐ में
उसको उसकी उदासी
और उस समय मैं
एक छोटा सा बच्चा
शुरु कर देता हूँ
आकाश में
लकीरें खीँचना
उस समय
महसूस होता है
काश मैं भी
एक लेखक होता
और उदास शाम
मेरी पाठक
क्या पता किसी दिन
कोई लकीर कुछ कह दे
किसी से कुछ इतना
जिसे बताया जा सके
कि कुछ लिखा है ।

चित्र साभार: www.lifespirals.com.au

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

आज की ट्रेन में ‘उलूक’ कुछ ज्यादा डिब्बे लगा रहा है वैसे भी गरीब रथ में कौन आना चाह रहा है

पुरानी से लेकर नई
किताबों के कमरे में
उन के ऊपर जमी
धूल में कुछ फूल
बनाने का मन हुआ
कुछ फूल कुछ पत्तियाँ
कुछ कलियाँ कुछ काँटे
क्या बनाऊँ क्या नहीं
किस से पूछा जाये
कौन बताये कौन छाँटे
कुछ ऐसा ही चल रहा था
खाली दिमाग में कि
धूल उड़ी आँख में घुसी
नाक में घुसी आँख बंद हुई
फिर छींके आना शुरु हुई
छींके बंद होने का
नाम नहीं ले रही थी
किताबें जैसे देख
देख कर यही सब
दबी जुबान से
हँस रही थी
जैसे कह रही हों
बेवकूफ
अभी तक कागज के
मोह में पड़ा हुआ है
लिखा हुआ होने से
क्या होता है
जब से लिखा गया था
तब से अब तक
वैसे का वैसा ही
यहीं एक जगह पर
अड़ा हुआ है
दुनियाँ बदल रही है
किताबों के शीर्षक
सारे के सारे
काम में लाये जा रहे हैं
इधर उधर जहाँ भी
जरूरत पड़ रही है
चिपकाये जा रहे हैं
साहित्य किसी का भी हो
किसी के काम का
नहीं रह गया है
जिसने लिखा है कहा है
उसके नाम को बस
कह देने से ही सब
कुछ हो जा रहा है
जो कहा जा रहा है
आशा की जा रही है
आप की समझ में
अच्छी तरह से
आ जा रहा है
नहीं आ रहा है
कोई बात नहीं
उदाहरण भी यहीं
और अभी का अभी
दिया जा रहा है
जैसे गांंधी पटेल
भगत सिंह
विवेकानंद या
कोई और भी
पुराना आदमी
उसने क्या कहा
कहने की जरूरत
अब नहीं है
उसकी फोटो
दिखा कर
मूर्ति बनाकर
काम शुरु
हो जा रहा है
वही जैसा
हमेशा से
पार्वती पुत्र
गणेश जी
के साथ किया
जा रहा है
सुना है सफाई
कर्मचारियों को
अब कम्प्यूटर
सिखाया
जा रहा है
झाड़ू देने
का काम तो
प्रधानमंत्री से
लेकर अस्पताल
के संत्री को तक
कहीं ना कहीं करना
बहुत जरूरी हो गया है
अखबार से लेकर
टी वी से लेकर
रेडियो सेडियो में
सुबह शाम
के भजनों के
साथ आ रहा है
‘उलूक’
तेरी मति भी
सटक गई है
नहीं होने के
बावजूद भी
पता नहीं
अच्छे खासे
चल रहे देश
के काम में
तू रोज रोज
कुछ ना कुछ
उटपटाँग सा
अपने जैसा
चावल के
कीड़ों की तरह
बीन ला रहा है
किताबों को
रद्दी में बेच
क्यों नहीं देता
सोना नहीं है
जो सोच रहा है
पुरानी होने पर कोई
करोड़पति होने इन्ही
सब से जा रहा है
अब जो जहाँ हो रहा है
होता रहेगा
पुरानी किताबों की जगह
कुछ नई तरह की बातों
का जमाना आ रहा है
कुछ दिन चुपचाप
रहने वाले के और
कुछ दिन शोर
मचाने वाले के
बारी बारी से अब
आया करेंगे
एक झाडू‌ बेचने वाला
सबको बहुत प्यार से
बता रहा है
आज ऐसा
क्यों लिखा तूने
यहाँ पर पूछना
नहीं है मुझसे
क्योंकि मेरी
समझ में भी
कुछ नहीं आ रहा है
और ये भी पता है
इस सब को समझने
को कोई भी नासमझ
यहाँ नहीं आ रहा है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

अभी ये दिख रहा है आगे करो इंतजार क्या और नजर आता है

हमाम
के चित्र 

बाहर
ही बाहर
तक दिखाना
तो समझ
में आता है

पता नहीं
कैमरे वाला
क्यों
किसी दिन
अंदर तक
पहुँच जाता है

कब कौन
सी बात को
कितना
काँट छाँट
कर दिखाता है

सामने बैठे
ईडियट
बाक्स के

ईडियट
‘उलूक’ को
कहाँ कुछ
समझ में
आता है

बहुत बार
बहुत से
झाडुओं
की कहानी

झाडू‌
लगाने वालों
के मुँह से
सुन चुका
होना ही
काफी
नहीं होता है

गजब की
बात होती है
जब झाड़ू
लगाने वाला
झाड़ू लगाने
से पहले
खुद ही कूड़ा
फैलाता है

बहुत
अच्छी तरह
से आती है
कुछ बाते
कभी कभी
समझ में
बेवकूफों
को भी

पर क्या
किया जाये

कुछ
बेवकूफों के
कहने
कहाने पर

बेवकूफ
कह रहा है
क्यों सुनते हो

बात में
दम नजर
नहीं आता है
जैसा ही
कुछ कुछ
कह दिया
जाता है

और
कुछ लोग
कुछ भी नहीं
समझते हैं
या समझना
ही नहीं
चाहते हैं

भेड़ के
रेहड़ के
भेड़ हो
लेते हैं

पता
होता है
उनको
बहुत ही
अच्छी
तरह से

भीड़ की
भगदड़
में मरने
में भी
मजा
आता है

कोई माने
या ना माने
बहुत
बोलने से
कुछ
नहीं भी
होता है

फिर भी
बोलते बोलते

कलाकारी से
एक कलाकार

बहुत सफाई से
मुद्दे चोरों के भी

चुरा चुरा कर
चोरों को ही
बेच जाता है ।

चित्र साभार: imageenvision.com

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

आदमी आदमी का हो सके या ना हो सके एक गधा गधे का नजदीकी जरूर हो जाता है



“अंशुमाली रस्तोगी जी” का
आज 
दैनिक हिन्दुस्तान में छपा लेख 

“इतना सधा हूँ कि सचमुच गधा हूँ” 
पढ़ने के बाद । 

अकेले नहीं
होते हैं आप


महसूस 
करते हैं
और कुछ
नहीं कहते हैं

रिश्तेदारियाँ
घर में ही हों
जरूरी 
नहीं होता है

आपका 
हमशक्ल
हमख्याल 
कहीं और
भी होता है

आपका
बहुत
नजदीकी
रिश्तेदार
भी होता है

बस
आपको ही
पता नहीं
होता है

एक नहीं
कई बार

बहुत
सी बात

यूँ ही
कहने से
रह जाती हैं

सोच की
अंधेरी
कोठरी में

जैसे कहीं
खो जाती हैं

सुनने
समझने
वाला

कोई
कहीं नहीं
होता है

कहने
वाला कहे
भी किससे

कितना
अकेला
अकेला

कभी कभी
एक अकेला
होता है

और
ऐसे में
कभी

अंजाने में
कहीं से

किसी की
एक चिट्ठी
आ जाती है

जिसमें
लिखी
हुई बातें

दिल को
गदगद
कर जाती हैं

कहीं पर
कोई और
भी है

अपना जैसा
अपना
अपना सा

सुन कर
आखों में
कुछ नमी
छा जाती है

‘अंशुमाली’
कहता है

कोई उसे
गधा कहे तो

अब
सहजता
से लेता है

बहुत दिनों
के बाद
गधे की याद

‘उलूक’
को भी
आ जाती है

गधा
सच में
महान है

ये बात
एक बार
फिर से
समझाती है

खुद के
गधे से
होने से

कोई
अकेला नहीं
हो जाता है

और
भी कई
होते हैं गधे

इधर
उधर भी
कई कई
जगहों पर

सुनकर ही
दिल खुश
हो जाता है

बहुतों
के बीच

एक गधा
यहाँ देखा
जाता है

इसका
मतलब
ये नहीं
होता है

कि
दूसरा गधा
दूसरी जगह
कहीं नहीं
पाया जाता है ।

चित्र साभार: www.gograph.com

सोमवार, 3 नवंबर 2014

आज आपके पढ़ने के लिये नहीं लिखा है कुछ भी नहीं है पहले ही बता दिया है

एक छोटी सी बात
छोटी सी कहानी
छोटी सी कविता
छोटी सी गजल

या और कुछ
बहुत छोटा सा

बहुत से लोगों को
लिखना सुनाना
बताना या फिर
दिखाना ही
कह दिया जाये
बहुत ही अच्छी
तरह से आता है

उस छोटे से में ही
पता नहीं कैसे
बहुत कुछ
बहुत ज्यादा घुसाना
बहुत ज्यादा घुमाना
भी साथ साथ
हो पाता है

पर तेरी बीमारी
लाईलाज हो जाती है
जब तू इधर उधर का
यही सब पढ़ने
के लिये चला जाता है

खुद ही देखा कर
खुद ही सोचा कर
खुद ही समझा कर

जब जब तू
खुद लिखता है
और खुद का लिखा
खुद पढ़ता है
तब तक कुछ
नहीं होता है

सब कुछ तुझे
बिना किसी
से कुछ पूछे

बहुत अच्छी तरह

खुद ही समझ में
आ जाता है

और जब भी
किसी दिन तू
किसी दूसरे का
लिखा पढ़ने के लिये
दूसरी जगह
चला जाता है

भटक जाता है
तेरा लिखना
इधर उधर
हो जाता है

तू क्या लिख देता है
तेरी समझ में
खुद नहीं आता है

तो सीखता क्यों नहीं
‘उलूक’

चुपचाप बैठ के
लिख देना कुछ
खुद ही खुद के लिये

और देना नहीं
खबर किसी को भी
लिख देने की
कुछ कहीं भी

और खुद ही
समझ लेना अपने
लिखे को

और फिर
कुछ और लिख देना
बिना भटके बिना सोचे

छोटा लिखने वाले
कितना छोटा भी
लिखते रहें

तुझे खींचते रहना है
जहाँ तक खींच सके
कुत्ते की पूँछ को

तुझे पता ही है
उसे कभी भी
सीधा नहीं होना है

उसके सीधे होने से
तुझे करना भी क्या है
तुझे तो अपना लिखा
अपने आप पढ़ कर
अपने आप
समझ लेना है

तो लगा रह खींचने में
कोई बुराई नहीं है
खींचता रह पूँछ को
और छोड़ना
भी मत कभी

फिर घूम कर
गोल हो जायेगी
तो सीधी नहीं
हो पायेगी ।

चित्र साभार: barkbusterssouthflorida.blogspot.in

रविवार, 2 नवंबर 2014

रात में अपना अखबार छाप सुबह उठ और खुद ही ले बाँच

बहुत अच्छा है
तुझे भी पता है
तू कितना सच्चा है
अपने घर पर कर
जो कुछ भी
करना चाहता है
कर सकता है
अखबार छाप
रात को निकाल
सुबह सवेरे पढ़ डाल
रेडियो स्टेशन बना
खबर नौ बजे सुबह
और नौ बजे
रात को भी सुना
टी वी भी दिखा
सकता है
अपनी खबर को
अपने हिसाब से
काली सफेद या
ईस्टमैन कलर
में दिखा सकता है
बाहर तो सब
सरकार का है
उसके काम हैं
बाकी बचा
सब कुछ
उसके रेडियो
उसके टी वी
उसके और उसी का
अखबार उसी के
हिसाब से ही
बता सकता है
सरकार के आदमी
जगह जगह पर
लगे हुऐ हैं
सब के पास
छोटे बड़े कई तरह
के बिल्ले इफरात
में पड़े हुऐ हैं
किसी की पैंट
किसी की कमीज
पर सिले हुऐं है
थोड़े बहुत
बहुत ज्यादा बड़े
की कैटेगरी में आते हैं
उनके माथे पर
लिखा होता है
उनकी ही तरह के
बाकी लोग बहुत
दूर से भी बिना
दूरबीन के भी
पढ़ ले जाते हैं
ताली बजाने वालों
को ताली बजानी
आती है
ऊपर की मंजिल
खाली होने के
बावजूद छोटी सी
बात कहीं से भी
अंदर नहीं घुस पाती है
ताली बजाने से
काम निकल जाता है
सुबह की खबर में
क्या आता है और
क्या बताया जाता है
ताली बजाने के बाद
की बातों से किसी
को भी इस सब से
मतलब नहीं रह जाता है
‘उलूक’ अभी भी
सीख ले अपनी खबर
अपना अखबार
अपना समाचार
ही अपना हो पाता है
बाकी सब माया मोह है
फालतू में क्यों
हर खबर में तू
अपनी टाँग अढ़ाता है ।

चित्र साभार: clipartcana.com

शनिवार, 1 नवंबर 2014

अपनी मूर्खता पर भी होता है फख्र कभी जब कहीं कुछ इस तरह का लिखा हुआ मिलता है



बहुत अच्छा लगता है
कुछ सुकून सा मिलता है 
वैचारिक रूप से
मूर्ख 
और दिवालिया
किसी का जब किसी के लिये
कहीं पर प्रयोग किया हुआ दिखता है 

कुछ बातें कहीं से शुरु होती हैं
किसी बात को लेकर
और फिर
बातों बातों में ही बात का अपहरण
कर ले जाती हैं

ये एक बहुत बड़ी 
कलाकारी होती है
सबकी समझ में नहीं आती है
और जो समझ लेता है
खुद अपनी ही सोच के जाल में फंसता है

आज के दिन
अपने ही आसपास टटोल कर तो देखिये
फटी हुई जेब की तरह
ज्यादातर का दिमाग इसी तरह से चलता है

सारी सोच 
फटे छेदों से निकल कर गिर चुकी होती है
चलते चलते
और जो निकलता है कुछ
वो कुछ भी नहीं से ही निकलता है

पता नहीं
ये कोई 
पुरानी खानदानी
बीमारी के लक्षण होते हैं
या किसी जमाने में आते पहुँचते
हर रास्ता इसी तरह संकरा
और झाड़ झंकार से भरा भरा सा हो निकलता है

आदत हो जाती है 
आने जाने वाले को
कोई कांटा सिर पर तो कोई पैर के नीचे से
अपने अपने हिस्से का माँस नोच कर निकलता है

खून निकलने की
परवाह किसी को भी नहीं होती है
हर किसी को किसी और का खून
निकलता देख कर बहुत और बहुत ही चैन मिलता है

कहना किसी को 
कुछ नहीं होता है
हर मूर्ख के विचार में
दिवालियापन होता ही है जो
इफरात से झलकता है
फ़ूलता फ़लता है 

‘उलूक’
वैचारिक 
रूप से मूर्ख
और
वैचारिक रूप से दिवालिया
हो चुका 
तू ही अकेला

शायद अपनी सोच की 
इस तारीफ को
लिखा हुआ कहीं पर
पढ़ कर खुश होता हुआ
सीटी बजाता दूसरी ओर को कहीं
दौड़ निकलता है ।

चित्र साभार: imgarcade.com