उलूक टाइम्स: केदारनाथ
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रविवार, 26 अप्रैल 2015

जलजलों से पनपते कारोबार

 
मिट्टी और पत्थर के व्यापार का
फल फूल रहा है कारोबार

रोटी कपड़े और मकान की ही बात
करना बस अब हो गया है बेकार

अपनी ही कब्र खुदवा रहा है
किसी आदमी से ही आदमी

जमा कर मिट्टी और पत्थर
अपने ही आसपास
बना कर कच्ची और ऊँची एक मीनार

आदमी सच में हो गया है
बहुत ज्यादा ही होशियार

हे तिनेत्र धारी शिव
तेरे मन में क्या है तू ही जानता है
खेल का मैदान जैसा ही है तेरे लिये ये संसार

पहले केदारनाथ अब पशुपतिनाथ
तूने किया या नहीं किसे पता है
और कौन जाने कौन समझे प्रकृति की मार

मंद बुद्धि करे कोशिश समझने की कुछ

होता है अनिष्ट किस का और क्यों
कब और कहाँ किस प्रकार

दिखती है ‘उलूक’ को अपने चारों तरफ
बहुत से सफेदपोशों की
जायज दिखा कर जी ओ पढ़ा कर
की जा रही लूटमार

मरते नहीं कोई कहीं इस तरह
मर रहे हैं जलजले में तेरे इंसान
एक नहीं बहुत से ईमानदार

शुरु हो चुका है खेल आपदा प्रबंधन का
सहायता के कोष के खुल चुके हैं
जगह जगह द्वार

हे शिव हे त्रिनेत्र धारी
तू ही समझ सकता है
तेरे अपने खेलों के नियम
विकास और विनाश की परिभाषाऐं
मिट्टी और पत्थर के लुटेरों पर बरसता तेरा प्यार
उनका ऊँचाइयों को छूता कारोबार
जलजले से पनपते लोग फलते फूलते हर बार ।

चित्र साभार: www.clipartbest.co

बुधवार, 19 जून 2013

बड़ी आपदा लम्बी कहानी होना नहीं कुछ है फिर भी सुनानी


ऊपर वाला मुझे मेरे कर्मो का
बस एक आईना दिखा रहा है

किसी को पश्चिमी विक्षोभ
किसी को मानसून का बिगड़ा रुप
इस सब टूट फूट में नजर आ रहा है

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग को मीडिया
उजड़ गया जैसा दिखा रहा है

देवभूमि का देवता अपनी करतूतों को
अब क्यों नहीं झेल पा रहा है

इतना पानी अपने जीवन में मैने नहीं देखा
सुंदर लाल बहुगुणा का एक वक्तव्य अखबार में आ रहा है

इतिहास में ऎसा नहीं हुआ हो सकता है
भूगोल किसने बिगाड़ा
इस बात पर कोई भी प्रकाश नहीं डाल पा रहा है

ये कौन देख रहा है
भक्त जाया करते थे जहाँ किसी जमाने में
पूजा के थाल लेकर

टूरिस्ट होटल बुक करा रहा है
नान वेज आसानी से मिलता है आस पास
पता है उसे
बोतल भी साथ में ले जा रहा है

शातिराना अंदाज में इधर उधर जो किया जा रहा है
उसे कोई कहाँ देख पा रहा है

नियम कागज में लिखा जा रहा है
काम घर में किया ही जा रहा है
पैसा बैंक में नहीं रखता है कोई
एक के घर के बोरे से दूसरे के घर के थैले में जा रहा है

स्कूल में बच्चा पर्यावरण पर चित्र बना रहा है

क्या क्या लिखूँ समझ में नहीं आ पा रहा है

सोलह मुट्ठी जमीन को घेरे जा रहा है
एक मुट्ठी की खरीद कागज बता रहा है

देवदार का पेड़ है
सौ साल से खड़ा बहुत ही बड़ा
कागज में नजर नहीं कहीं आ रहा है

मकान चारों तरफ उसके बना जा रहा है
ढकते ही दिखना बंद हुआ जैसे ही
उसकी जड़ में कीलें घुसा कर सुखाया जा रहा है

कुछ ही दिनों में खिड़की दरवाजों के रुप में
मकान में लगा हुआ भी नजर आ रहा है

वन विभाग का अफसर रोज
अपनी सरकारी गाड़ी लेकर उसी रास्ते से जा रहा है
काला चश्मा पहनता है कुछ भी नहीं देख पा रहा है

मकान एक करोड़ का बनाया जा रहा है
पानी प्लास्टिक के नलों से सड़कों तक पहुँचाया जा रहा है
सरकार की आँख कान में शास्त्रीय संगीत बजाया जा रहा है

मुख्यमंत्री आपदा से आहत हुआ नजर तो आ रहा है
हैलीकाप्टर से चक्कर पर चक्कर लगा रहा है
केन्द्र से मिलने वाली एक हजार करोड़ की
आपदा सहायता के हिसाब लगाने में
सब कुछ भूल सा जा रहा है ।

चित्र साभार: http://throughpicture.blogspot.com/