उलूक टाइम्स: प्लोट
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रविवार, 10 अगस्त 2014

कभी उनकी तरह उनकी आवाज में कुछ क्यों नहीं गाते हो



गनीमत है 
कवि लेखक कथाकार गीतकार 
या 
इसी तरह का कुछ हो जाने की सोच 
भूल से भी पैदा नहीं हुई कभी 

मजबूत लोग होते हैं 
लिखते हैं लिखते हैं लिखते चले जाते हैं 
कविता हो कहानी हो नाटक हो या कुछ और 
ऐसे वैसे लिखना शुरु नहीं हो जाते हैं 

एक नहीं कई कोण से शुरु करते हैं 
कान के पीछे से कई बार 
लेखनी निकाल कर सामने ले आते हैं 

कई बार फिर से कान में वापस रख कर 
उसी जगह से सोचना शुरु हो जाते हैं 
जहाँ से कुछ दिन पहले हो कर 
दो चार बार कम से कम पक्का कर आते हैं 

लिखने लिखाने के लिये
आँगन होना है दरवाजा होना है खिड़की होनी है 
या बस खाली पीली किसी एक सूखे पेड़ पर यूँ ही पूरी 
नजर गड़ा कर वापस आ जाते हैं 

एक नये मकान बनाने के तरीके होते हैं कई सारे 
बिना प्लोट के ऐसे ही तो नहीं बनाये जाते हैं 

बड़े बड़े बहुत बड़े वाले जो होते हैं 
पोस्टर पहले से छपवाते हैं 
शीर्षक आ जाता है बाजार में 
कई साल पहले से बिकने को 

कोई नहीं पूछता बाद में 
मुख्य अंश लिखना क्यों भूल जाते हैं

सब तेरी तरह के नहीं होते ‘उलूक’ 
तुम तो हमेशा ही बिना सोचे समझे 
कुछ भी लिखना शुरु हो जाते हो 

पके पकाये किसी और रसोईये की रसोई का भात 
ला ला कर फैलाते हो 

विज्ञापन के बिना छपने वाले 
एक श्रेष्ठ लेखकों के लेखों से भरा हुआ अखबार बन कर 

रोज छपने के बाद 
कूड़े दान में बिना पढ़े पढ़ाये पहुँचा दिये जाते हो 

बहुत चिकने घड़े हो यार 
इतना सब होने के बाद भी 
गुरु फिर से शुरु हो जाते हो ।