उलूक टाइम्स: बेसुरा
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बुधवार, 12 सितंबर 2018

'उलूक’ तख़ल्लुस है



साहित्यकार कथाकार कवि मित्र 
फरमाते हैं 

भाई 
क्या लिखते हो 
क्या कहना चाहते हो 
समझ में ही नहीं आता है 

कई बार तो 
पूरा का पूरा 
सर के ऊपर से 
हवा सा निकल जाता है 

और 
दूसरी बला 
ये ‘उलूक’ लगती है 
बहुत बार नजर आता है 

है क्या 
ये ही पता नहीं चल पाता है 

हजूर 

साहित्यकार अगर 
बकवास समझना शुरु हो जायेगा 
तो उसके पास फिर क्या कुछ रह जायेगा 

‘उलूक’ तखल्लुस है 
कई बार बताया गया है 
नजरे इनायत होंगी आपकी 
तो समझ में आपके जरूर आ जायेगा 

इस ‘उलूक’ के भी 
बहुत कुछ समझ में नहीं आता है 

किताब में 
कुछ लिखता है लिखने वाला 
पढ़ाने वही कुछ और 
और समझाने 
कुछ और ही चला आता है 

इस 
उल्लू के पट्ठे के दिमाग में 
गोबर भी नहीं है लगता है 

हवा में 
लिखा लिखाया 
कहाँ कभी टिक पाता है 

देखता है 
सामने सामने से होता हुआ 
कुछ ऊटपटाँग सा 

अखबार में 
उस कुछ को ही 
कोई
आसपास 
का सम्मानित
ही 
भुनाता हुआ नजर आता है 

ऐसा बहुत कुछ 
जो समझ में नहीं आता है 

उसे ही 
इस सफेद श्यामपट पर 
कुछ अपनी 
उलझी हुई लकीर जैसा बना कर 
रख कर चला जाता है 

हजूर

आपका 
कोई दोष नहीं है 

सामने से 
फैला गया हो 
कोई दूध या दही 

किसी को 
शुभ संदेश 
और किसी को 
अपशकुन नजर आता है 

आँखें 
सबकी एक सी 
देखना सबका एक सा 

बस
यही 
अन्तर होता है 

कौन
क्या चीज 
क्यों और किस तरह से देखना चाहता है 

‘उलूक’ ने 
लिखना है लिखता रहेगा 
जिसे करना है करता रहेगा 

इस देश में 
किसी के बाप का कुछ नहीं जाता है 

होनी है जो होती है 
उसे अपने अपने पैमाने से नाप लिया जाता है 

जो जिसे 
समझना होता है 
वो कहीं नहीं भी लिखा हो 
तब भी समझ में आ जाता है

'उलूक’
तख़ल्लुस  है 

कवि नहीं है 
कविता लिखने नहीं आता है 

जो उसे 
समझ में नहीं आता है 
बस उसे
बेसुरा गाना शुरु हो जाता है 
। 

चित्र साभार: www.deviantart.com