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बुधवार, 3 जनवरी 2024

रोज पढ़े फिर याद करे ‘उलूक’ उल्लू का अखबार


उल्लू के अखबार में छपे सफ़ेद ही समाचार
काले पढ़ नहीं पाते कुछ गोरे डालें बस अचार

काला काला देखता सफ़ेद देखता एक के चार
इन्द्रधनुष छुट्टी ले बैठा बंद कर पानी की बौछार

मतलब लिखता बेमतलब का रोज बजाता पौने चार
किसने पढ़ना किसने गुनना पत्ते खेल रहे सरकार

जोकर के हाथों में सब कुछ इक्के गुलाम बादशाह बेकार
याद करें कुछ बाराहखडी कुछ करें दिन फिरने का इंतज़ार

फिर से फिर फिर आयेंगे अच्छे दिन बारम्बार हर बार
खींच तान कर नींद निकालो चिन्ता चिता मान कर यार

लिख कर मिटा मिटा कर लिख रेत रेत सपने हजार
रोज पढ़े फिर याद करे ‘उलूक’ उल्लू का अखबार

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

मंगलवार, 2 जनवरी 2024

ऐसे ही २०२४ नहीं है आया कल्कि आयेंगे सुना है अभी तो मंदिर ही है आया



लिखना बंद हुआ ‘उलूक’ कुछ दिन
मगर क्यों हुआ समझ में ही नहीं आया
पढ़ना बंद किया लोगों ने
क्यों कोई आस पास लिखे के नजर नहीं आया

सोचेंगे ही नहीं अब पढ़ने वालों के बारे में
एक नया साल है अब आया
लिखेंगे मनमौजी कुछ भी कहीं भी
लिखने वाला आँखिर क्यों कर शरमाया

लिख रहे है ‘रविकर’ लिख रहे हैं ‘विश्वमोहन’
‘रूपचन्द्र’ का लिखना कौन रोक पाया
विद्वानों की पंक्ति इतनी सी भी नहीं है
एक से एक हैं यहाँ ये आया वो भी आया

दूरदर्शन अखबार समाचार सब ही आभासी हैं 
सब जानते हैं लोग किस ने है कब्जाया
चिट्ठा ज़िंदा है अभी कुछ
कुछ कुछ हैं चिट्ठाकार
लिखते हैं निर्भीक कुछ नहीं कमाया

कुछ लिखते अपनी कुछ लिखते हैं पतंग
कुछ ने दिनचर्या लिखने का मन है बनाया
‘उलूक’ लिखता है भडास हमेशा
बकवास को पढ़ने कौन इच्छा से सामने है आया

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/pin/607493437217436922/

रविवार, 31 दिसंबर 2023

‘उलूक’ बदतमीज है गांधी गांधी करता है मौक़ा लगे उसे एक लात कभी मार कर आयें



घास ना भी खाएं कोई ऐसी बात नहीं है
बस जुगाली जरूर करते चले जाएं
दांत खट्टे कर भी दिए हों किसी ने
जरा सा भी ना घबराएं थोड़ी हवा चबाएं

दीमकों ने खोखली कर भी दी हो
चारों तरफ की सारी कुर्सियां
बस मुस्कुराएँ
पालथी मार कर बैठने की जमीन पर करें कोशिश
बस एक दरी घर से ले आयें

हो रहा है हो रहा है बहुत कुछ हो रहा है ही बस कहें
देखें सुने और केवल यही फैलाएं
बातें बनाना सीखने सिखाने के स्कूल कालेज खोलें
खुद भी इनाम लें मशहूर हो जाएँ

करें कुछ भी घर में अपने गली में बस शेर हो जाएँ
शेर के ऊपर भौंके उसे कुत्ता बनाएं
सर्वश्रेष्ठ होने का ढिंढोरा खुद भी पीटे
जेबें भर कर पिटे पिटवाये भी इस काम में लगाएं

ज़माना कम से कम कपड़ों का है रुमाल पहनें
पर घर घर एक हम्माम जरूर बनवाएं
शेर और शायरी करते रहें मुहावरे याद करें
और लोगों को बुला कर कहीं मंच से सुनाएँ

दूध से धुले लोग हैं सम्मानित हैं
इज्जत उतारें उतारने दें
परेशान ना होवें खिलखिलाएं
‘उलूक’ बदतमीज है
गांधी गांधी करता है
मौक़ा लगे उसे एक लात
कभी मार कर आयें |

चित्र साभार https://www.dreamstime.com/

बुधवार, 7 जुलाई 2021

‘उलूक’ लिखता है बहुत कुछ दिखता है खुद की चार सौ बीसी कहाँ कब लिख पाता है है कहीं आईना जो बताता है

 



एक ने
दो के कान मे
फुसफुसाया

लिखे लिखाये को
गौर से देख
लिखे लिखाये से 
लिखने वाले के बारे में
 सब कुछ पता हो जाता है

दो ने
किसी एक
लिखने लिखाने वाले को
खटखटाया

जी मैंने कुछ लिखा है
कुछ आप ने मेरे बारे में
मुझे अब तक क्यों नहीं है बताया

अजब गजब संसार है
चिट्टों और चिट्ठाकारों का

लिखना लिखाना
चिट्ठे टिप्पणी
चर्चा
लिंक लेना लिंक देना
पसंद अपनी अपनी

अपने हिसाब से
करीने से लिखने लिखाने को
प्रमाण पत्र दे कर आभारी कर करा लेना

अब दो को
कौन समझाये
कि
लिखने वाला
कभी अपनी कहानी
किसी को नहीं बताता है

कहीं से
एक आधा या पूरा घड़ा लाकर
यहाँ फोड़ जाता है

सबसे बड़ा बेवकूफ
वो है
जिसे लिखे लिखाये पर
लेखक का चेहरा नजर आता है

सच कह रहा हूँ
कब से लिख रहा हूँ
इधर का उधर का लाकर
यहाँ फैलाता हूँ

एक भी पन्ना देख कर
आप नहीं कह पायेँगे

‘उलूक’ के लिखे लिखाये से
वो चार सौ बीस
जानता है अपने बारे में
कि वो है

कोई दिखा दे उसके
किसी
लिखे पन्ने पर
उसका
चार सौ बीस लिखा
हस्ताक्षर नजर अगर उसे आता है





रविवार, 27 जून 2021

बकवास-ए-उलूक एक और मील के पत्थर के पार पचास लाख से ऊपर आकर देख गये पन्ना चिट्ठा-ए-उलूक सबका दिल से आभार

 


27 जून 2021 , पृष्ठ दृष्य:
=====================
 All Time= 5000020,
=====================
Today=1850,
 Yesterday=2543,
This Month=76339,
 Last Month=71214,
Alexa Rank =170,561,
🇮🇳 India Rank =17,090
=====================

लिखते लिखते
कहाँ से कहाँ पहुँचा गया
 बकवास-ए-उलूक

पढ़ने
कौन आया कौन नहीं
पता नहीं चला
देखने वाला
आ कर देख गया
घड़ी की सूईं
कुछ आगे को जरा सा खिसका गया

एक दो तीन से होते होते
पचास लाख के पार करा गया
पढ़ने लिखने की बात
कहीं है नहीं
इतना जरूर समझा गया

कुछ तो है
देखने के लायक
पर्दा उठा कर कई बार
उठे पर्दे को गिरा गया
किसी को अंधा सूर याद आया
कोई कबीर कबीर चिल्ला गया

उलट बाँसी की बात कर के कोई
बात अपनी उल्टी सीधी करवा गया
आते रहें जाते रहें बताते रहें समझाते रहें
लिखते लिखाते बकवास ही सही
‘उलूक’ थोड़ा बहुत पढ़ लिखा गया

आभार देखने वालो आपका दिल से
पन्ना चिट्ठा-ए-उलूक
एक और मील के पत्थर से
कुछ आगे
आज आपने जो पहुँचा दिया।
---
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

हमारे खून में है गिरोह हो जाना तू अलग है बता क्या और होना चाहता है

 

कितना भी
कोशिश करें 
हम
शराफत पोतने की
दिख जाता है कहीं से भी 
फटा हुआ
किसी छेद से झाँकता हुआ हमारा नजरिया

हम
कब गिरोह हो लेते हैं
हमें
पता कहाँ चलता है

हम कहा है
उसमें हो सकता है
तुम नहीं आते होगे
बुरा मत मानियेगा

हम कहा है
हमारी ओर
धनुष मत तानियेगा

हम कहने का मतलब
मैं और मेरे जैसे कुछ लोग होते हैं
जो सफेद नहीं होते हैं
सफेद पोश होते हैं

कई दिनों तक
कुछ भी नहीं लिखना
अजीब बात होती है

बकवास
करने वाले के लिये
दिन भी रात होती है

पता कहाँ चलता है

लिखने लिखाने का नशा
कब और कहां उतर जाता है

एक पैग़ का
एक पन्ना होता होगा
दूसरा पैग
हाथ में आने से पहले
हवा के साथ ही पलट जाता है

किससे कहे कोई
लिखने लिखाने में
किस सोच में डूबे हो तुम
महीना गुजर जाता है

कुछ नहीं पर
कुछ भी नहीं
लिख पाने का 
गम होना
शुरू हो जाता है

कुछ गिनी चुनीं टिप्पणियाँ
गिनती की जाती हैं
आने जाने वालों का
हिसाब भी समझ में आता है

लिखना लिखाना
कविता कहानियाँ
शेरो शायरियोँ
से गिना जाना शुरु हो लेता है

बकवास करने वालों को
गुस्सा आना
जायज नजर आता है

किसलिये मिलाना है
कविता और
कवि की दुनियाँ को
पागलों की दुनियाँ से

हर एक आदमी
बस एक आदमी है

पागल ‘उलूक’
रात के अंधेरे में
अपनी बंद आँख से
पता नहीं क्या देखना
क्या गिनना चाहता है?

चित्र साभार: https://www.pinterest.es/

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

तेरा लिखा जरा सा भी समझ में नहीं आता है कह लेने में क्या जाता है?

 

शिकायत है कि समझ में नहीं आता है

‘उलूक’ पता नहीं क्या लिखता है क्या फैलाता है 

प्रश्न है
किसलिये पढ़ा जाता है वो सब कुछ
जो समझ में नहीं आता है 

समझ में नहीं आने तक
भी ठीक है
नहीं आता है नहीं आता है
पता नहीं फिर
कोई इतना कोई क्यों गाता है 

पढ़ने की आदत अच्छी है
कुछ अच्छा पढ़ने के लिये
किसलिये नहीं जाता है
समझ में अच्छा लिखा
बहुत ही जल्दी चला जाता है 

घर से
मतलब रखता है
गली में हो रहे शोर से ध्यान हटाता है
शहर में बहुत कुछ होता है
अखबार में उसमें से थोड़ा तो आता है 

अखबार दो रुपिये का
अब कौन खरीदता है
बात बस
खबर और समाचार के बीच की
समझाता है बताता है 
समस्या और समाधान
बेकार की बातें हैं
व्यवधान
इसी से होता चला जाता है 

पैसा बहुत जरूरी है

हर महीने की
पहली तारीख को
आ गयी है
का
एस एम एस चला आता है 

किसलिये देखना
क्या होता है अपने आसपास
अपनी ही गली में पास की ही सही
रात में भी बहुत सारे
भौंकते चले जाते हैं कुत्ते गली के
कौन अपनी नींद
खराब करना चाहता है

‘उलूक’ तेरी तरह के बेवकूफ
नहीं हैं हर जगह
कूड़े कचरे पर लिखना
कौन सा गजब हो जाता है 

हम ना देखेंगे
ना देखने देंगे किसी को
अपनी आँख से कुछ भी आसपास अपने

तेरा लिखा
जरा सा भी समझ में नहीं आता है
कह लेने में
क्या जाता है?

चित्र साभार:
 http://search.coolclips.com/m/vector/cart1864/business/avoiding-getting-hit/

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

तो बेशरम उलूक कब छोड़ेगा तू लिखना बकवास छोड़ ही दे ये नादानी है

 

अरे 
सब तो
लिख रहे हैं 
कुछ ना कुछ 
मेरे लिखे से क्या परेशानी है 

मैं तो
कब से
लिख रहा हूँ 
मुझे खुद पता नहीं है 
मेरे लिखे लिखाये में कितना पानी है 

मेरे
लिखने से
किसलिये परेशान हैं 

आपके लिये
उठाने वाले  कलम
गिन लीजियेगा हजूर

हर
डेढ़ शख्स
फिदा है आप पर 
बाकी आधा
है या नहीं भी किसलिये सोचना 
है

लिख दीजियेगा
आँकड़े की कोई बे‌ईमानी है 

मेरा लिखना
मेरा देखना
मेरी अपनी बीमारी है 

अल्लाह करे
किसी को ना फैले
ये कोरोना नहीं रूमानी है

सब
देख कर लिखते हैं
फूल खिले अपने आसपास के 
झाड़ पर
लिखने की
मेरे जैसे खड़ूस ने खुद ही ठानी है 

सब अमन चैन तो है
सुबह के अखबार क्यों नहीं देखता है 

कहाँ भुखमरी है
कहाँ गरीबी है कहाँ कोई बैचेन है 

तेरे शहर की
हर हो रही गलत बात पर
नजर डालने वाला

जरूर
 कोई चीनी है
या पाकिस्तानी  है

पता नहीं
क्या सोचता है
क्या लिखता है
पागलों के शहर का एक पागल
काँग्रेस और भाजपा तो
आनीजानी है 


शहर
पागल नहीं है
हवा पानी में
कुछ मिला कर रखा है किसी ने
ना कहना
कितनी बेईमानी 
है 

कत्ल से लेकर
आबरू लूटने की भी 
नहीं छपी
इस शहर की कई कहानी है 


कोई
कुछ नहीं
कहता है यहाँ ‘उलूक’
यही तो
एक अच्छे शहर की निशानी है 


चित्र साभार: https://nohawox.initiativeblog.com/

बुधवार, 12 अगस्त 2020

बन्द दिमाग एक जगह गुटरगूँ करते हुऐ नजर आयेंगे अपनी सोच ले तू कहाँ जायेगा

 

ऐ कबूतर 
कौओं के बीच घिरा रहता है 
काँव काँव 
फिर भी नहीं सीखता है 
बस अपनी 
गुटुर गूँ करने में लगे रहता है 

बहुत दिन 
नहीं चलने वाली है 
तेरी ये मनमानी 
कौओं के राजा ने 
पता होना चाहिये तुझे भी 
है कुछ अपने मन में करने की ठानी 

सारे कौए 
सफेद रंग में रंग दिये जायेंगे 
मोटी चौंच के कबूतर हर तरफ हर जगह 
नजर गढ़ाये नजर आयेंगे 

कबूतर के लिये 
खाली सारी जगहों पर 
कौऐ कबूतर बना कर भर दिये जायेंगे 

कबूतर कबूतर से 
चौंच लड़ाते 
गुटरगूँ गुटरगूँ करते बैठे ठाले 
अपने घौंसलों में 
पंजे लड़ाते नजर आयेंगे 

सीख 
क्यों नहीं लेता है 
थोड़ा सा कौआ हो जाना 
जमाने के साथ चलना 
एक नयी भाषा सीखना 
द्विभाषी हो विद्वानों में गिना जाना 

कबूतर हो कर भी 
कौओं के साथ नजर आयेगा 
बड़ा नहीं भी मिलेगा 
थोड़ा छोटा ही सही 
टुकड़ा कटे मुर्गे की टाँग का 
हाथ में आ पायेगा 

इज्जत बढ़ेगी अलग से 
कौओं के समाज में 
अखबार वाला भी 
तेरे लिये एक बड़ी 
फर्जी खबर छापने में 
देरी नहीं लगायेगा 

क्या फायदा वैसे भी
कबूतर बने रहने में 
उस जगह 
जहाँ किसी पीर के 
बकरी चरखा तकली का 
नाम तक 
जान बूझ कर मिटा दिया जाता हो 
हजारों करोड़ खर्च कर 
बीट करने के लिये 
एक मूरत खड़ी करके 
सरेआम खुले आसमान के नीचे 
कबूतरों को रिझाने के लिये 
रख दिया जाता हो 

समय खराब है 
नहीं कह देना 
कहीं कभी भूल कर भी 

सारे 
अच्छे समय के नशे में मदहोश 
अच्छी सोच के कबूतर हो चुके 
कौओं के द्वारा 
उसी समय नोच खाया जायेगा 

बन्द कर के दिमाग अपना 
सोचना शुरू कर दे अभी से 
खोदना किसी सूखे पेड़ का कोटर 
कहीं भी किसी वीराने में 

‘उलूक’ जल्दी ही 
कबूतरों और 
कौओं के बीच 
तकरार करवाने का 
इल्जाम मढ़ कर 
तुझे भी दो गज जमीन 
मरने के बाद की से 
मरहूम कर दिया जायेगा। 



बुधवार, 1 जुलाई 2020

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन बहुत आती है श्रद्धाँजलि बस कुछ शब्दों से दी जाती है



चिट्ठों के जंगल में उसने एक चिट्ठा बोया है 
जिस दिन से बोया है चिट्ठा वो खोया खोया है 

चिट्ठे चिट्ठी लिखते हैं कोई सोया सोया है 
चिट्ठी लेकर घूम रहा कोई रोया रोया है 

चिट्ठे ढूँढ रहे होते हैं चिट्ठी चिट्ठी चिट्ठों में छुप जाती है 
पता सही होता है गलत लिखा है बस बतलाती है 

चिट्ठों की चिट्ठी चिट्ठों तक पहुँच नहीं पाती है 
चिट्ठे बतलाते हैं चिट्ठे हैं आवाज नहीं आ पाती है 

चिट्ठों ने देखा है सबकुछ कुछ चिट्ठे गुथे हुवे से रहते हैं 
चिट्ठों की भीड़ बना चिट्ठे चिट्ठी को कहते रहते हैं 

चिट्ठा चिट्ठी है चिट्ठी चिट्ठा है बात समझ में आती है 
चिट्ठे के मालिक की चिट्ठी कैसे कहाँ कहाँ तक जाती है

नीयत और प्रवृति किसी की कहाँ बदल पाती है 
शक्ल मुखौटों की अपनी असली याद  दिला जाती है 

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन 
उलूकको बहुत आती  है बहुत आती है ।



मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

ऐरे गैरे के लिखे ऐसे वैसे को काहे कहीं भी यूँ ही उठा कर के ले जाना है अलग बात है अगर किसी को कूड़ा घर घर पर ही बनाना है

जरूरी है
घिसना
चौक
काले श्यामपट
पर

पढ़ाना
नहीं है
ना ही कुछ
लिखना है

कुछ लकीरें
खींच कर
गिनना
शुरु
कर देना है

कोई
पूछे अगर
क्या
गिन रहे हैं
शर्माना नहीं है

कह देना है
 मुँह पर
ही

लाशें

किसकी
कोई पूछे
तो
बता देना है

अपने
घर के
किसी की
नहीं है

मातम
कहीं
दिख रहा हो
तो
पूछने
जरूर जाना है

कौन
मरा है
जात
सुनना है
 और
अट्टहास करना है
खिलखिलाना है

बातें
करना है
 मन की मन
से
जरूरी है
इधर उधर
ना जाना है
 मन की
बातों से
छ्नी बातों को
रास्तों में बिछाना हैं

अपने बनाये
भगवान के
गुण गाना है

घर का
कोई नहीं मरा है
सोच कर
 तालियाँ बजाना है

‘उलूक’
उल्लू के पट्ठे
के
लिखे लिखाये
के
चक्कर में
नहीं
 पड़ना है

अपना घर
अपनों से

बस

आज
बचाना है ।
चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com/corpse-5001351.html

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

उलूक पागल है है कब नहीं माना फिर भी किसलिये पागल सिद्ध करने के लिये पागल सरदार का हर पागल अपने खोल से बाहर निकल निकल कर आ रहा है


वैसे भी

कौन
लिख पाता है
पूरा सच

कोशिश

सच की ओर
कुछ कदम
लिखने की होती है

कोशिश जारी
रहती है
जारी रहनी चाहिये

आप लिख रहे हैं
लिखते रहें

आपके लिखने
ना 

लिखने से
किसी को
कोई फर्क
नहीं पड़ता है

हाँ
ज्यादा
मुखर होने से
कुछ समय बाद

आपको महसूस
होने लगता है
सच आप पर ही
भारी पड़ रहा है

आप कौन है

होंगे कोई

आपके गले में

कोई पट्टा
अगर
नहीं दिख रहा है

पट्टे डाले हुऐ

गली के
इस कोने से
लेकर उस कोने
तक

दिखेगा

आपसे
कुत्तों की तरह
निपट रहा है

इन्सान मत ढूँढिये
अब कहीं

ढूँढिये
कोई हिंदू
कोई मुसलमान

अगर आप को
किसी भी कोने से
दिख रहा है

खुद कुछ भी
नहीं सोचना है

ध्यान से सुनें

खुद
 कुछ भी नहीं
सोचना है

सियार की तरह
आवाज करने की
कोशिश में

कुत्ते के गले से
निकलती हुई
आवाज

हुआ हुआ
की ओर
ध्यान लगा कर

कोई आसन
कोई योग
सोचना है

घर छोड़ चुके हैं
लोग

ना जाने क्यों

घर में रहकर
भी
लग रहा है

उन्हें
क्या करना है

किसलिये
देखनी  है

मोहल्ले की गली

अरे हमें तो
देश के लिये
बहुत ही आगे

कहीं और
निकलना है

क्या करे

पागल ‘उलूक’

उस के लिखते ही

हर गली का पागल

उसे पागल
सिद्ध
करने के लिये

अपने पागल
सरदार की
टोपी 


हाथ में
लहराता हुआ 

सा
निकल रहा है।

चित्र साभार:
https://graphicriver.net/item/psycho-owl-cartoon/11613131

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

मत खोज लिखे से लिखने वाले का पता


कोई
नहीं लिखता है

अपना पता
अपने लिखे पर

शब्द
बहुत होते हैं
सबके पास

अलग बात है

शब्दों
की गिनती
नदी नालों में
नहीं होती है

लिखना
कोई
युद्ध नहीं होता है

ना ही
कोई
योजना परियोजना

लिखना
लिखाना
पढ़ना पढा‌ना

लिखा
लाकर
समेटा
एक बड़े से
परदे पर
ला ला कर
सजाना

लिखना
प्रतियोगिता
भी नहीं होता है

लिखे पर
मान सम्मान
ईनाम
की
बात करने से
लिखने
का
आत्म सम्मान
ऊँचा
नहीं होता है

लिखा
लिखने वाले के
आस पास
हो रहे कुछ का
आईना
कतई
नहीं होता है

जो
लिखा होता है

उससे
होने ना होने
का
कोई सम्बंध
दूर दूर तक
नहीं होता है

सब
लिखते हैं
लिखना
सबको आता है

सबका
लिखा
सब कुछ
साफ साफ
लिखे लिखाये
की खुश्बू
दूर दूर तक
बता कर
फैलाता है

बात अलग है
अचानक
बीच में
मोमबत्तियाँ
लिखे लिखाये पर
हावी होना
शुरु हो जाती हैं

आग लिखना
कोई नयी बात
नहीं होती है

हर कोई
कुछ ना कुछ

किसी ना किसी
तरह से
जला कर

उसकी
रोशनी में
अपना चेहरा
दिखाना चाहता है

‘उलूक’
बेशरम है
उसको पता है
 आईने में
सही चेहरा
कभी
 नजर
नहीं आता है

इसलिये
वो खुद
 अपनी
बकवास लेकर

अपनी
पहचान
के साथ
मैदान पर
उतर आता है | 

चित्र साभार: http://clipart-library.com/



रविवार, 25 अगस्त 2019

कुछ भी लिख ‘उलूक’ मगर लिख रोज लिख हर समय लिख किस लिये कोई दिन बिना कुछ लिखे ही बितारा



कल का 
लिखा

क्या
बिक गया
सारा

आज
फिर से
उसी पर

किसलिये

वही कुछ
लिख लारा
दुबारा

देख

वो
लिख लारा
घड़ियाँ सारी

समय
सबको

जो 
आज
सबका
दिखारा

समझ

पीठ में
लगी चाबियाँ
अपनी
टिक टिक की

दूर कहीं

कहाँ
जा कर
छुपारा

क्यों नहीं

पूछ
कर ही
लिख लेता
किसी से 

कुछ

उसी 

के
हिसाब का

ऐसा
सोच
क्यों नहीं
पारा

सोच

नहीं
सोचा जारा
जिससे

वो
लिखना छोड़

कुछ
पढ़ने को
चला आरा

बता

समझ
में आना

किस ने
कह दिया
जरूरी है

नहीं
आरा
समझ में

तो
नहीं आरा
बतारा

और

जो
समझ भी
जारा
कुछ

कुछ
कहने में
फिर भी
अगर
हिचकिचारा

कौन सा
कुछ

अजब गजब
जो
क्या हो जारा

एक
कविता कहानी साहित्य
के
पन्नों के
थैले बनारा

दूसरा

बकवास
की
मूँगफली के
छिलके
ला ला
कर
फैलारा

तीसरा

इसकी
टोपी
उसके सिर
में
रख कर
के
आरा

सबसे बड़ा

दीवार
चढ़कर
उतरकर
बड़ी खबर
पकारा

उसके
साथ खड़ा

असली
खबर को

देश दुनियाँ
की
फैली
घास बतारा

‘उलूक’

कविता
कहानियों
के बीच

बकवास
अपनी

कई
सालों से
पकारा

सिरफिरा
समझ रा
दिमागदारों
को
पढ़ारा

निचोड़
इन
सब का
अंत में

लिख कर
ये
रख जारा

कुछ
भी लिख

रोज
कुछ
लिखना
जरूरी है

मत कहना
नहीं
बताया

कम कम
लिखने
वालों
का
चिट्ठा दर्जा

आगे
आते आते

पीछे
कहीं
रह जारा।

चित्र साभार: https://www.amazon.in/dp/159020042X?tag=5books-21

शनिवार, 25 मई 2019

खुजली कान के पीछे की और पंजा ‘उलूक’ की बेरोजगारी का


पहाड़ी
झबरीले 

कुछ काले
कुछ सफेद

कुछ
काले सफेद

कुछ मोटे कुछ भारी
कुछ लम्बे कुछ छोटे
कुत्तों के द्वारा
घेर कर ले जायी जा रही

कतारबद्ध
अनुशाशित
पालतू भेड़ों
का रेवड़

गरड़िये
की हाँक
के साथ

पथरीले
ऊबड़ खाबड़

ऊँचे नीचे
उतरते चढ़ते
छिटकते
फिर
वापस लौटते

मिमियाते
मेंमनों को
दूर से देखता

एक
आवारा जानवर

कोशिश
करता हुआ

समझने की

गुलामी
और आजादी
के बीच के अन्तर को

कोशिश करता हुआ 
समझने की

खुशी और गम
के बीच के
जश्न और
मातम को

घास के मैदानों के
फैलाव के
साथ सिमटते
पहाड़ों की
ऊँचाइयों के साथ

छोटी होती
सोच की लोच की
सीमा खत्म होते ही
ढलते सूरज के साथ

याद आते
शहर की गली के
आवारा साथियों
का झुँड

मुँह उठाये
दौड़ते
दिशाहीन
आवाजों में
मिलाते हुऐ
अपनी अपनी
आवाज

रात के
राज को
ललकारते हुऐ

और

इस
सब के बीच

जम्हाई लेता
पेड़ की ठूँठ पर
बैठा
‘उलूक’

सूँघता
महसूस
करता हुआ

तापमान

मौसम के
बदलते
मिजाज का

पंजे से
खुजलाता हुआ

यूँ ही
कान के पीछे के
अपने ही
किसी हिस्से को

बस कुछ
बेरोजगारी

दूर
कर लेने की
खातिर
जैसे।

चित्र साभार: www.kissanesheepfarm.com

रविवार, 19 मई 2019

बेवकूफ है ‘उलूक’ लूट जायज है देश और देशभक्ति करना किसने कहा है मना है

भटकता
क्यों है

लिख
तो रहा है

पगडंडियाँ
ही सही

इसमें
बुरा क्या है

रास्ते चौड़े
बन भी रहे हैं
भीड़ के
लिये माना

अकेले
चलने का भी
तो कुछ अपना
अलग मजा है

जरूरी
नहीं है
भाषा के
हिसाब से

कठिन
शब्दों में
रास्ते लिखना

रास्ते में ही
जरूरी है चलना

किस ने कहा है

सरल
शब्दों में
कठिन
लिख देना

समझ
में नहीं
आये
किसी के

ये
उसकी
अपनी
आफत है

अपनी बला है

शेर है
पता है
शेर को भी

किसलिये
फिर बताना

किसी
और को भी

जब
जर्रे जर्रे
पर शेर

लिख
दिया गया है

खुदा से
मिलने गया
है इन्सान

या
इन्सान से
मिलने को

खुदा
खुद रुका है

पहली
बार दिखा है

मन्दिर के
दरवाजे तक

गलीचा
बिछाया गया है

कितना
कुछ है
लिखने के लिये

हर तरफ
हर किसी के

अलग बात है

अब
सब कुछ
साफ साफ
लिखना मना है

एक
पैदा हो चुकी
गन्दगी के लिये

स्वच्छता
अभियान

छेड़ा
तो गया है

मगर
खुद शहीद
हो लेना

गजब
की बात है

इतनी
ऊँची उड़ान
से उतरना

फिर से
जन्म लेना है

कमल होना
खिलना कीचड़ में

ब्रह्मा जी
का आसन
बहुत सरल है

ऐसा कुछ सुना है

 बेवकूफ है ‘उलूक’

लूट जायज है

देश और
देशभक्ति करना

किसने कहा है

मना है ।

चित्र साभार: https://insta-stalker.com

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

खुले में बंद और बंद में खुली टिप्पणी करना कई सालों की चिट्ठाकारी के बाद ही आ पाता है

टिप्पणी
में

कहीं
ताला लगा
होता है

कहीं कोई

खुला
छोड़ कर भी
चला जाता है

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है

समझ में

सबके
सब आता है

दो चार
में से एक

'सियार'

जरा
ज्यादा तेज
हो जाता है

बिना
निविदा
पेश किये

ठेकेदारी ले लेना

ठीक नहीं
माना जाता है

आदमी
पिनक में

ईश्वरीय
होने की

गलतफहमी
पाल ले जाता है

अपनी
गिरह में

झाँकना
छोड़ कर

किसी
के भी
माथे पर

‘पतित’

चिप्पी
चिपकाना
चाहता है

गिरोह
बना कर
अपने जैसों के

किसी
को भी
घेर कर
लपेटना
चाहता है

इतना
उड़ना भी
ठीक नहीं

गालियाँ
नहीं देता
है कोई

का मतलब

गाली देना
नहीं आना

नहीं
हो जाता है

देश
शुरु होता है

घर से
मोहल्ले से
शहर से

छोटे छोटे
जेबकतरों से

निगाह
फेर कर

राम भजन
नहीं गाया
जाता है

करिये
किसी से
भी प्रेम

अपनी
औकात
देख कर ही

प्रेम
किया जाता है


मत बनिये
थानेदार

मत बनिये
ठेकेदार

हर कोई

दिमाग
अपने हाथ में

लेकर
नहीं आता है

थाना
न्यायालय
न्याय व्यवस्था

से ऊपर

अपने
को रखकर

तानाशाह

नहीं
बना जाता है

फटी
सोच से
झाँकता हुआ

फटा हुआ
दिमाग

बहुत
दूर से
नजर
आ जाता है

लोकतंत्र
का मतलब

गिरोह
बना कर

किसी की
उतारने की सोच

नहीं माना जाता है

इशारों में
कही बात
का मतलब

हर इशारा
करने वाला

अच्छी
तरह से
समझ जाता है

‘उलूक’
जानता है

'उल्लू का पट्ठा'
का प्रयोग

उल्लू
और
उसके
खानदान
के लिये ही
किया जाता है

और
सब जानते हैं

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है ।

चित्र साभार: https://pixy.org

मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

जिसके नाम के आगे नहीं लगाया जा सके पीछे से हटा कर कुछ उसकी जरूरत अब नहीं रह गयी है

जरा
सा भी

झूठ नहीं है

सच्ची में

सच

साफ
आईने
सा

यही है

जाति धर्म

झगड़े
फसाद
की जड़

रहा होगा
कबीर के
जमाने में

अब तो
सारी जमीन

कीटाणु
नाशक

गंगा जल से
धुल धुला कर

खुद ही
साफ
हो गयी है

नाम कभी
पहचान
नहीं हुऐ

जाति
नाम के पीछे

लगी हुयी
देखी गयी है

झगड़ा
ही खत्म

कर
गया ये तो

नाम
के आगे से
लग कर

सबकी

एक
ही पहचान

कर दी गयी है

पीछे से
धीरे धीरे

रबर से
मिटाना
शुरु कर
चुके हैं

देख लेना
बस कुछ
दिनों में

सारी
भीड़

एक नाम
एक जाति

एक धर्म
हो गयी है

काम
थोड़ा बढ़
गया है

मगर

आधार
पैन में
सुधार करने
के फारम में

नाम के
कॉलम
की जरूरत

अब रह भी
नहीं गयी है

सच में
सोचें

मनन करें

कितनी
अच्छी बात

ये हो गयी है

उलूक
तेरा कुछ
नहीं कर
पायेगा

वो भी

तेरे आगे
कुछ नहीं है

और तेरे
पीछे
भी नहीं है

रात
के अँधेरे में
पेड़ पर बैठ

चौकीदारी
बहुत कर
चुका तू

अब
सब जगह
हो गया

तू ही तू है

बस
तेरी ही
जरूरत
अब

कहीं
आगे

या पीछे

लगाने की

नहीं रह गयी है ।

चित्र साभार: blog.ucsusa.org

रविवार, 17 मार्च 2019

हजार के ऊपर चार सौ और हो गयी बकवासें ‘उलूक’ के पागलखाने की

तमन्ना है

कई
जमाने से

आग
लगाने की

आदत
पड़ गयी

 मगर
अब तो
झक मारते

रद्दी
कागज फूँक

राख
हवा में
उड़ाने की

लकीरें
हैं खींचनी

आसमान
तक
पहुँचाने की

कलमें
छूट गयी
नीचे

मगर
हड़बड़ी में
ऊपर
जाने की

आदत
पड़ गयी
भूलने की

कहते कहते
झोला
उठाने की

लिखनी
हैं
कविताएं

आदमी
के अन्दर
के आदमी
को बचाने की

फितूर
बकवास का

नशा
बन गया

आदत
हो गयी

बस सफेद
पन्नों को

यूँ ही
धूप में
सुखाने की

क्या
जरूरत है

बेशरम

‘उलूक’
शरमाने की

तू
कुछ
अलग है

या
जमाना
कुछ और

अब
सीख
भी ले

लूट कर
जमाने को

लुटने
की कहानी
सुनाने की।

चित्र साभार: http://convictedrock.com

रविवार, 18 नवंबर 2018

गधा धोबी का धोबी के लिये गधा दोनों एक दूसरे का पर्याय हो ही जाता है

हर समय
कुछ ना कुछ
किसी पर
लिखा ही
जाता है

क्यों
लिखा जाये
किस के लिये
लिखा जाये
अलग बात है

पर
प्रश्न तो एक
सामने से
आकर खड़ा
हो ही जाता है

रोकते
रोकते हुऐ
फिर भी

ज्वालामुखी
फटने की
कगार पर
होने के
आसपास

थोड़ा सा लावा
आदममुख
से बाहर
निकल कर
आ जाता है

माफ करेंगे
झेलने वाले

बकवास
करने के लिये
कोई अगर
यहाँ चला
भी आता है

‘उलूक’ की
बकवास में
एक दो शब्दों
का बहुतायत में
पाया जाना

अभी तक तो
नाजायज नहीं
माना जाता है

झेलना
परिस्थिति को
हर किसी के
आसपास

और
हिसाब की
कहना भी
जरूरी
हो जाता है

तो शुरु करें
आज का
पकाया हुआ

देखें कहाँ तक
अपनी गंध
फैला पाता है

हर गधा

गौर करियेगा
गधा

गधे की
बकवासों में
कितनी कितनी बार
प्रयोग किया जाता है

हाँ तो
हर गधा
धोबी होना
चाहता है

धोबी होकर
अपने
मातहतों को
गधा बना कर
धोना चाहता है

सबसे
अच्छा गधा
होने के लिये
वाहन चालक होना
जरूरी माना जाता है

कम्प्यूटर
जानने वाला गधा
दूसरे नम्बर पर
रखा जाता है

गधा बनाने
की प्रक्रिया में
जाति धर्म
देश प्रदेश पर
ध्यान नहीं
दिया जाता है

सोशियल
मीडिया में
भेजा गया गधा

कभी अपना
खाली दिमाग
नहीं लगाता है

खुद ही
अपने लिखे
लिखाये से

किसका
गधा हूँ
बता जाता है

किसी के
सच का आईना
सामने लाने पर
गधों का एक समूह
पगला जाता है

तर्क देना
जरूरी नहीं
माना जाता है

घेर कर
ऐसे ही सच को

गधों
के द्वारा
लपेटने या पटकने
का प्रयास
किया जाता है

हर गधा
अपने सामने वाले के
गधेपन का फायदा
उठाना चाहता है

‘उलूक’ खुद
एक गधा
समझता है
खुद को

अपने
आसपास
के धोबियों से

अपनी पीठ
बचाने का हिसाब
खुद ही लगाता है

कभी
फंस जाता है
कभी
थोड़ा कुछ
बचा भी ले जाता है

माफ करेंगे
विद्वान लोग

गधा धोबी
पुराण से
देश चल रहा
हो जहाँ

वहाँ
जो जितनी जोर से
रेंक लेता है

उतना
सम्मानित
बता कर
उपहारों से
लाद दिया जाता है

बहुत ज्यादा
एक ही बार में
लिखना ठीक
भी नहीं है

छोटी छोटी
कहानियाँ
गधों की
मिला कर भी
गधा पुराण
बनाया जाता है ।

चित्र साभार: https://moralstories29897.blogspot.com