उलूक टाइम्स: षडयंत्र
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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

सब कुछ सब की समझ में आना जरूरी नहीं पर एक भोगा हुआ छाँछ को फूँकने के लिये हवा जरूर बनाता है

मकड़ी की
फितरत है
क्या करे

पेट भरने के लिये
खून चूस लेती है

उतना ही खून
जितनी उसकी
भूख होती है

मकड़ियाँ मिल कर
जाल नहीं बुनती हैं

ना ही शिकार को
घेरने के लिये कोई
षडयंत्र करने की
उनको कोई
जरूरत होती है

हर आदमी मकड़ी
नहीं होता है
ना ही कभी होने
की ही सोचता है

कुछ आदमी जरूर
मकड़ी हो जाते हैं
खून चूसते नहीं है
खून सुखाते हैं

शायद ये सब उन्हे
उनके पूर्वजों के
खून से ही
मिल जाता है

विज्ञान का सूत्र भी
कुछ ऐसा ही
समझाता है

खून सुखाने के लिये
कहीं कोई यंत्र
नहीं पाया जाता है

एक खून सुखाने वाला
दूसरे खून सुखाने वाले
की हरकतों से उसे
पहचान जाता है

सारे खून सुखाने वाले
एक दूसरे के साथ
मिल जुल कर
भाई चारा निभाते हैं

हजारों की भीड़ भी हो
कोई फर्क नहीं पड़ता है

अपने बिछुड़े हुऐ
खून की गंध बहुत
दूर से ही पा जाते हैं

अकेले काम करना
इनकी फितरत में
नहीं होता है

किसी साफ खून वाले
को सूँघते ही जागरूक
हो कर शुरु हो जाते हैं

यंत्र उनका
एक षडयंत्र होता है
पता ही नहीं चलता है
खून सूखता चलता है

क्या ये एक गजब
की बात नहीं है

‘उलूक’ भी
ये सब
देख सुन कर
सोचना शुरु करता है

ऐसा कारनामा
जिसमें
ना जाल होता है
ना मक्खी फंसती है
ना खून निकलता है

मकड़ी और मक्खी
आमने सामने होते हैं
मकड़ी मुस्कुराती है
मक्खी के साथ बैठी
भी नजर आती है

खून बस सूख जाता है
किसी को कुछ भी
पता नहीं चल पाता है

मकड़ियाँ कब से
पकड़ रही हैं
मक्खियों को

और इससे ज्यादा
उनसे कई जमानों तक
और कुछ नया जैसा
नहीं हो पाता है

पर उनका सिखाया
पाठ आदमी के लिये
वरदान हो जाता है

होता हुआ कहीं कुछ
नजर नहीं आता है
लाठी भी नहीं टूटती है
और साँप भी मर जाता है ।

चित्र साभार: http://faredlisovzmesy.blogspot.in