उलूक टाइम्स: रेत
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मंगलवार, 2 मई 2023

बस यूँ ही



रोज खुलती हैं खिड़कियाँ
कुछ हवा होती है कुछ धूल होती है
झिर्रियों से झांकती है जिंदगी
सांस होती है फिजूल होती है

लिखना भूल जाने का मतलब
लिखना नहीं आना नहीं होता है
कुछ
अहसास लिख जाते है
कुछ को लिख दिये का अहसास होता है

अजीब मौसम हैं अजीब बारिशें है
बादल कहीं नहीं होता है
इतना बरसता है आदमी 
पानी पानी हो शर्मसार होता है

उसको इसका सब पता होता है
इसको उसका सब पता होता है
अपने पते पर लापता लोगों को
बस अपना कुछ पता 
नहीं होता है

इधर मुक्ति पालो उधर बंधुआ हो लेती है सोच
सबको पता होता है
खुले दिमाग मरीचिका होते हैं
कोई कहता नहीं 
है मगर गुलाम होता है

सनद रहेगी वक्त पर काम भी आयेगी
बस लिखना जरुरी होता है
रेत है हर तरफ
आंधी में लिखा सब कुछ सामने से ही उड़ा होता है

वो रेतते हैं गले गले भरे शब्दों के
शराफत का यही कायदा होता है
खून से लिखते हैं आजादी
जर्रे जर्रे में जिसने सब हलाल किया होता है

खौलता है तो क्या होता है खौलने दे
  कुछ नहीं 
कहीं होता है
देख और देखता चल 'उलूक' सब देख रहे हैं
बस कुछ देखना ही होता है |  

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 7 सितंबर 2019

सब का अलग व्यवहार है पर कोई बहुत समझदार है रेत में लिखने के फायदे समझाता है


भाटे के
 इन्तजार में
कई पहर
शांत
बैठ जाता है

पानी
उतरता है

तुरन्त
रेत पर
सब कुछ
बहुत साफ
लिख ले जाता है

फिर
ज्वार को
उकसाने के लिये

चाँद को
पूरी चाँदनी के साथ
आने के लिये
गुहार लगाता है

बोझ सारा
मन का
रेत में फैला हुआ

पानी चढ़ते ही

जैसे
उसमें घुल कर
अनन्त में फैल जाता है

ना कागज ही
परेशान किया जाता है

ना कलम को
बाध्य किया जाता है

किसे
पढ़नी होती हैं
रेत में लिखी इबारतें

बस
कुछ देर में
लिखने से लेकर
मिटने तक का सफर

यूँ ही
मंजिल पा के जैसे
सुकून के साथ
जलमग्न हो जाता है

ना किताबें
सम्भालने का झंझट

ना पन्ने
पलटने का आलस

बासी पुरानी
कई साल की

बीत चुकी
उलझनों की
परतों पर पड़ी
धूल झाड़ने के लिये

रोज
पीछे लौटने
की
कसरतों से भी
बचा जाता है

‘उलूक’
रेत में दबी
कहानियों को

और
पानी में बह गयी
कविताओं को

ना बाँचने कोई आता है
ना टाँकने कोई आता है

कल का लिखा
आज नहीं रहता है

आज
फिर से
कुछ लिख देने के लिये

रास्ता भी
साफ हो जाता है

जब कहीं
कुछ नहीं बचता है

शून्य में ताकता
समझने की
कोशिश करता

एक समझदार

समझ में
नहीं आया

नहीं
कह पाता है।

चित्र साभार: https://www.bigstockphoto.com

गुरुवार, 21 जून 2018

कतारें खूबसूरत सारी की सारी बहुत सारी बस आज ऐसे ही बनानी हैं

तपती रेत है
बहुत तेज धूप है
हैरान नहीं होना है
रोज की परेशानी है

यहाँ की रेत की
बात यहीं तक रखनी है
किसी को नहीं बतानी है

बस हरी दूब लानी है

बहुत जगह उगी है
बहुत सारी उगी है
हरी हरी दूब है
पानी नहीं होने की
बात ही बेमानी है

बहुत तेज जोरों से
प्यास ही तो लगी है

धैर्य रख
ज्ञानी हैं विज्ञानी हैं
बस यहीं कहीं हैं
सच बात है
नहीं कोई कहानी है

करना कुछ नहीं है
सपने उगाने तो हैं
पर बोना कुछ नहीं हैं
बीज ही नहीं हैं

देखनी रेत है
दूब बस सोचनी है
कौन सा उगानी है

पानी नहीं है
पीना कुछ नहीं है

प्यास
बस एक सोच है
बातें की बहती हुई
नदी एक दिखानी है

एक साफ
चादर ही तो लानी है
गरम रेत
के ऊपर से बिछानी है

दूब हरी हरी
दूर से कहीं से भी
लाकर फैलानी है
बोनी नहीं है
उगानी नहीं है
बस एक दिन
की बात ही है
कुछ नहीं होना है
सूखनी है सुखानी है

गाय भैंस बकरी हैं
कम ज्यादा
कुछ भी मिले
बिकनी बिकानी है

कुछ खड़े होना है
कुछ देर सोना है
इसको उसको सबको
एक साथ एक बार
एक ही बात बतानी है

चोंच नीचे लानी है
पूँछ ऊपर उठानी है
‘उलूक’
कुछ भी कह देने की
तेरी आदत पुरानी है

भीड़ नहीं कहते हैं
बहुत सारे लोगों को

दूर तलक दूर दूर
कतारें खूबसूरत
सारी की सारी
बहुत सारी
बस आज
और आज
ऐसे ही
बनानी हैं।

चित्र साभार: www.123rf.com

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

शुतुरमुर्ग और शुतुरमुर्ग

कम नहीं हैं
बहुत हैं

चारों तरफ हैं
 फिर भी
मानते नहीं हैं
कि हैं

हो सकता है
नहीं भी होते हों
उनकी सोच में वो

बस सोच की
ही तो बात है
देखने की
बात है ही नहीं

हो भी नहीं
सकती है

जब गर्दन
किसी भी
शुतुरमुर्ग की
रेत के अन्दर
घुसी हुई हो

कितनी अजीब
बात है
है ना

आँख वाले
के पास देखने
का काम
जरा सा भी
ना हो

और सारे
शुतुरमुर्गों
के हाथ में
हो सारे देखने
दिखाने के
काम सारे

सभी कुछ
गर्दन भी हो
चेहरा भी हो
जो भी हो
घुसा हुआ हो

और
चारों तरफ
रेत हो
बस रेत
ही रेत हो

शुतुरमुर्ग
होने मे
कोई
बुराई नहीं है

शुतुरमुर्ग होने
के लिये
कहीं
मनाही नहीं है

कुछ
होते ही हैं
शुतुरमुर्ग

मानते भी हैं
कि हैं
मना भी
नहीं करते हैं

शुतुरमुर्ग की
तरह रहते भी हैं
मौज करते हैं 


बेशरम
शुतुरमुर्ग
नहीं कह
सकते हैं

अपनी मर्जी से
रेत में गर्दन भी
घुसा सकते हैं

ईमानदार होते हैं
देखने दिखाने
और बताने का
कोई भी ठेका
नहीं लेते हैं

‘उलूक’
बकवास करना
बंद कर

गर्दन खींच
और घुसेड़ ले
जमीन के अन्दर

और देख
बहुत कुछ
दिखाई देगा

शुतुरमुर्गो
नाराज मत होना
बात शुतुरमुर्गों
की नहीं हो रही है

बात हो रही है
देखने दिखाने
और
बताने की
गर्दन घुसेड़ कर
रेत के अन्दर ।

चित्र साभार: www.patheos.com

रविवार, 9 अगस्त 2015

समझ में आता है कभी शुतुरमुर्ग क्यों रेत में गरदन घुसाता है

कुछ खूबसूरत सा
नहीं लिख पाता है
कोशिश भी करता है
नहीं लिखा जाता है
किसने कह दिया
मायूस होने के लिये
कभी निकल के देख
अपनी बदसूरत सोच
के दायरे से बाहर
बदसूरतों के बदसूरत से
रास्तों में हमेशा ही
क्यों दौड़ जाता है
बहुत सा बहुत कुछ
और भी है खूबसूरत है
खूबसूरती से उतारता है
खूबसूरत लफ्जों को
लिखा हुआ हर तरफ
सभी कुछ खूबसूरत
और बस खूबसूरत
सा नजर आता है
सब कुछ मिलता है
उस लिखे लिखाये में
चाँद होता है तारे होते हैं
आसमान होता है
हवा होती है
चिड़िया होती है
आवाजें बहुत सी होती हैं
सब कविता होती हैं
या केवल गीत होती हैं
इसीलिये हर खूबसूरत
उसी दायरे के
कहीं ना कहीं आसपास
में ही पाया जाता है
कभी किसी दिन
झूठ ही सही
अपनी उल्टी सोच के
कटोरे से बाहर निकल
कर क्यों नहीं आता है
अच्छा लगेगा तुझे भी
और उसे भी ‘उलूक’
होने दे जो हो रहा है
करने दे जो भी
जहाँ भी कर रहा है
कीचड़ में कैसे
खिलता होगा कमल
असहनीय सड़ाँध में
भी खिलखिलाता है
सोच कर देख तो सही
कोशिश करके
बदसूरती के बीच
कभी खूबसूरती से
कुछ खूबसूरत
भी लिखा जाता है ।

चित्र साभार: www.moonbattery.com

रविवार, 12 जुलाई 2015

थोड़े बहुत शब्द होने पर भी अच्छा लिखा जाता है

अब कैसे
समझाया जाये
एक थोड़ा सा
कम पढ़ा लिखा
जब लिखना ही
शुरु हो जाये
अच्छा है
युद्ध का मैदान
नहीं है वर्ना
हथियारों की
कमी हो जाये
मरने जीने की
बात भी यहाँ
नहीं होती है
छीलने काटने
को घास भी
नहीं होती है
लेकिन दिखता है
समझ में आता है
अपने अपने
हथियार हर
कोई चलाता है
घाव नहीं दिखता
है कहीं किसी
के लगा हुआ
लाल रंग का
खून भी निकल
कर नहीं
आता है
पर कोशिश
करना कोई
नहीं छोड़ता है
घड़ा फोड़ने
के लिये कुर्सी
दौड़ में जैसे
एक भागीदार
आँख में पट्टी
बाँध कर
दौड़ता है
निकल नहीं
पाता है
खोल से अपने
उतार नहीं
पाता है
ढोंग के कपड़े
कितना ही
छिपाता है
पढ़ा लिखा
अपने शब्दों
के भंडार के
साथ पीछे
रह जाता है
कम पढ़ा लिखा
थोड़े शब्दों में
समझा जाता है
जो वास्तविक
जीवन में
जैसा होता है
लिखने लिखाने
से भी कुछ
नहीं होता है
जैसा वहाँ होता है
वैसा ही यहाँ आ
कर भी रह जाता है
‘उलूक’ ठीक है
चलाता चल
कौन देख रहा है
कोई अपनी नाव
रेत में रखे रखे ही
चप्पू चलाता है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

मंगलवार, 24 जून 2014

रोज एक नई बात दिखती है पुराने रोज हो रहे कुछ कुछ में

ये पता होते
हुऐ भी कि
बीज हरे भरे
पेड़ पौँधे के
नहीं है जो
बो रहे हैं
उनसे बस
उगनी हैं
मिट्टी से
रेत हो चुकी
सोच में कुछ
कंटीली झाड़ियाँ
जिनको काटने
के लिये कभी
पीछे मुड़ के
भी किसी ने
नहीं देखना है
उलझते रहे
पीछे से आ रही
भीड़ की सोच
के झीने दुपट्टे
और होते रहे
बहुत कुछ
तार तार
समय के
आर पार
देखना शुरु
कर लेना
सीख लेने
से भी कुछ
नहीं होता
अपने से शुरु
कर अपने में
ही समाहित
कर लेने में
माहिर हो कर
कृष्ण हो चुके
लोगों को अब
द्रोपदी के चीर
के इन्ही सोच
की झड़ियों में
फंस कर उधड़ना
देख कर शंखनाद
करना कोई नई
बात नहीं है
तुझी को आदत
डालनी पड़ेगी
बहरे होने की
नहीं हो सकता
तो चीखना सीख
एक तेज आवाज
के साथ जो
आज के कृष्ण
के शंख का
मुकाबला कर सके
तू नहीं तो
कृष्ण ही सही
थोड़ा सा
खुश रह सके ।

मंगलवार, 17 जून 2014

भ्रम कहूँ या कनफ्यूजन जो अच्छा लगे वो मान लो पर है और बहुत है

भ्रम कहूँ
या
कनफ्यूजन

जो
अच्छा लगे
वो
मान लो

पर हैंं
और
बहुत हैंं

क्यों हैंं
अगर पता
होता तो
फिर
ये बात
ही कहाँ
उठती

बहुत सा
कहा
और
लिखा
सामने से
आता है
और
बहुत
करीने से
सजाया
जाता है

पता कहाँ
चलता है
किसी और
को भी है
या नहीं है
उतना ही
जितना
मुझे है

और मान
लेने में
कोई शर्म
या झिझक
भी नहीं है
जरा सा
भी नहीं

पत्थरों के
बीच का
एक पत्थर
कंकणों
में से एक
कंकण
या
फिर रेत
का ही
एक कण
जल की
एक बूँद
हवा में
मिली हुई
हवा
जंगल में
एक पेड़
या
सब से
अलग
आदमियों
के बीच
का ही
एक आदमी
सब आदमी
एक से आदमी
या
आदमियों के
बीच का
पर एक
अलग
सा आदमी

कितना पत्थर
कितनी रेत
कितनी हवा
कितना पानी
कितने जंगल
कितने आदमी

कहाँ से
कहाँ तक
किस से
किस के लिये

रेत में पत्थर
पानी में हवा
जंगल में आदमी
या
आदमीं में जँगल

सब गडमगड
सबके अंदर
बहुत अंदर तक

बहुत तीखा
मीठा नशीला
बहुत जहरीला
शांत पर तूफानी
कुछ भी कहीं भी
कम ज्यादा
कितना भी
बाहर नहीं
छलकता
छलकता
भी है तो
इतना भी नहीं
कि साफ
साफ दिखता है

कुछ और
बात कर
लेते हैं चलो

किसी को
कुछ इस
तरह से
बताने से भी
बहुत बढ़ता है

बहुत है
मुझे है
और किसी
को है
पता नहीं
है या नहीं

भ्रम कहूँ
या
कनफ्यूजन
जो
अच्छा लगे
वो
मान लो
पर है
और
बहुत है ।

बुधवार, 14 मई 2014

स्वर्ग जाना जरूरी नहीं होता है जब उसके बारे में बताने वाला आस पास ही पाया जाता है

काला चश्मा
पहन कर
अपने आस पास
की गंदगी को
रंगीन कपड़े
से ढक कर
उसके ऊपर से
खुश्बू छिड़क कर
उसके पास पूरी
जिंदगी बिता देना

बहुत से लोगों को
बहुत अच्छी तरह
से आता है

सबकी नहीं भी
होती होगी
पर बहुतों
की होती है
एक ऐसी ही आदत

उसमें शामिल
होते हैं हम भी
पूरी तरह
एक नहीं
कई बार

कथा भागवत
करने में माहिर
ऐसे लोगों को
गीता से लेकर
कुरान का भी ज्ञान
रुपिये पैसे के ऊपर
लगने वाले ब्याज
की तरह आता है

कीचड़ के ऊपर से
धोती को समेरते हुऐ
बातों बातों में एक
बहुत लम्बे रास्ते से
ध्यान हटाने की
कला में पारँगत
ऐसे ही लोग
स्वर्ग के बारे में
बताते चले जाते हैं

बहुत से लोगों की
इच्छा भी होती है
जिंदा ही स्वर्ग
भ्रमण करने की

उनके लिये ही
सारा इंतजाम
किया जाता है

देखते सुनते
सब लोग हैं
जानते बूझते
सब लोग है

यही सब लोग
बहुत दूर के
बजते हुऐ
ढोलों और
नगाड़ों की तरफ
कान लगाये हुऐ
खड़े होकर
काट लेते हैं समय

इनमें से कोई
भी कभी स्वर्ग
ना जिंदा जाता है
ना ही मरने के
बाद ही इनको
वहाँ आने
दिया जाता है

नगाड़ों
की आवाज
सुनाई भी
नहीं देती है

कुछ बज रहा है
कहीं दूर बहुत
बता दिया जाता है

क्या करे
कोई उनका
जिनको अपने
आसपास के
पेड़ पौंधों
को तक पागल
बनाना आता है

वो बताते
चले जाते हैं
स्वर्ग के इंद्र
के बारे में

कब वो स्वर्ग के
लायक नहीं
रह जाता है

ऐसे समय में
स्वर्ग को फिर से
स्वर्ग बनाने के लिये
नये इंद्र को लाने
ले जाने का ठेका
दूर कहीं बैठ कर
ही हो जाता है

कथाऐं
चलती रहती है
कथा वाचक
बताता चला जाता है

फिर से एक बार
स्वर्ग बनने बनाने की
कथा शुरु हो चुकी है

सीमेंट और रेत के
शेयरों का बहुत
तेजी से ऊपर चढ़ना
शुरु हो जाने का अब
और क्या मतलब
निकाला जाता है ।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

फसल तो होती है किसान ध्यान दे जरूरी नहीं होता है

ना कहीं खेत होता है 
ना ही कहीं रेत होती है 

ना किसी तरह की खाद की 
ना ही पानी की कभी कहीं जरूरत होती है 

फिर भी कुछ ना कुछ 
उगता रहता है 

हर किसी के पास 
हर क्षण हर पल 
अलग अलग तरह से कहीं सब्जी तो कहीं फल 

किसी को काटनी 
आती है फसल 
किसी को आती है पसंद बस घास उगानी 
काम फसल भी आती है और उतना ही घास भी 

शब्दों को बोना हर किसी के 
बस का नहीं होता है 
 बावजूद इसके कुछ ना कुछ उगता चला जाता है 
काटना आता है जिसे काट ले जाता है 
नहीं काट पाये कोई तब भी कुछ नहीं होता है 
अब कैसे कहा जाये 
हर तरह का पागलपन हर किसे के बस का नहीं होता है

कुकुरमुत्ते भी तो 
उगाये नहीं जाते हैं 
अपने आप ही उग आते हैं  
कब कहाँ उग जायें किसी को भी पता नहीं होता है 

कुछ कुकुरमुत्ते 
मशरूम हो जाते हैं 
सोच समझ कर अगर कहीं कोई बो लेता है 

रेगिस्तान हो सकता है 
कैक्टस दिख सकता है 

कोई लम्हा कहा जा सके 
कहीं एक बंजर होता है 
बस शायद ऐसा ही कहीं नहीं होता है ।

गुरुवार, 10 मई 2012

आभा मण्डल

चार लोगों से
कहलवाकर
अपने लिये
अलग कुर्सी
एक चाँदी
की लगवाकर

सब्जी लेने
हुँडाई में जाकर
कपड़ो में सितारे
टंकवाकर

कोशिश होती है
अपना एक
आभा मण्डल
बनाने की

अब
आभा मण्डल हो
या
प्रभा मण्डल हो
या
कुछ और
यूँ ही अच्छी
शक्लो सूरत
से ही थोड़े ना
पाया जाता है

कुछ लोग
अच्छे
दिखते नहीं 
हैं
पर चुंबक सा
सबको अपनी
ओर  खींचते
चले जाते 
हैंं

पहनते कुछ
खास भी नहीं 
हैं
और हरी सब्जी
वो खाते 
हैं

चुपचाप रहते हैंं
और
बस थोड़ा थोड़ा
मुस्कुराते 
हैं 

लोग बस यूँ ही
उनके दीवाने
पता नहीं क्यों
हो जाते 
हैं 

बहुत कड़ी
मेहनत करके
अपने कर्मों
का कुछ भी
हिसाब
ना धर के
चमकने वाले
एक व्यक्तित्व
का मुकाबला
जब हम नहीं
कहीं भी
कर   पाते 
हैं

तो यू हीं
खिसियाते 
हैं 

मदारी
की तरह
किसी
भी तरह
की डुगडुगी
बजाना शुरू 
हो जाते 
हैं

एक बड़ी
भीड़ का घेरा
अपने चारों
ओर  बनाते 
हैं 

आभा मण्डल
की रोशनी
से पीछा
छुड़ाते 
हैं

कुछ देर के
लिये ही सही
शुतुरमुर्ग की
तरह गर्दन
रेत के अंदर 
 घुसाते 
हैं ।