रोज होती है मौत
रोज ही क्रिया कर्म
रोज बनती हैं अस्थियाँ
विसर्जित होने के लिये
विसर्जित होने के लिये
जिनको कभी भी नहीं मिलना होता है
कोई संगम
प्रवाहित होने के लिये
प्रवाहित होने के लिये
कपड़े से मुँह बंद कर रख दी जाती हैं
मिट्टी के घड़े में रखी हुई हैं सोच कर
अपने ही अगल बगल कहीं
महसूस करने के लिये कि
हैंं आस पास कहीं
दिखते रहने के लिये
पर दिखाई नहीं जाती हैं
किसी को भी कभी भी
इसलिये नहीं
कि कोई दिखाना नहीं चाहता है
इसलिये नहीं
कि कोई दिखाना नहीं चाहता है
बल्कि इसलिये
कि दिखा नहीं पाता है
कि दिखा नहीं पाता है
सभी के पास होते हैं
अपने अपने अस्थियों के
अपने अपने अस्थियों के
गले गले तक भरे मिट्टी के कुछ घड़े
फोड़ने के लिये
पर ना तो
घड़ा फूटता है कभी
घड़ा फूटता है कभी
ना ही राख फैलती है कहीं
किसी गंगाजल में
किसी गंगाजल में
प्रवाहित होने के लिये
बस
एक के बाद एक
एक के बाद एक
इकट्ठा होते चले जाते हैं
अस्थियों के घड़े
कपड़े से मुँह बंद किये हुऐ
जिसमें अस्थियाँ
हड्डियों और माँस की नहीं
एक सोच की होती हैं
और
रोज ही
किसी पेड़ पक्षी
या आसपास उड़ती धूल मिट्टी
की बात को लेकर
रोज ही
किसी पेड़ पक्षी
या आसपास उड़ती धूल मिट्टी
की बात को लेकर
लिख ही लेता है कोई यूँ ही कुछ
और रोज बढ़ जाता है
एक अस्थि का घड़ा
अगल बगल कहीं
कपड़े से बंधा हुआ
बंद किये हुऐ
एक सोच को
जो बस
दफन होने के लिये
दफन होने के लिये
ही जन्म लेती है ।
चित्र साभार: https://hindi.oneindia.com/