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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

भाव का चढ़ना और उतरना


भावों
का उठना 
भावों
का गिरना 

सोच में हों 
या बाजार में 
उनका बिकना 

समय
के हिसाब से
जगह
 के हिसाब से
मौके
 के हिसाब से 

हर
भाव का भाव 
एक
भाव नहीं होना

निर्भर
करता है 

किसका 
कौन सा भाव 
किसके लिये 
क्यों कब
और 
कहाँ जा 
कर उठेगा 

मुफ्त
में साझा 
कर लिया जायेगा 

या फिर
 खडे़ खडे़ ही 
खडे़ भाव के साथ 
बेच दिया जायेगा

भावों के 
बाजार के 
उतार चढ़ाव भी 
कहाँ समझ में 
आ पाते हैं 

शेयर मार्केट
जैसे 
पल में चढ़ते हैं 
पल में उतर जाते हैं 

 कब
किसका भाव 
किसके लिये
कुछ 
मुलायम हो जायेगा 

कब कौन
अपना भाव 
अचानक बढ़ा कर 
अपने बाजार मूल्य 
का ध्यान दिलायेगा 

कवि का भाव 
कविता का भाव 
किताब में लिखी हो 
तो एक भाव 
ब्लाग में लिखी हो 
तो अलग भाव 

कवि
ने लिखी हो 
तो
कुछ मीठा भाव 

कवियत्री
अगर हो 
तो
फिर तीखा भाव 

भावों
की दुनियाँ में 
कोई मित्र नहीं होता

शत्रु
का भाव हमेशा 
ही रहता है बहुत ऊँचा



आध्यात्मिक
भाव 
से होती है पूजा 

भावातीत ध्यान 
भी
होता है कुछ

पता नहीं चलता


चलते चलते
योगी
कब जेल के अंदर
ही
जा पहुँचा 



पता नहीं
क्या ऎसा
कुछ भाव उठ बैठा

सभी
के
भावों पर 
भावावेश में

भाव 
पर ही कुछ
लिख ले जाऊँ का 
एक
भाव जगा बैठा 



दो
तिहाई जिंदगी 
गुजरने के बाद 
एक बात इसी भाव 
के
कारण आज 
पता नहीं कैसे 
पता लगा बैठा



कुछ भी
यहां
कर 
लिया जाता है 

आदमजात
भाव 
का कोई कुछ 
नहीं कर पाता है 



उदाहरण 
दिया जाता है 

खून
जब लाल 
होता है सबका 

फिर
आदमी बस 
आदमी ही क्यों 
नहीं होता है 

सब
इसी भाव पर 
उलझे रहे पता नहीं 
कितने बरसों तक

जबकी
खून का 
लाल होना ही 
साफ बता देता है
भाव का भाव हर 
आदमी के भाव में 
हमेशा से ही होता है 

हर
आदमी बिकने 
को
तैयार

अपने 
भाव पर जरूर होता है 

कभी
इधर वाला 
उधर वाले को 
खरीद देता है 

कभी
उधर वाला 
इधर वाले को 
बेच देता है 

कोई
किसी से 
अलग कहाँ होता है 

ऎसा
एक भाव 
सारी प्रकृति में 
कहीं भी और 
नहीं होता है 

आदमी
का भाव 
आदमी के लिये 
हमेशा एक होता है 
भाव ही धर्म होता है 
भाव ही जाति होता है 

कहने को
कोई 
कुछ और कहते रहे 

यहाँ
सब कुछ 
या तो आलू होता है 
या फिर प्याज होता है 

दिल
के अंदर 
होने से क्या होता है 
जब हर भाव का 
एक भाव होता है ।

शनिवार, 10 अगस्त 2013

जिन्दगी भी एक प्रतिध्वनी है

उनके मुँह से जैसे ही निकला
कि जिन्दगी
एक प्रतिध्वनी है

पूछ बैठे
क्या हुआ
इसका अर्थ
समझाओगे

मेरे
दिमाग की
खुराफात
ने कहा
अभी तो
कुछ नहीं
बताउँँगा

आज
शाम को
लिखा हुआ
इसी पर आप
कुछ ना जरुर
कुछ पाओगे

अब फलसफा
है तो बहुत ही
जानदार

कहा जा
सकता है
कि इसमें तो हैं
पूरी जिन्दगी के
सारे उतार चढ़ाव

उनके हिसाब से
जिन्दगी एक
प्रतिध्वनी है
का मतलब
होता हो शायद

जो लौट के फिर
कभी ना कभी
एक बार जरूर
वापस आता है

टकरा टकरा कर
हर लम्हा जिंदगी
का फिर दुबारा
कहीं ना कहीं
खुद से खुद को
इस तरह मिलाता है

अपने को भूले हुऎ
को क्षण भर को
ही सही कुछ
अपने बारे में
कुछ कुछ याद
सा आ जाता है

नहीं तो सुबह शुरु
हुई जिंदगी को
संवारने में सारा
दिन कोई भी
गुजार ले जाता है

और
शाम होते होते
ही पता चलने
लग जाता है
कि
इस पूरी कोशिश में
फिर से कोई
कौना जिंदगी का
फटी हूई पैजामे
से निकले घुटनो
की तरह से कहीं
एक नई जगह
से मुँह अपना
निकाल ले जाता है
फिर चिढा़ता है

अब उनके जिंदगी
के इस पहलू पर
जब तक मैं
कुछ सोच भी पाता

क्या किया जाये
मजबूरी है
सोच की भी
कि कौन
सा खयाल
किस की
सोच में आता है

मुझे खुद में वो
बिलाव नजर
आता है जो
चूहे को
सामने से

कुतरते हुऎ
कतरा कतरा
जिंदगी अपने
आप को
बेबस सा
पाता है

पर कर कुछ
नहीं सकता
सिवाय अपने
पंजे के नाखूनो
को एक खम्बे
को नोच नोच
कर घायल
कर जाता है

फिर उसी
रात को
सपने में
उस चूहे
को अपने
पंजो में दबा
हुआ तड़पता
पाता है

इसी तरह कुछ
गुजर जाती
है जिन्दगी
रोज रोज
के रोज ही

जिन्दगी एक
प्रतिध्वनी है
का मतलब
शायद इन
सपनो का होना
ही हो जाता है

जो पूरे नहीं
कभी हो पाते हैं
लेकिन लौट के
आना जिन्दगी
में एक बार फिर
से उनका बहुत
जरूरी हो जाता है ।