उलूक टाइम्स: त्योहार
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रविवार, 8 जनवरी 2017

शुरु हो गया मौसम होने का भ्रम अन्धों के हाथों और बटेरों के फंसने की आदत को लेकर

कसमसाहट
नजर आना
शुरु हो गयी है

त्योहार नजदीक
जो आ गया है

अन्धों का ज्यादा
और बटेरों का कम

अपने अपने
अन्धों के लिये
लामबन्द होना
शुरु होना
लाजिमी है
बटेरों का

तू ना
अन्धा है
ना हो
पायेगा

बड़ी बड़ी
गोल आखें
और
उसपर
इस तरह
देखने की
आदत

जैसे बस
देखेगा
ही नहीं
मौका
मिले
तो घुस
भी पड़ेगा

बटेर होना
भी तेरी
किस्मत
में नहीं

होता तो
यहाँ लिखने
के बजाये
बैठा हुआ
किसी अन्धे
की गोद में
गुटर गुटर
कर रहा होता

अन्धों के
हाथ में बटेर
लग जाये या
बटेर खुद ही
चले जाये अन्धे
के हाथ में

मौज अन्धा
ही करेगा
बटेर त्यौहार
मना कर
इस मौसम का
अगले त्यौहार
के आने तक
अन्धों की
सही सलामती
के लिये बस
मालायें जपेगा

तू लगा रह
खेल देखने में
कौन सा अन्धा
इस बार की
अन्धी दौड़
को जीतेगा

कितनी बटेरों
की किस्मत
का फैसला
अभी करेगा

बटेरें हाथ में
जाने के लिये
बेकरार हैं
दिखना भी
शुरु हो गई हैं

अन्धों की आँखों
की परीक्षाएं
चल रही हैंं

जरा सा भनक
नहीं लगनी
चाहिये
थोड़ी सी भी
रोशनी के बचे
हुऐ होने की
एक भी आँख में
समझ लेना
अन्धो अच्छी
तरह से जरा

बटेर लपकने
के मौसम में
किसी दूसरे
अन्धे के लिये
बटेर पकड़
कर जमा
करने का
आदेश हाथ
में अन्धा
एक दे देगा

अन्धों का
त्योहार
बटेरों का
व्यवहार
कुछ नहीं
बदलने
वाला है

‘उलूक’

सब इसी
तरह से
ही चलेगा

तुझे मिला
तो है काम
दीवारें
पोतने
का यहाँ

तू भी
दो चार
लाईनेंं
काली
सफेद
खींचते हुए
पागलों
की तरह

अपने जैसे
दो चारों के
सिर
खुजलाने
के लिये
कुछ
ना कुछ
फालतू
रोज की
तरह का
कह देगा ।

चित्र साभार: The Blogger Times

सोमवार, 20 जुलाई 2015

अब क्या बताये क्या समझायें भाई जी आधी से ज्यादा बातें हम खुद भी नहीं समझ पाते हैं

कोई नयी
बात नहीं है
पिछले साल
पिछले के
पिछले साल

और
उससे पहले के
सालो साल
से हो रही
कुछ बातों पर

कोई प्रश्न अगर
नहीं भी उठते हैं

उठने भी
किस लिये हैं

परम्पराऐं
इसी तरह
से शुरु होती हैं
और
होते होते
त्योहार
हो जाती हैं

मनाना
जरूरी भी
होता है
मनाया भी
जाता है
बताया भी
जाता है
खबर भी
बनाई जाती है
अखबार में
भी आती है

बस कुछ
मनाने वाले
इस बार
नहीं मनाते हैं
उनकी जगह
कुछ नये
मनाने वाले
आ जाते हैं

त्योहार मनाना
किस को
अच्छा नहीं
लगता है

पर
परम्परा
शुरु कर
परम्परा को
त्योहार
बनने तक
पहुचाने वाले
कहीं भी
मैदान में
नजर नहीं
आते हैं

अब
‘उलूक’
की आखों से
दिखाई देने
वाले दिवास्वप्न
कविता
नहीं होते हैं

समझ में
आते हैं
तो बस
उनको ही
आ पाते हैं

जो मैदान
के किसी
कोने में
बैठे बैठे
त्योहार
मनाने वालों
की मिठाईयों
फल फूल
आदि के लिये
धनराशि
उपलब्ध
कराने हेतु
अपने से
थोड़ा ऊपर
की ओर
आशा भरी
नजरों से
अपने अपने
दामन
फैलाते हैं

किसी की
समझ में
आये या
ना आये
कहने वाले
कहते ही हैं

रोज कहते हैं
रोज ही
कहने आते हैं
कहते हैं
और
चले जाते हैं

तालियाँ
बजने बजाने
की ना
उम्मीद होती है
ढोल नगाड़ों
और नारों
के शोर में
वैसे भी
तालियाँ
 बजाने वाले
कानों में
थोड़ी सी
गुदगुदी ही
कर पाते हैं ।

चित्र साभार: wallpoper.com

सोमवार, 4 नवंबर 2013

लक्ष्मी को व्यस्त पाकर उलूक अपना गणित अलग लगा रहा था

निपट गयी जी
दीपावली की रात

पता अभी
नहीं चला वैसे
कहां तक पहुंची
देवी लक्ष्मी

कहां रहे भगवन
नारायण कल रात

किसी ने भी
नहीं करी
अंधकार प्रिय
उनके सारथी
उलूक की
कोई बात

बेवकूफ हमेशा
उल्टी ही
दिशा में
चला जाता है

जिस पर कोई
ध्यान नहीं देता

ऐसा ही कुछ
जान बूझ कर
पता नहीं

कहां कहां से
उठा कर
ले आता है

दीपावली की
रात में जहां
हर कोई दीपक
जला रहा था

रोशनी
चारों तरफ
फैला रहा था

अजीब बात
नहीं है क्या
अगर उसको
अंधेरा बहुत
याद आ रहा था

अपने छोटे
से दिमाग में
आती हुई एक
छोटी सी बात
पर खुद ही
मुस्कुरा रहा था

जब उसकी
समझ में
आ रहा था

तेज रोशनी
तेज आवाजें
साल के
दो तीन दिन
हर साल
आदमी कर

उसे त्योहार
का एक नाम
दे जा रहा था

इतनी चकाचौंध
और इतनी
आवाजों के बाद
वैसे भी कौन
देख सुन पाने की
सोच पा रहा था

अंधा खुद को
बनाने के बाद
इसीलिये तो
सालभर

अपने चारों
तरफ अंधेरा
ही तो फैला
पा रहा था

उलूक कल
भी खुश नहीं
हो पा रहा था

आज भी उसी
तरह उदास
नजर आ रहा था

अंधेरे का त्योहार
होता शायद
ज्यादा सफल
उसे कभी कोई
क्यों नहीं
मना रहा था

अंधेरा पसंद
उलूक बस
इसी बात को
नहीं पचा
पा रहा था ।