उलूक टाइम्स: बिन पैंदी
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मंगलवार, 12 मार्च 2013

कृपया लोटे ही इसे पढे़ं


बिन पैंदी के लोटों के बीच 
बहुत बार लुढ़कते लुढ़कते भी कुछ नहीं सीख पाता हूँ 

लोटों के बीच रहकर भी
क्यों नहीं लोटों की तरह व्यवहार कर पाता हूँ 

सामने सामने जब बहुत से लोटों को 
एक लोटे के लिये
लोटों के चारों ओर लुढ़कता हुआ देखता जाता हूँ 

वैसे समझता भी हूँ 
पैंदी का ना होना वाकई में कई बार 
खुदा की नैमत हो जाती है 

लुढ़कते हुऎ लोटों द्वारा लुढ़कते लुढ़कते 
कहाँ जा कर किन लोटों को कब 
कौन सी टोपी पहना दी जाती है 

ये बात लोटों के समझ में नहीं कभी आ पाती है 
लोटों में से एक अन्धे लोटे के लिये रेवड़ी बन के बहार ले आती है 

लोटों की और भी बहुत सी लोटागिरी 
कायल कर घायल कर ले जाती है 
जब कहानी कभी गलती से समझ में आ जाती है 

बहुत दिन से लोटा 
लोटा एक जी के चारों और लुढ़कने का 
कार्यक्रम चला रहा था 
सारे लोटों को नजर ये सब साफ साफ आ रहा था 

उधर लोटा दो
अपनी पोटली कहीं खोल बाट आ रहा था 
अपनी दुकान के प्याज का
भाव चढ़ गया करके अखबार में रोज छपवा रहा था 

तुरंत ही लोटा अपना लुढ़कना 
साम्यावस्था बनाने की तरफ झुका रहा था 

सीन बदलने में समय ही नहीं लगता है 
ये बाकी लोटों का
लोटे की ओर लोटे के पीछे लुढ़कता हुआ चला जाना 
साफ साफ दिखा रहा था 

'उलूक'
बहुत से अच्छे भले लोग 
जो हमेशा हमारे लोटा हो जाने पर आँख दिखा रहे थे 
इन लुढ़कते हुऎ लोटों के बीच में कब लोटे हो जा रहे थे 

उनकी सोच भी लोटा सोच है करके
जबकि कहीं नहीं दिखाना चाह रहे थे 

पता नहीं क्या मजबूरी उनकी हो जा रही थी 
जो लोटे के लिये लोटे के साथ लोटों की भीड़ में 
ताली बजाने वाला एक लोटा हो कर रह जा रहे थे । 

चित्र साभार: https://www.redbubble.com/