कुछ खुरच दीवार से मिट्टी थोड़ी सी कुछ जमीन से उठा
मिला के देख रंग से रंग ना मिले धूप में ले जा और सुखा
मिट्टी हो या हो राख आग हो या धुआं हो मत उलझ और जा
आता रहा है बरसों से यहां सोच मत और आ फिर से आ
गिट्टियाँ खेलते कोई लिखने लगे आंगन जरा मत भरमा
अपने लिए हैं खेल अपने हैं मैदान कौन कहता है शरमा
मन नहीं है टूटते हैं पुल शब्दों के इधर और उधर वहाँ
सबके अपने खिलौने आयें सब और खेलें मिलकर यहां
खेलें दो या खेलें ग्यारह हजारों करोड़ों हैं तो सही मेहरबां
‘उलूक’ सत्तर निकल लिए सत्तर आने हैं साल अभी कद्रदां |
चित्र साभार:
https://www.facebook.com/photo/?fbid=1898646290178703&set=a.1894919707218028
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोमवार 14 अक्बटूर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसबके अपने अपने खेला अपने अपने खेल खिलौने हैं,,,,,बहुत सही,,
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंवाह! हमेशा की तरह लाजवाब।
जवाब देंहटाएंगहरी बात
जवाब देंहटाएंसत्तर साल और सत्तर कद्रदान ... क्या बात है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन सर ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया रचना।
जवाब देंहटाएंदीपोत्सव पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏
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