आजादी दिखने दिखाने तक ही ठीक नहीं है
आजादी है कितनी है उसे लिखना भी उतना ही जरूरी है
जब मिली थी आजादी सुना है एक कच्ची कली थी
आज के दिन पूरा खिल गयी है फूल बन गयी है
स्वीकार कर लेना है
आज की मजबूरी है
आज की मजबूरी है
बात देश की करते हैं नौजवान आजकल के
झंडा फहराते हैं एक संगठन का
समझाते है राष्ट्र तिरंगे के फहराने के समय
अपनी अपनी श्रद्धा है अपनी अपनी जी हजूरी है
ना सैंतालीस मैं पैदा हुऐ ना गांधी से रूबरू कभी
धोती लाठी नंगा बदन तीन बंदरों की टोली
समझने की कोशिश भर रही
गांधी वांगमय समझ में आया या ना आया
सच को समझने की कोशिश भर रही
कह ले कोई कितना फितूरी है
समय दिख रहा है दिखा रहा है सारा सब कुछ
ठहरे स्वच्छ जल में बन रही तस्वीर की तरह
लाल किले पर बोले गए शब्द कितने आवरण ओढे
तैरते सच की उपरी परत पर
देख सुन रही है एक सौ चालीस करोड जनता
दो हजार चौबीस के चुनाव के परीक्षाफल
चुनाव होना ही क्यों है उसके बाद
किसने कह दिया जरूरी है
‘उलूक’ चश्मा सिलवाता क्यों नहीं अपने लिये
पता नहीं क्यों उनके जैसा
टी वी अखबार वालों के पास होता है जैसा
पता नहीं क्या देखता है क्या सुनता है
आँख से अंधा कान से बहरा
पैदा इसी जमीन से हुआ
कुछ अजीब सा हो गया
इस में कहीं ना कहीं कोई तो गड़बड़ है
कागज़ कागज़ भर रहा है लेकिन
कलम कुछ बिना स्याही है
और सफ़ेद है कोरी है |
चित्र
साभार: https://in.pinterest.com/
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (१६-०८-२०२३) को 'घास-फूस की झोंपड़ी'(चर्चा अंक-४६७७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
इतना गहरा लेखन बेबाक लेखनी
जवाब देंहटाएंअनुभव का परिचायक
गहन सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसमय को मुट्ठियों में कैद करने का ख़्वाब हसीं तो है पर सच तो नहीं न...
जवाब देंहटाएंगहन भाव लिए विचारणीय अभिव्यक्ति सर।
प्रणाम
सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ अगस्त २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअद्भुत!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब
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