उलूक टाइम्स: मगर आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी खड़ा हो नहीं पाता है

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

मगर आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी खड़ा हो नहीं पाता है



लिखने में खुद के भगवान फूंकता है
और वो पसर भी जाता है
कोई ढूंढे मशाल ले कर के इंसान
मगर दूर तक नजर नहीं आता है

बड़ी शिद्दत से लिख कर
शब्दों में आईने उतार लाता है
अफसोस उसका खुद का चेहरा
कलम की रोशनाई में डूबा रह जाता है

दर्द गम खुशी सब होते हैं
लबालब भी होते हैं और छलकते भी हैं
अपने हिसाब से समय देखकर
लिखने वाले के बटुवे में
आंख कान मुंह ही केवल
और केवल बंद नजर आता है

पाठक का अपना ही होता है ईश्वर
पढ़ते समय वो अपने  साथ ले 
ही आता है
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान
गाने के बोल लब से फिसलते हैं मगर
आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी
खड़ा हो नहीं पाता है

इतनी बेशर्मी भी अच्छी नहीं ‘उलूक’
जब समझना सब कुछ के बाद भी
नासमझी से
झूठ की वैतरणी को पार किया जाता है | 

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 31 जुलाई 2025को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

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  2. समुंदर अंक
    वो तो काफी पहले ही निकल लिए थे
    अब लकीर की पिटाई क्यूँ
    वंदन

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  3. आपकी कविता में जो तेवर है न, वो बताता है कि लिखने वाला सिर्फ लिख नहीं रहा, उसने जी लिया है वो हर एहसास, खुद को पीछे छोड़कर, बस सच को सामने रखने के लिए। मुझे जो सबसे खास चीज़ लगी, वो है इसका कड़वा मगर ईमानदार टोन। ये कविता आपको चुप नहीं बैठने देती, या तो अंदर से कुछ हिला देती है या आपको खुद से सवाल करने पर मजबूर करती है।

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  4. दर्द गम खुशी सब होते हैं
    लबालब भी होते हैं और छलकते भी हैं
    अपने हिसाब से समय देखकर
    लिखने वाले के बटुवे में
    आंख कान मुंह ही केवल
    और केवल बंद नजर आता है
    बहुत सटीक👌👌
    वाह!!!

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