उलूक टाइम्स: आदतन
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शनिवार, 4 मई 2024

‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे

 
माहौल पर नहीं लिखेंगे कुछ भी
कुछ इधर की लिखेंगे कुछ उधर की लिखेंगे
वो कुछ अपनी लिखेंगे हम कुछ अपनी लिखेंगे
लिखेंगे और रोज कुछ लिखेंगे

धूप बहुत तेज है हो लू से मरे आदमी मरे
हम पेड़ पर लिखेंगे उसकी छाँव पर लिखेंगे
आंधी से उड़ गयी हो छतें गरीबों की रहने दें
हम ठंडी हवा लिखेंगे और गाँव लिखेंगे

कोई झूठ बोले बोलता रहे हम सच पर लिखेंगे
सच की वकालत पर लिखेंगे हम पड़ताल  लिखेंगे
मर रहे हैं लोग बीमारियों से मरें और मरते रहें
हम लिखे में अपने सारे हस्पताल लिखेंगे

तीन बंदरों की नयी बात लिखेंगे
गांधी और नेहरू को पडी लात की सौगात लिखेंगे
तीन बंदरों को   खुद ही सुधार लेने को
उनकी औकात लिखेंगे उनकी जात लिखेंगे

लिखेंगे दिखेंगे पढेंगे
दो चार पांच को ले जाकर रोज सुबह
बेरोकटोक सूबेदार लिखेंगे
‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ
गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

कई दिन के सन्नाटे के बाद किसी दिन भौंपू बजा लेने में क्या जाता है

 



कुछ बहुत अच्छा लिखने की सोच में
बस सोचता रह जाता है

कुकुरमुत्तों की भीड़ में खुल के उगना
इतना आसान नहीं हो पाता है

महीने भर का कूड़ा
कूड़ेदान में ही छोड़ना पड़ जाता है

कई कई दिनों तक मन मसोस कर
बन्द ढक्कन फिर खोला भी नहीं जाता है

दो चार गिनती के पके पकायों को पकाने का शौक
धरा का धरा रह जाता है

कूड़ेदान रखे रास्तों से निकलना कौन चाहता है
रास्ते फूलों से भरे एक नहीं बहुत होते हैं

खुश्बू लिखे से नहीं आती है अलग बात है
खुश्बू सोच लेने में कौन सा किसी की जेब से
कुछ कहीं खर्च हो जाता है

समय समय की बात होती है
कभी खुल के बरसने वाले से निचोड़ कर भी 
कुछ नहीं निकल पाता है

रोज का रोज हिसाब किताब करने वाला
जनवरी के बाद फरवरी निकलता देखता है
सामने ही मार्च के महीने को मुँह खोले हुऐ
सामने से खड़ा हुआ पाता है

कितने आशीर्वाद छिपे होते हैं
कितनी गालियाँ मुँह छुपा रही होती है
शब्दकोष में इतना कुछ है अच्छा है सारा कुछ
सब को हर समय समझ में एकदम से नहीं आ जाता है

चार लाईन लिख कर अधूरा छोड़ देना बहुत अच्छा है
समझने वाला 
पन्ने पर खाली जगह देख कर भी
समझ ले जाता है 

पता नहीं कब समझ में आयेगा उल्लू के पट्ठे ‘उलूक’ को

आदतन कुछ भी नहीं लिखे हुऐ को
खींच तान कर हमेशा
कुछ बन ही जायेगा की समझ लिये हुऐ बेशरम

कई दिनों के सन्नाटे से भी निकलते हुऐ
भौंपू बजाने से बाज नहीं आता है।

चित्र साभार: https://www.clipartmax.com/

बुधवार, 31 अगस्त 2016

मरे घर के मरे लोगों की खबर भी होती है मरी मरी पढ़कर मत बहकाकर

अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
दिख रही थी
घिरी हुई
राष्ट्रीय
खबरों से
सुन्दरी का
ताज पहने हुऐ
मेरे ही घर की
मेरी ही
एक खबर

हंस रही थी
बहुत ही
बेशरम होकर
जैसे मुझे
देख कर
पूरा जोर
लगा कर
खिलखिलाकर

कहीं पीछे के
पन्ने के कोने में
छुप रही थी
बलात्कार की
एक खबर
इसी खबर
को सामने
से देख कर
घबराकर
शरमाकर

घर के लोग सभी
घुसे हुऐ थे घर में
अपने अपने
कमरों के अन्दर
हमेशा की तरह
आदतन
इरादातन
कुंडी बाहर से
बंद करवाकर

चहल पहल
रोज की तरह
थी आँगन में
खिलखिलाते
हुऐ खिल रहे
थे घरेलू फूल
खेल रहे थे
खेलने वाले
कबड्डी
जैसे खेलते
आ रहे थे
कई जमाने से
चड्डी चड़ाये हुए
पायजामों के
ऊपर से
जोर लगाकर
हैयशा हैयशा
चिल्ला चिल्ला कर

खबर के
बलात्कार
की खबर
वो भी जिसे
अपने ही घर
के आदमियों
ने अपने
हिसाब से
किया गया
हो कवर
को भी कौन सा
लेना देना था
किसी से घर पर

‘उलूक’
खबर की भी
होती हैं लाशें
कुछ नहीं
बताती हैं
घर की घर में
ही छोड़ जाती हैं
मरी हुई खबर
को देखकर
इतना तो
समझ ही
लिया कर ।

चित्र साभार: worldartsme.com

गुरुवार, 21 मई 2015

होती है बहुत होती है अंदर ही अंदर किसी को बहुत ही परेशानी होती है


सार्थक लेखन की खोज में
निरर्थक भटकने चले जाना भी 
शायद बुद्धिमानी होती है

बकवास कर रहा होता है बेवकूफ कोई कहीं
पीछा करते हुऐ आदतन खोजना अर्थ उसमें भी 
फिर भी कई सूरमाओं की कहानी होती है

टटोलते हुऐ बिना देखे 
खाली फटेटाट के झोले में हाथ डालकर
हाथ में आई हवा को बाहर निकाल कर
देखने की आदत बहुत पुरानी होती है

पता होता है खिसियाने की जगह समझाने की
कलाकारी उसके बाद ही दिखानी होती है

लिख रहा होता है बकवास 
कह रहा होता है है बकवास 
अपने दिन के हिसाब किताब को 
शाम होते डायरी में छिपाने की बेताबी
‘उलूक’ को इसी तरह बतानी होती है

बैचेनी का आलम इधर हो ना हो 
पता चल जाता है
किसी के लिखने की आदत से 
उस पर ऊपर से अपना दर्द

होती है अंदर ही अंदर 
किसी को बहुत ही परेशानी होती है ।

चित्र साभार: etc.usf.edu