उलूक टाइम्स: पकौड़ी
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सोमवार, 6 जनवरी 2014

वो क्या देश चलायेगा जिसे घर में कोई नहीं सुना रहा है

सुबह सुबह
बहुत देर तक
बहुत कुछ कह
देने के बाद भी
जब पत्नी को
पतिदेव की ओर से
कोई जवाब
नहीं मिल पाया
मायूस होकर उसने
अपनी ननद
की तरफ मुँह
घुमाते हुऐ फरमाया
चले जाना ठीक रहेगा
पूजा घर की तरफ
भगवान के पास जाकर
नहीं सुना है कभी भी
कोई निराश है हो पाया
भगवान भी तो बस
सुनता रहता है
कभी भी कुछ
कहाँ कहता है
बिना कुछ कहे भी
कभी कभी बहुत कुछ
ऐसे ही दे देता है
पतिदेव जो बहुत देर से
कान खुजला रहे थे
बात शुरु होते ही
कान में अँगुली
को ले जा रहे थे
बहुत देर के बाद दिखा
डरे हुऐ से कुछ
नजर नहीं आ रहे थे
कहीं मुहँ के कोने से
धीमे धीमे मुस्कुरा रहे थे
बोले भाग्यवान
कर ही देती हो तुम
कभी ना कभी
सौ बातों की एक बात
जिसका नहीं हो सकता है
मुकाबला किसी के साथ
देख नहीं रही हो
आजकल अपने
ही आसपास
सब भगवान का
दिया लिया ही तो
नजर आ रहा है
सारे बंदर लिये
फिर रहे हैं अदरख
अपने अपने हाथों में
मदारी कहीं भी
नजर नहीं आ रहा है
तुझे भी कोशिश
करनी चाहिये
भगवान से
ये सब कुछ कहने की
भगवान आजकल
बिना सोचे समझे
किसी को भी
कुछ ना कुछ
दिये जा रहा है
जितना नालायक
सिद्ध कर सकता है
कोई अपने आप को
आजकल के समय में
उतनी बड़ी जिम्मेदारी
का भार उठा रहा है
सब तेरे भगवान
की ही कृपा है
अनाड़ियों से बनवाई
गयी पकौड़ियों को
सारे खिलाड़ियों को
खाने को मजबूर
किया जा रहा है
वाकई जय हो
तेरे भगवान जी की
कुछ करे ना करे
झंडे डंडो में बैठ कर
चुनावों में कूदने
के लिये तो
बड़ा आ रहा है
पति भी होते हैं
कुछ उसके जैसे
उन्ही को बस
पति परमेश्वर
कहा जा रहा है
बहुत ज्यादा
फर्क नहीं है
कहने सुनने में
तेरी मजबूरी है
कहते चले जाना
कोई नहीं सुन
पा रहा है
पति भी भेज रहा है
चिट्ठियाँ डाक से
इधर उधर तब से
डाकिया लैटर बाक्स
खोलने के लिये ही
नहीं आ रहा है ।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पकौड़ी


दर्द जब होता है हर कोई दवाई खाता है
तुझे क्या ऎसा होता है कलम उठाता है ।

रोशनी के साथ मिलकर ही इंद्रधनुष बनाता है
अंधेरे में आँसू भी हो तो पानी हो जाता है ।

सपना देखता है एक तलवार चलाता है
लाल रंग की स्याही देखते ही डर जाता है ।

सोच को चील बना ऊँचाई पर ले जाता है
ख्वाब चीटियों से भरा देख कर मुर्झाता है ।

हुस्न और इश्क की कहानी बहुत सुनाता है
अपनी कहानी मगर हमेशा भूल जाता है ।

बहुत सोचने समझने के बाद समझाता है
समझने वाला हिसाब लेकिन खुद लगाता है ।

दुखी होता है जब जंगल निकल जाता है
डाल पर उल्लुओं को देख कर मुस्कुराता है ।

रोज का रोज मान लिया जलेबी बनाता है
पकौड़ी बन गई कभी किसी का क्या जाता है ।
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जलेबी तो हो गयी पकौड़ी अब इस पर 
रविकर जी की टिप्पणी का मजा लीजिये




रोज जलेबी खा रहा, हो जाता मधुमेह |
इसीलिए दिखला रहा, आज पकौड़ी नेह |

आज पकौड़ी नेह, खूब चटकारे मारे |
लेता जम के खाय, रात बार बड़ा डकारे |

सके न चूरन फांक, जगह जो पूरी फुल है |
बैठा जाके शाख, यही तो इसका हल है ||
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चित्र साभार: peurecipes.blogspot.com