उलूक टाइम्स: फर्क
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बुधवार, 8 जनवरी 2014

समझ में कहाँ आता है जब मरने मरने में फर्क हो जाता है

एक आदमी के
मरने की खबर
और एक औरत
के मरने की खबर
अलग अलग खबरें
क्यों और कैसे
हो जाती होंगी
मौत तो बस
मौत होती है
कभी भी अच्छी
कहाँ होती है
चाहे पूरी उम्र
में होती है
या कभी थोड़ी
जल्दी में होती है
कभी कहीं एक
आदमी मर जाता है
मातम पसरा सा
नहीं दिख पाता है
कुछ कुछ सुकून
सा तक नजर
कहीं कहीं आता है
फुसफुसाते हुऐ एक
कह ही जाता है
ठीक ही हुआ
बीबी और बच्चों
के हक में हुआ
जो हुआ जैसा हुआ
अब ये क्या हुआ
उधर एक औरत
मर जाती है
बूढ़ी भी नहीं
हो पाती है
मातम चारों ओर
पसर जाता है
हर कोई कहता
नजर आता है
बहुत बुरा हो गया
बच्चों का आसरा
ही देखिये छिन गया
ऐसा हर जगह हो
जरूरी नहीं होता है
पर जहाँ होता है
कुछ कुछ इसी
तरह का होता है
“उलूक” के
दिमाग का बल्ब
जब कभी इस तरह
फ्यूज हो जाता है
घर का “गूगल”
सरल शब्दों में
उसे समझाता है
जो आदमी मरा
अपने कर्मो से मरा
बुरा हुआ पर
उसका दोष बस
उसको ही जाता है
और जो औरत
मरी वो भी
आदमी के ही
कर्मों से मरी
उसका दोष भी
आदमी को ही
दिया जाता है
आदमी के और
औरत के मरने में
बस यही फर्क
हो जाता है
अब मत कहना
बस यही तो
समझ में नहीं
आ पाता है ।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अपने कैलेंडर में देख अपनी तारीख उसके कैलेंडर में कुछ नया नहीं होने वाला है

रोज एक कैलेंडर
नई तारीख का
ला कर यहां लटका
देने से क्या कुछ
नया होने वाला है
सब अपने अपने
कैलेंडर और तारीख
लेकर अपने साथ
चलने लगे हैं आजकल
उस जगह पर तेरे
कैलेंडर को कौन देखेने
आने वाला है
अब तू कहेगा तुझे
एक आदत हो गई है
अच्छी हो या खराब
किसी को इससे
कौन सा फर्क जो
पड़ने वाला है
परेशानी इस बात
की भी नहीं है
कहीं कोई कह रहा हो
दीवार पर नये साल पर
नया रंग होने वाला है
जगह खाली पड़ी है
और बहुत पड़ी है
इधर से लेकर उधर तक
जहां जो मन करे जब करे
लटकाता कोई दूर तक
अगर चले भी जाने वाला है
सबके पास हैं बहुत हैं
हर कोई कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं पर
ला ला कर
लटकाने वाला है
फुरसत नहीं है किसी को
जब जरा सा भी कहीं
देखने कोई किसी और का
कैलेंडर फिर क्यों कहीं
को जाने वाला है
अपनी तारीख भी तो
उसी दिन की होती है
जिस दिन का वो एक
कैलेंडर ला कर यहां
लटकाने वाला है
मुझे है मतलब पर
बस उसी से है जो
मेरे कैलेंडर की तारीख
देख कर अपना दिन
शुरु करने वाला है |

गुरुवार, 22 मार्च 2012

चेहरे


चेहरे दर चेहरे
कुछ
लाल होते हैं
कुछ होते हैं
हरे

कुछ
बदलते हैं 
मौसम के साथ

बारिश में 
होते हैं
गीले
धूप में हो 
जाते हैं
पीले

चेहरे चेहरे 
देखते हैं

छिपते हुवे
चेहरे
पिटते हुवे
चेहरे

चेहरों
को कोई 
फर्क पढ़ना 
मुझे नजर 
नहीं आता है

मेरा चेहरा 
वैसे भी 
चेहरों को 
नहीं भाता है

चेहरा शीशा 
हो जाता है 

चेहरा
चेहरे को 
देखता तो है
चेहरे में चेहरा 
दिखाई दे जाता है

चेहरे
को चेहरा 
नजर नहीं आता है
चेहरा अपना 
चेहरा देख कर
ही
मुस्कुराता है 
खुश हो जाता है

सबके 
अपने अपने 
चेहरे हो जाते हैं

चेहरे
किसी के
चेहरे को 
देखना कहाँ 
चाहते हैं

चेहरे बदल 
रहे हैं रंग 
किसी 
को दिखाई 
नहीं देते हैं

चेहरे
चेहरे को 
देखते जा रहे हैं
चेहरे अपनी 
घुटन मिटा रहे हैं

चेहरे
चेहरे को 
नहीं देख पा रहे हैं
चेहरे पकड़े 
नहीं जा रहे हैं
चेहरे चेहरे 
को
भुना रहे हैं

चेहरे दर चेहरे
कुछ
लाल होते हैं
कुछ होते हैं
हरे

कुछ
बदलते हैं 
मौसम के साथ

बारिश में 
होते हैं गीले
धूप में हो 
जाते हैं पीले।