उलूक टाइम्स: पर्दा
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बुधवार, 3 नवंबर 2021

दिया एक जलाता है दीपावली भी मनाता है रोशनी की बात सबसे ज्यादा किया करता है रोशनी खुद की बनाने में मरा आदमी

 

मरने की बात अपनी सुनकर
बहुत डरा करता है आदमी
खुद के गुजरने की बात भूलकर भी
नहीं करा करता है आदमी

दो बाँस चार कँधे लाल सफेद कपडे‌
कहीं भी जमा नहीं करा करता है आदमी
अजीब चीजें इकट्ठा करता हुआ एक ही जीवन में
कई बार मरा करता है आदमी

देखना सुनना फिर कहना देखा सुना
अपनी फितरत से जरा करता है आदमी
कान आँख जुबाँ हर आदमी की अलग होती हैं
साबित करा करता है आदमी

रोज मरना कई बार मरना और फिर इसी मरने को अन्देखा
हमेशा करा करता है आदमी
इसके मरने को उसने देखा उसके मरने को इस ने देखा
बस खुद अपने मरने पर पर्दा करा करता है आदमी

दिया एक जलाता है दीपावली भी मनाता है
रोशनी की बात सबसे ज्यादा किया करता है
रोशनी खुद की बनाने में मरा आदमी

किसलिये माँगते हो ‘उलूक’ से जिंदा आदमी होने का एक सबूत
इतना मरता है
मरते मरते मरा करता है
उसका मरना ही उसके जिंदा होने का है सबूत
हर समय दिया करता है आदमी
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

रविवार, 21 जून 2015

नाटक कर पर्दे में उछाल खुद ही बजा अपने ही गाल

कुछ भी
संभव
हो सकता  है

ऐसा
कभी कभी
महसूस होता है

जब दिखता है

नाटक
करने वालों
और दर्शकों
के बीच में

कोई भी

पर्दा
ना उठाने
के लिये होता है
ना ही गिराने
के लिये होता है

नाटक
करने वाले
के पास बहुत सी
शर्म होती है

दर्शक
सामने वाला
पूरा बेशर्म होता है

नाटक
करने भी
नहीं जाता है

बस दूर से
खड़ा खड़ा
देख रहा होता है

वैसे तो
पूरी दुनियाँ ही
एक नौटंकी होती है

नाटक
करने कराने
के लिये ही
बनी होती है

लिखने लिखाने
करने कराने वाला
ऊपर कहीं
बैठा होता है

नाटक
कम्पनी का
लेकिन अपना ही
ठेका होता है

ठेकेदार
के नीचे
किटकिनदार होते हैं

किटकिनदार
करने कराने
के लिये पूरा ही
जिम्मेदार होते हैं

‘उलूक’
कानी आँखों से
रात के अंधेरे
से पहले के
धुंधलके में
रोशनी समेट
रहा होता है

दर्शकों
में से कुछ
बेवकूफों को
नाटक के
बीच में कूदते हुऐ
देख रहा होता है

कम्पनी के
नाटककार
खिलखिला
रहे होते हैं

अपने लिये
खुद ही तालियाँ
बजा रहे होते हैं

बाकी फालतू
के दर्शकों
के बीच से
पहुँच गये
नाटक में
भाग लेने
गये हुऐ
नाटक कर
रहे होते हैं

साथ में
मुफ्त में
गालियाँ खा
रहे होते हैं
गाल
बजाने वाले
अपने गाल
खुद ही
बजा रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.india-forums.com

मंगलवार, 4 मार्च 2014

तेरी कहानी का होगा ये फैसला नही था कुछ पता इधर भी और उधर भी

वो जमाना
नहीं रहा
जब उलझ
जाते थे
एक छोटी सी
कहानी में ही
अब तो
कितनी गीताऐं
कितनी सीताऐं
कितने राम
सरे आम
देखते हैं
रोज का रोज
इधर भी
और उधर भी
पर्दा गिरेगा
इतनी जल्दी
सोचा भी नहीं था
अच्छा किया
अपने आप
बोल दिया उसने
अपना ही था
अपना ही है
सिर पर हाथ रख
कर बहुत आसानी से
उधर भी और इधर भी
हर कहाँनी
सिखाती है
कुछ ना कुछ
कहा जाता रहा है
देखने वाले का
नजरिया देखना
ज्यादा जरूरी होता है
सुना जाता है
उधर भी और इधर भी
कितना अच्छा हुआ
मेले में बिछुड़ा हुआ
कोई जैसे बहुत दूर से
आकर बस यूँ ही मिला
दूरबीन लगा कर
देखने वालों को
मगर कुछ भी
ना मिला देखने
को सिलसिला कुछ
इस तरह का
जब चल पड़ा
इधर भी और उधर भी
उसको भी पता था
इसको भी पता था
हमको भी पता था
होने वाला है
यही सब जा कर अंतत:
इधर भी और उधर भी
रह गया तो बस
केवल इतना गिला
देखा तुझे ही क्योंकर
इस तरह सबने
इतनी देर में जाकर
तीरंदाज मेरे घर में
भी थे तेरे जैसे कई
इधर भी और उधर भी
खुल गया सब कुछ
बहुत आसानी से
चलो इस बार
अगली बार रहे
ध्यान इतना
देखना है सब कुछ
सजग होकर तुझे
इधर भी और उधर भी ।