वो कहते हैं
तुम्हारी खींची लकीरों के
ना तो सिरे होते हैं ना होती है पूंछ
कोई क्या मतलब निकाले
कुछ निकलता ही नहीं
शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ
शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ
आंखों के परदों पर जमने लगती है हरी बूंद
हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है
दिखने भर की हरी दिखती है
सावन के हरे को खा जाती है
वो भी हरा दिखाता है
हरे भरे से सबको भरमाता है
कौन देखता है उसको कौन सोचता है उसको
उसके हरे के भरे से मन भरता है भरता जाता है
मन भरता जाता है
इतना भरता है कि बहने लगता है हरा हरा
भरे की बाढ़ आ जाती है
हरे की पांचों अगुलियां घी में होती हैं
कढ़ाई लबालब लेती है सारा हरा तुम्हारा चूस
लेती है हरा तुम्हारा चूस मजा तुमको भी आता है
सारी दुनियां एक तरफ हो जाती है
हरा फेंकने वाला हर हरे में छा जाता है
हरा लीलता है भरे को पता जब तक चलता है
हरा खुद नौ दो ग्यारह हो जाता है दबा कर पूँछ
समझ में नहीं आ रही है लकीर कहता हुआ
लकीर कोई पीट ले जाता है
लकीर को पीट ले जाता है फकीर बहुत याद आता है
हरा फेंकने वाला दिमागों दर शरीर छा जाता है
‘उलूक’ छोड़ता नहीं है लकीरें खींचना खीचता जाता है
फकीर लगा रहता है पीटने में लकीरें
उस तरफ देखना किसने है
देश सामने से आ आंखों में छा जाता है |
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/
‘उलूक’
जवाब देंहटाएंछोड़ता नहीं है
लकीरें खींचना
खीचता ही चला जाता है ..
और जाता ही रहेगा
अंत में पापड़ में जन जाता है
आनन्द करें
वंदन
उलूक को छोड़ना भी नहीं चाहिए लकीरें खींचना।
जवाब देंहटाएंप्रणाम सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बेहतरीन रचना 🙏
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह उत्कृष्ट रचनाएं जो प्रेरित करती हैं लिखने के लिए । अभिनंदन सह 🙏
जवाब देंहटाएंभरते भरते मन बह जाता है ... बाढ़ आ जाती है क्या बात ...
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंहरा लीलता है भरे को पता जब तक चलता है
जवाब देंहटाएंहरा खुद नौ दो ग्यारह हो जाता है दबा कर पूँछ
–सच्ची भावाभिव्यक्ति