उलूक टाइम्स: हरा
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मंगलवार, 12 अगस्त 2025

जंगल की बात कर दिखा चारों तरफ सारा हरा हरा


सोच कर के लिख कुछ
कुछ लिख कर के सोच
सिक्का उछाल
हवा में रोज का रोज
चित भी तेरी पट भी तेरी
किसे देखना है
किसे है कुछ होश
खड़ा हो जाए अगर
दे डाल एक भोज
दे डाल एक भोज
अखबार में सिक्का जरूर छपवा
परदे के पीछे हो चुके अनर्थ को
मिट्टी डाल ले दे के पीछा छुड़ा
ले दे के पीछा छुड़ा
बर्बाद कर खुद ही घर को जरा जरा
खीसें निपोर रोज सुबह शाम को मुस्कुरा
जंगल की बात कर दिखा चारों तरफ सारा हरा हरा
पूछे कोई कुछ
आंखें लाल कर नस दबा
मोगेमबो की फ़ोटो दिखा और डरा
‘उलूक’ कथा “नौ महीने”
पटाक्षेप सुनहरा
सूंघे पत्रकार खबर फैली हुई
जो हो गया उस पर तिरंगा लहरा |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

वैधानिक चेतावनी : सत्य कथा पर आधारित बकवास में पात्रों का जिक्र नहीं किया गया है |




बुधवार, 23 जुलाई 2025

हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है

वो कहते हैं
तुम्हारी खींची लकीरों के
ना तो सिरे होते हैं ना होती है पूंछ
कोई क्या मतलब निकाले
कुछ निकलता ही नहीं
शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ

शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ
आंखों के परदों पर जमने लगती है हरी बूंद
हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है
दिखने भर की हरी दिखती है
सावन के हरे को खा जाती है

वो भी हरा दिखाता है
हरे भरे से सबको भरमाता है 
कौन देखता है उसको कौन सोचता है उसको
उसके हरे के भरे से मन भरता है भरता  जाता है

मन भरता जाता है
इतना भरता  है कि बहने लगता है हरा हरा 
भरे की बाढ़ आ जाती है 
हरे की पांचों अगुलियां घी में होती हैं 
कढ़ाई लबालब लेती है सारा हरा तुम्हारा चूस

लेती है हरा तुम्हारा चूस मजा तुमको भी आता है
सारी दुनियां एक तरफ हो जाती है
हरा फेंकने वाला हर हरे में छा जाता है
हरा लीलता है भरे को पता जब तक चलता है
हरा खुद नौ दो ग्यारह हो जाता है दबा कर पूँछ 

समझ में नहीं आ रही है लकीर कहता हुआ
लकीर कोई पीट ले जाता है
लकीर को पीट ले जाता है फकीर बहुत याद आता है 
हरा फेंकने वाला  दिमागों दर शरीर छा जाता है

‘उलूक’ छोड़ता नहीं है लकीरें खींचना खीचता जाता है
फकीर लगा रहता है पीटने में लकीरें
उस तरफ देखना किसने है
देश सामने से आ आंखों में छा जाता है |

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

सोमवार, 23 मई 2016

लिखना हवा से हवा में हवा भी कभी सीख ही लेना

कफन
मरने के
बाद ही
खरीदे
कोई

मरने
वाले के लिये
अच्छा है

सिला सिलाया
मलमल का
खूबसूरत सा
खुद पहले से
खरीद लेना

जरूरी है
थोड़ा सा कुछ
सम्भाल कर
जेब में उधर
ऊपर के लिये
भी रख लेना

सब कुछ इधर
का इधर ही
निगल लेने से
भी कुछ नहीं होना

अंदाज आ ही
जाना है तब तक
पूरा नहीं भी तो
कुछ कुछ ही सही
यहाँ कितना कुछ
क्या क्या
और किसका
सभी कुछ
है हो लेना

रेवड़ियाँ होती
ही हैं हमेशा से
बटने के लिये
हर जगह ही

अंधों के
बीच में ही
खबर होती
ही है

अंधों के
अखबारों में
अंधों के लिये ही

आँख वालों
को इसमें
भी आता है
ना जाने
किसलिये इतना
बिलखना रोना

लिखने वाले
लिख गये हैं
टुकडे‌ टुकड़े में
पूरा का पूरा
आधे आधे का
अधूरा भी
हिसाब सारा
सब कुछ कबीर
के जमाने से ही

कभी तो माना
कर जमाने के
उसूलों को
‘उलूक’

किसी एक
पन्ने में पूरा
ताड़ का पेड़
लिख लेने से
सब कुछ
हरा हरा
नहीं होना ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

सावन गुजरा इक्कीस इक्यावन ऐक सौ एक होते होते हो गये ग्यारा सौ हरा था सब कुछ हरा ही रहा

सावन निकल गया 
कुछ नया नहीं हुआ 

पहले भी सारा 
हरा हरा ही नजर आया है

अब तो
हरा जो है 
और भी हरा हरा हो गया है

किससे कहूँ किसको बताऊँ 
हरा कोई नहीं देखता है
हरे की जरूरत भी किसी को नहीं है 
ना ही जरूरत है सावन की 

मेरे शहर में 
जमाने गये बहुत से लोग हुऐ 
हाय 
उस समय सोचा भी नहीं 

किसी ने बहुत जोर देकर 
हरे को हरा ही कहा 
एक दिन नहीं कई बार कहा 
यहाँ तक कहा हरा 
कि 
सारे लोगों ने उसे पागल कह दिया 

होते होते 
सारा सब कुछ हरा हरा हो गया 
एक नहीं दो नहीं पूरा शहर ही 
पागलों का हो गया 

ऐसा भी क्या हरा हुआ 
हरा भरा शहर 
बचपन से हरा होता हुआ 
देखते देखते सब कुछ हरा हो गया 
लोग हरे सोच हरी आत्मा हरी 
और क्या बताऊँ 
जो हरा नहीं भी था 
वो सब कुछ हरा हो गया 

इस सारे हरे के बीच में 
जब ढूँढने की कोशिश की
सावन के बाद 

बस
जो नहीं बचा था 
वो ‘उलूक’ का हरा था

हरा
नजर आया ही नहीं 
हरे के बीच में 
हरा ही खो गया । 

चित्र साभार: www.vectors4all.net

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

सर्वगुण संपन्न की मोहर लगवा कोई नहीं देखेगा हरा है या भगवा

क्रिकेट हो फुटबाल हो
बैडमिंटन हो
या किसी और तरीके का खेल हो

साँस्कृतिक कार्यक्रमों की पेलम पेल हो

टीका हो या चंदन हो
नेता जी का अभिनन्दन हो

सभी जगह पर
'सर्वगुण संपन्न' की मोहर
माथे पर लगे हुओं को ही मौका दिया जाता है
आता है या नहीं आता है ये सोचा ही नहीं जाता है

ये मोहर भी
कोई विश्वासपात्र ही बना पाता है

कुछ खास जगहों पर
खास चेहरों के सिर पर ही
सेहरा बाँधा जाता है

खासियत की परिभाषा में
जाति धर्म राजनीतिक कर्म तक
कहीं टांग नहीं अपनी अढ़ाता है

सामने वाला
कुछ कर पाता है या नहीं कर पाता है

ये सवाल तो
उसी  समय गौंण हो जाता है
जिस समय से किसी को
बेवकूफों की श्रेणी में डालकर
सीलबंद हमेशा के लिये
करने का ठान लिया जाता है

यही सबको बताया भी जाता है

इसी बात को फैलाया भी जाता है

पूरी तरह से
मैदान से किसी का
डब्बा गोल करने का
जब सोच ही लिया जाता है

क्या करें
ये सब मजबूरी में ही किया जाता है

एक जवान होते हुऎ
शेर को देखकर ही तो
जंगल के सारे कमजोर कुत्तो से
एक हुआ जाता है

बेवकूफ की
मोहर लगा वही शख्स
रक्तदान के कार्यक्रम की
जिम्मेदारी
जरूर पा जाता है
सबसे पहले अपना रक्त
देने से भी नहीं कतराता है

समझदारों में से एक
समझदार
उसी रक्त का मूल्य
अपनी जेब में रखकर
कहीं पीछे के दरवाजे से
निकल जाता है

सफलता के ये सारे पाठों को
जो आत्मसात नहीं कर पाता है

भगवान भी उसके लिये
कुछ नहीं कर पाता है ।