उलूक टाइम्स: अंदाज
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शनिवार, 5 दिसंबर 2015

आती ठंड के साथ सिकुड़ती सोच ने सिकुड़न को दूर तक फैलाया पता नहीं चल पाया


दिसम्बर शुरु हो चुका
ठंड के बढ़ते पैरों ने शुरु कर दिया घेरना
अंदर की थोड़ी बहुत बची हुई गरमी को

नरमी भी जरूर हुआ करती होगी
साथ में उसके कभी निश्चित तौर पर सौ आने 
उसका बहक जाना गायब हो जाना
भी हुआ होगा कभी पता नहीं चल पाया

जिंदगी की सिकुड़ती फटती चादर
कभी ऊपर से खिसक कर सिर से उतरती रही
कभी आँखों के ऊपर अंधेरा करते हुऐ
नीचे से नंगा करती रही
पता चला भी तब भी कुछ नहीं हो पाया

जो समझाया गया
उसके भी समझ में आते आते
ये भी मालूम नहीं चल पाया
दिमाग कब अपनी जगह को छोड़ कर
कहीं किसी और जगह ठौर ठिकाना
ढूँढने को निकल गया फिर लौट कर भी नहीं आ पाया

अपनापन अपनों का
दिखने में आता अच्छी तरह से जब तक
साफ सुथरे पानी के नीचे तली पर कहीं
पास में ही बहती हुई नदी में
तालाब में बहुत सारी आटे की गोलियों के पीछे
भागती मछलियों के झुंड की तरह

पत्थर मार कर पानी में लहरेंं उठाता हुआ
एक बच्चा बगल से खिलखिलाता हुआ निकल भागा 
धुँधलाता हुआ सब कुछ
उतरता चढ़ता पानी जैसा ही कुछ हो आया

चिढ़ना चाह कर भी चिढ़ नहीं पाया
हमेशा की तरह कुछ झल्लाया कुछ खिसियाया
जिंदगी ने समझा कुछ
‘उलूक’ के उल्लूपन को
कुछ उल्लूपने ने जिंदगी के
बनते बिगड़ते सूत्रों का राज
जिंदगी को बेवकूफी से ही सही
बहुत अच्छी तरह से समझाया

जो है सो है
कुछ उसने उसमें इसका जोड़ कर उसे ऊपर किया
कुछ इसने इसमें से उसका  घटा कर कुछ नीचे गिराया

ठंड का बढ़ना जारी रहा
बहुत कुछ सिकुड़ा सिकुड़ता रहा
सिकुड़ती सोच ने सिकुड़ते हुऐ
सब कुछ को कुछ भारी शब्दों से बेशरमी से दबाया

बहुत कुछ दिखा नजर आया महसूस हुआ
सिकुड़न ने पूरी फैल कर
हर कोने हर जर्रे पर जा अपना जाल फैलाया
जरा सा भी पता नहीं चल पाया
अंदाज आया भी अंदाज नहीं भी आ पाया ।

चित्र साभार: www.toonvectors.com

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नये साल आना ही है तुझको मुझसे बुलाया नहीं जा रहा है

सोच कुछ और है
लिखा कुछ अलग
ही जा रहा है
हिम्मत ही नहीं
हो रही है कुछ भी
नहीं कहा जा रहा है
केजरीवाल बनने की
कोशिश करना
बहुत महंगा
पड़ता जा रहा है
आम आदमी की
टोपी वाला कोई
भी साथ देने
नहीं आ रहा है
ऐसा ही कुछ अंदाज
पता नहीं क्यों
आ रहा है
ऐसा नहीं है
मैं एक
चोर नहीं हूँ
कह देना
मान लेना
बस इतनी ही
हिम्मत जुटाना
नहीं हो
पा रहा है
कह दिया जाये
यहाँ क्या
हो रहा है
और क्या
बताया
जा रहा है
किसी को
क्या नजर
आ रहा है
कहाँ पता
चल पा रहा है
मुझे जो
दिख रहा है
उसे कैसे नजर
नहीं आ रहा है
बस यही
समझ में
नहीं आ
पा रहा है
कुत्ते की
फोटो दिखा
दिखा कर
शेर कह दिया
जा रहा है
कुत्ता ही है
जो जंगल को
चला रहा है
बस मुझे ही
दिख रहा है
किसी और को
नजर नहीं आ
पा रहा है
हो सकता है
मोतिया बिंद
मेरी आँख में
होने जा रहा है
सफेद पोश होने
का सुना है एक
परमिट अब
दिया जा रहा है
कुछ ले दे के
ले ले अभी भी
नहीं तो अंदर
कर दिया
जा रहा है
है बहुत कुछ
उबलता हुआ
सा कुछ
लिखना भी
चाह कर
नहीं लिखा
जा रहा है
नये साल में
नया एक
करिश्मा
दिखे कुछ
कहीं पर
सोचना चाह
कर भी
नहीं सोच
पा रहा है
साल के
अंतिम दिन
'उलूक'
लगता है
खुद शिव
बनना चाह
रहा है
थर्टी फर्स्ट
के दिन
बस दो पैग
पी कर ही
जो लुढ़क
जा रहा है ।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

बेबस पेड़

एक झंडा एक भीड़
बेतरतीब होते हुऎ
भी परिभाषित
दे देती है अंदाज
चाहे थोड़ा ही
अपने रास्ते का
अपनी सीमा का
यहाँ तक अपनी
गुंडई का भी
दूसरी भीड़
एक दूसरा झंडा
सब कुछ तरतीब से
कदमताल करते हुऎ
मोती जैसे गुंथे हों
माला में किसी
परिभाषित नजर
तो आती है पर
होती नहीं है
यहां तक कि
अपराध करने का
अंदाज भी होता है
बहुत ही सूफियाना
दोनो भीड़ होती हैं
एक ही पेड़
की पत्तियाँ
बदल देने पर
झंडे के रंग और
काम करने के
ढंग के बावजूद
भी प्रदर्शित
कर जाती हैं
कहीं ना
कहीं चरित्र
बेबस पेड़
बस देखता
रह जाता है
अपनी ही
पत्तियों को
गिरते गिरते
बदलते हुऎ
रंग अपना
पतझड़ में ।

बुधवार, 4 जुलाई 2012

आदमखोर

ऎसा कहा जाता है
जब शेर के मुँह में
आदमी का खून
लग जाता है
उसके बाद वो
किसी जानवर को
नहीं खाता है
आदमी का शिकार
करने के लिये
शहर की ओर
चला आता है
आदमखोर हो गया है
बताया जाता है
जानवर खाता है
तब भी शेर
कहलाता है
आदमी खाने
के बाद भी
शेर ही रह जाता है
इस बात से
इतना तो पता
चल जाता है
कि आदमी बहुत
शातिर होता है
उसका आदमीपन
उसके खून में
नहीं बहता है
बहता होता तो
शेर से पता
चल ही जाता
आदमी को
खाने के बाद
शेर शर्तिया कुछ
और हो जाता
और आदमी
वाकई में एक
गजब की चीज
ना नाखून लगाता है
ना चीरा लगाता है
खाता पीता भी नजर
कहीं से नहीं आता है
सामने खड़े हुऎ को
बहुत देर में अंदाज
ये आ पाता है
कोई उसका खून
चूस ले जाता है
कोई निशान कोई
सबूत किसी को कहीं
नहीं मिल पाता है
उधर आदमखोर शेर
शिकारियों के द्वारा
जंगल के अंदर
उसके ही घर में
गिरा दिया जाता है।

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

बातें ही बातें

लिख लिख
कर अपनी
बातों को
अपने से ही
बातें करता हूँ

फिर
दिन भर पन्ना
खोल खोल
कई कई बार
पढ़ा करता हूँ

मेरी बातों
को लेकर
वो सब भी
बातेंं करते हैं

मैं बातेंं ही
करता रहता हूँ
बातों बातों
में कहते
रहते हैं

इन सारी
बातों की
बातों से
एक बात
निकल कर
आती है

बातें
करने का
अंदाज किसी का
किसी किसी
की आँखों में
चुभ जाती है

कोई कर भी
क्या सकता है
इन सब बातों का

वो सीधे कुछ
कर जाते हैं
वो बातें कहाँ
बनाते हैं

मैं कुछ भी
नहीं कर
पाता हूँ
बस केवल
बात बनाता हूँ

फिर
अपनी ही
सारी बातों को
मन ही मन
पढ़ पाता हूँ

फिर
लिख पाता हूँ
कुछ बातें

कुछ बातें
लिख लिख
जाता हूँ

कुछ
लिखने में
सकुचाता हूँ

बस अपने से
बातें करता हूँ

बातों की बात
बनाता हूँ

बस बातें ही
कर पाता हूँ।