उलूक टाइम्स: ठंड
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सोमवार, 22 अक्टूबर 2018

बकवास करना भी कभी एक नशा हो जाता है अपने लिखे को खुद ही पढ़ कर अन्दाज कहाँ आता है



कहावतें भी समय के साथ बह जाती हैं 
चिंता चिता के समान होती होंगी कभी 
अब मगर चितायें भी बहा ले जायी जाती हैं 

लकड़ियाँ रह भी गयी अगर जलाती नहीं है 
बस थोड़ा थोड़ा सा सुलगाती हैं 

इसलिये लगा रह चिंता कर 
लेकिन कभी कभी बकवास भी पढ़ लिया कर 

अंगरेजी में कहते हैं फॉर ए चेंज 

बकवास लिखने के कई फायदे जरूर हैं 
फिर भी बकवास लिखने के कायदे भी
कुछ हजूर हैं 

कभी कोशिश कर के देख ले लिखने की 
कोई भी बकवास 
देख कर समझ कर कुछ भी 
अपने ही अगल बगल अपने ही आसपास

बकवास कभी इतिहास नहीं हो पाती है 
ध्यान रहे एक दिन के बाद 
दूसरे दिन साँस भी नहीं ले पाती है 

कोई देखने नहीं आता है 
कोई नहीं 
हाँ तो मतलब देखना पड़ता है जो किया जाता है 
उसको कितनों के द्वारा नजर के दायरे में लिया जाता है 

सोचो जरा 
कूड़े के ढेर में कौन कौन सा 
किस प्रकार का कैसा कैसा कूड़ा गेरा गया है 
कौन इतना ध्यान लगाता है 

सारा मिलमिला कर सब एक जैसा 
सार्वभौमिक हो जाता है 
एक तरह से ईश्वरीय हो जाता है 
सर्वव्यापी क्या होता है महसूस करा जाता है 

अब सब लोग कूड़ा क्यों देखेंगे भला 
अच्छा भी तो बहुत सारा होता है 
जिस पर सबका हिस्सा माना जाता है 

और जो मिलजुल कर साथ साथ 
कूड़े को पाँव के नीचे दबाकर 
उँचे स्वर में गाया जाता है 

दुर्गंध क्या होती है 
जब सड़ाँध है को होने के बावजूद 
सर्वसम्मति से नकार दिया जाता है 
मतलब इस सब के बीच कोई लिखने में लग जाता है 

ऊल जलूल लिखा हुआ किसी को 
कविता कहानी जैसा नजर आना शुरु हो जाता है 

क्या किया जाये 
अंधा लूला लंगड़ा काना 
किस दिशा में किस चीज में रंगत देख ले जाये 
कौन बता पाता है 

अब ‘उलूक’ इस सब के बीच 
बकवास करने के धंधें में कब पारंगत हो जाता है 

उसे भी तब अन्दाज आता है 
जब कोई कहना शुरु कर देता है 

अबे तू किसलिये फटे में टाँग अड़ा कर 
इतना खिलखिलाता है 

सार ये है कि 
ठंड रखना सबसे अच्छा हथियार माना जाता है 

कुछ दिन चला कर देख ले 
कितना मजा आता है ।

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कुरेदना राख को उसका
देखिये जनाब बबाल कर गया 
आग बैठी देखती रह गयी बहुत दूर से
कमाल कर गया ।
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चित्र साभार: http://www.i2clipart.com

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

आती ठंड के साथ सिकुड़ती सोच ने सिकुड़न को दूर तक फैलाया पता नहीं चल पाया


दिसम्बर शुरु हो चुका
ठंड के बढ़ते पैरों ने शुरु कर दिया घेरना
अंदर की थोड़ी बहुत बची हुई गरमी को

नरमी भी जरूर हुआ करती होगी
साथ में उसके कभी निश्चित तौर पर सौ आने 
उसका बहक जाना गायब हो जाना
भी हुआ होगा कभी पता नहीं चल पाया

जिंदगी की सिकुड़ती फटती चादर
कभी ऊपर से खिसक कर सिर से उतरती रही
कभी आँखों के ऊपर अंधेरा करते हुऐ
नीचे से नंगा करती रही
पता चला भी तब भी कुछ नहीं हो पाया

जो समझाया गया
उसके भी समझ में आते आते
ये भी मालूम नहीं चल पाया
दिमाग कब अपनी जगह को छोड़ कर
कहीं किसी और जगह ठौर ठिकाना
ढूँढने को निकल गया फिर लौट कर भी नहीं आ पाया

अपनापन अपनों का
दिखने में आता अच्छी तरह से जब तक
साफ सुथरे पानी के नीचे तली पर कहीं
पास में ही बहती हुई नदी में
तालाब में बहुत सारी आटे की गोलियों के पीछे
भागती मछलियों के झुंड की तरह

पत्थर मार कर पानी में लहरेंं उठाता हुआ
एक बच्चा बगल से खिलखिलाता हुआ निकल भागा 
धुँधलाता हुआ सब कुछ
उतरता चढ़ता पानी जैसा ही कुछ हो आया

चिढ़ना चाह कर भी चिढ़ नहीं पाया
हमेशा की तरह कुछ झल्लाया कुछ खिसियाया
जिंदगी ने समझा कुछ
‘उलूक’ के उल्लूपन को
कुछ उल्लूपने ने जिंदगी के
बनते बिगड़ते सूत्रों का राज
जिंदगी को बेवकूफी से ही सही
बहुत अच्छी तरह से समझाया

जो है सो है
कुछ उसने उसमें इसका जोड़ कर उसे ऊपर किया
कुछ इसने इसमें से उसका  घटा कर कुछ नीचे गिराया

ठंड का बढ़ना जारी रहा
बहुत कुछ सिकुड़ा सिकुड़ता रहा
सिकुड़ती सोच ने सिकुड़ते हुऐ
सब कुछ को कुछ भारी शब्दों से बेशरमी से दबाया

बहुत कुछ दिखा नजर आया महसूस हुआ
सिकुड़न ने पूरी फैल कर
हर कोने हर जर्रे पर जा अपना जाल फैलाया
जरा सा भी पता नहीं चल पाया
अंदाज आया भी अंदाज नहीं भी आ पाया ।

चित्र साभार: www.toonvectors.com

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

आज यानी अभी के अंधे और बटेरें

कोई भी कुछ
नहीं कर सकता
आँखों के परदों
पर पड़ चुके
जालों के लिये
साफ दिखना
या कुछ धुँधला
धुँधला हो जाना
अपना देखना
अपने को पता
पर मुहावरों के
झूठ और सच
मुहावरे जाने
कहने वाले
कह गये
बबाल सारे
जोड़ने तोड़ने
के छोड़ गये
अब अंधे के
हाथ में बटेर
का लग जाना
भी किसी ने
देखा ही होगा
पर कहाँ सिर
फोड़े ‘उलूक’ भी
जब सारी बटेरें
मुहँ चिढ़ाती हुई
दिखाई देने लगें
अंधों के हाथों में
खुद ही जाती हुई
और हर अंधा
लिये हुऐ नजर
आये एक बटेर
नहीं बटेरें ही बटेरें
हाथ में जेब में
और कुछ नाचती
हुई झोलों में भी
कोई नहीं समय
की बलिहारी
किसी दिन कभी
तो करेगा कोई
ना कोई अंधा
अपनी आँख बंद
नोच लेना तू भी
बटेर के एक दो पंख
ठंड पड़ जायेगी
कलेजे में तब ही
फिर बजा लेना
बाँसुरी बेसुरी अपनी ।

चित्र साभार: clipartmountain.com

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

ठंड रखना सीखना अच्छा होता है वो जो भी कहता है भले के लिये ही कह रहा होता है

अब सभी कुछ
हमेशा खराब और
गंदा नहीं होता है
सोच कर देखना
चाहिये फूल कमल
को देख कर इतना
तो कम से कम
गंदे कीचड़ में भी
मुस्कुराता हुआ
हमेशा ही जो
खिला होता है
सपने बना कर
बताने वाले को
अच्छी तरह से
ये पता होता है
सपना कौन से
पाँव में कैसे
किस तरीके से
और कब कहाँ
पर खड़ा होता है
करोड़ों की बात
सुनकर होता है
किसी के नीचे से
कहीं कुछ खिसक
सा रहा होता है
सौ हजार लाख का
कोई सपना अब
बाजार में कहीं भी
किसी भी दुकान
में नहीं होता है
खाली जमीन
दिखती है बंजर
पड़ी हुई सामने से
बंजर खाली दिमाग
के बस में बंजर
सोच लेना ही बड़ा
सोच लेना होता है
हो क्लास स्कूल
बाजार गली मैंदान
शहर हस्पताल
या कुछ और भी
स्मार्ट आज कहाँ
और किस पर
फिट हो रहा है
पूछना ही किसी
से नहीं होता है
सपने के ऊपर
से सपना
सपने के
आगे से सपना
सपने के पीछे
से सपना
कितना सपना सपना
हो रहा होता है
सपना सोचने सोचने
तक सामने से रख
कर एक और सपना
सपनों के कलाकार
ने इतना क्या
कम सीखा होता है
और ऐसे में
कहीं बीच से
करोड़ों के निकल
लेने का  इधर से
कहीं उधर को
सपनो सपनो में
किसी को आभास भी
नहीं कुछ होता है
‘उलूक’ आँखें फोड़
कर अपनी
गजब के ऐसे
सपनों को
सपनों में ही कहीं
खोद रहा होता है ।

चित्र साभार: www.clipartbagus.com

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शैतान बदरिया

ओ बदरिया कारी
है गरमी का मौसम
और तू रोज रोज
क्यों आ जा रही
बेटाईम आ आ के
भिगा रही
बरस जा रही
सबको ठंड लगा रही
जाडो़ भर तूने नहीं
बताया कि तू क्यों
नही बरसने
को आ रही
लगता है तू आदमी
को अपना
मूड दिखा रही
आदमी के
कर्मों का
फल उसको
दिला रही
पर तू ये भूल
क्यों जा रही
कि तेरे बदलने
से ही तो
आदमी की पौ
बारा हो जा रही
क्लाईमेट चेंज और
ग्लोबल वार्मिंग
के नाम पर
जगह जगह दुकानें
खुलते जा रही
जैसे ही नदी सूख
जाने की खबर
दी जा रही
तू शैतान बरस
के पानी से लबालब
करने क्यों आ रही
बदरिया जरा कुछ
तो बता जा री।

रविवार, 8 जनवरी 2012

ठंड और विचार

ठंड से
जम 
गये
विचार आज

मौन हो गये

आकाश
में बादल

सामने
पहाडियों

पर बर्फबारी

कम तापमान

रजाई के अंदर
दिन भर
उछल कूद


फिर भी
गरमी की

हो रही है आज
विचारों को जरुरत

बेचारे
विचार भी

जानते हैं
कुछ 
अचार
की तरह

सब लोग छांट
लेते हैं उन्हें
अपनी सुविधा
अनुसार हमेशा

ज्यादातर होता

आया है यहां
बना के पेश
कर दी जाये
व्यंग रूपी
अगर खीर

लोग उसका

भी रूपांतरण
कर फेंकते हैं
तीखा तीर

ठंड में

रहने दिये
जाये विचार
कुछ देर

अचार भी

बनता है पक्का

कुछ 
समय छोड़
दिया जाये
अगर यूं ही
मर्तबान में ।