उलूक टाइम्स: नींव
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शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

अथ श्री बरगद कथा

 पता
नहीं चलता है 

मगर
कुछ लोग
समय के साथ
बरगद हो जाते हैं

ऐसा नहीं है
कि लोग
 बरगद होना नहीं चाहते हैं 

लोग
जन्म से 
बरगद ही होते हैं

बस
उगना
फिर बड़ा हो कर
विशाल आकार लेकर
आसमान और जमीन के बीच
फैल जाना

सब नहीं कर पाते हैं

कुछ
बरगद होकर
शुरु कर देते हैं

दूसरों को बरगद बनाना

इसे
 कार्यक्रम कहें या क्रियाकर्म
फर्क
ज्यादा नहीं होता है

पूरा ढिंढोरा
पीटा जाता है
समाज के हर बरगद हो चुकों को
न्यौता भेजा जाता है

नींव रखी जाती है
एक करोड़
बरगद के जंगल बनाने
और
सामाजिक पर्यावरण को बचाने

फिर
मजबूत किये जाने के
सपने दिखा कर
दूरगामी उद्देश्य का
एक बहुत बड़ा खाका
पेश किया जाता है

सांयकालीन सत्र में
अखबारी बरगदों के साथ
संगीतमय समां बंधवा कर
सुबह की खबरों का
ठेका दिया जाता है

ये सारा
खुलेआम किया जाता है
जोर शोर से पर्दे उखाड़ कर
प्रचारित प्रसारित किया जाता है

सभा समाप्त होती है
पर्दा गिरा दिया जाता है 

अब शुरु होता है
आकृष्ट करना
लोगों को
बरगद हो लेने के सुनहरे मौके का

एक
बरगदी सपना
फैलाया जाता है 
बरगद बनाने शुरु किये जाते हैं

सबसे पहले
जमीन की मिट्टी से
उसे अलग किया जाता है

चारों ओर से घेर कर
थोड़ी मिट्टी थोड़ा पानी थोड़ी हवा
की जगह में

एक
गमले में
बरगद होने के लिये
छोड़ दिया जाता है

समय काटने
के इन्तजामात
किये जाते हैं

बीच बीच में
पूरा जवान हो चुके
बरगद का चित्र दिखाया जाता है

ध्यान
बंटते ही
बढ़ते पनपते
जवान बरगद की
बढ़ती शाखाओं और जड़ों को
कलम कर दिया जाता है

बरगद बनता है
समय निकलता है 

बरगद
कब बोनसाई हो गया
‘उलूक’ 
बस ये
कोई नहीं जान पाता है

बस
ऐसे ही किसी दिन
एक नया
कोई
बरगद होने के सपने के जालों में
फंस कर चला आता है

बोनसाई
उखाड़ कर
कहीं फेंक दिया जाता है

एक
नया सपना
उगने फैलने
फिर
छंटने कटने के लिये
प्रस्तुत हो जाता है

अखबार सुबह का
 बरगद बनाने
और
जंगल उगाने के लिये
किसी को
सरकारी सम्मान मिलने के
समाचार से
पटा नजर आता है ।

चित्र साभार: https://www.patrika.com/

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सोमवार, 13 जुलाई 2020

लिखा कुछ भी नहीं जाता है बस एक दो कौए उड़ते हुऐ से नजर आते हैं


शब्द सारे
मछलियाँ हो जाते हैं
सोचने से पहले
फिसल 
जाते हैं

कुछ
पुराने ख्वाब हो कर
कहीं गहरे में खो जाते हैं

लिखने
रोज ही आते हैं
लिखा कुछ  जाता नहीं है
बस तारीख बदल 
जाते हैंं

मछलियाँ
तैरती दिखाई देती हैं
हवा के बुलबुले बनते हैं
फूटते चले जाते हैं

मन
नहीं होता है
तबीयत नासाज है
के बहाने
निकल आते हैं

पन्ने पलट लेते हैं
खुद ही डायरी के खुद को
वो भी आजकल
कुछ लिखवाना
कहाँ चाहते हैं 

बकवास
करने के बहाने
सब खत्म हो जाते हैं

पता ही नहीं चल पाता है
बकवास करते करते
बकवास
करने वाले

कब खुद
एक बकवास हो जाते हैं 

कलाकारी
कलाकारों की
दिखाई नहीं देती है

सब
दिखाना भी नहीं चाहते हैं

नींव
खोदते चूहे घर के नीचे के

घर के
गिरने के बाद
जीत का झंडा उठाये
हर तरफ
नजर आना शुरु हो जाते हैं 

‘उलूक’
छोड़ भी नहीं देता 
है लिखना 

कबूतर लिखने की सोच
आते आते
तोते में अटक जाती है

लिखा
कुछ भी नहीं जाता 
है
एक दो कौए
उड़ते हुऐ से नजर आते हैं ।

चित्र साभार:
https://timesofindia.indiatimes.com/