उलूक टाइम्स: पढ़ा
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शनिवार, 6 अगस्त 2016

श्श्श्श शोर नहीं मास्साब हैं आँख कान मुँह नाक बंद करके शिष्यों को इंद्रियाँ पढ़ा रहे हैं


दृश्य एक:

बड़े बड़े हैं 
बहुत बड़े हैं 
बड़प्पन दिखा रहे हैं 

आँख मूँदे 
बैठे हैं 
कान में सरसों का 
गुनगुना तेल डलवाकर 
भजन गुनगुना रहे हैं 

कुछ
उसी 
तरह का दृश्य बन रहा है

जैसे 
अफ्रीका के घने जंगल के 

खूबसूरत 
बड़े नाखून और
तीखे 
दाँतों वाले बब्बर शेर 

परिवार और 
मित्रों
के साथ 
बैठे हुऐ 
घास फूस की दावत उड़ा रहे हैं 

दूसरे दृश्य में :

तमाशा दिखाने वाले 

शेरों के ही अगल बगल 
एक टाँग पर खड़े हुए
कुछ बगुले दिखा रहे हैं 

सफेद हैं झकाझक हैं 

अपनी दुकानें 
सरकारी  दुकान के अन्दर के 
 किसी कोने में सजा रहे हैं 

बेचने को बहुत कुछ है 

अलग बात है शेरों का है 
खरीदने वालों को पता है 

भीड़ उमड़ रही है 
खालें बिक रही हैं
बोली बढ़ा चढ़ा कर लगा रहे हैं 

बगुलों की गरम हो रही जेबें 
किसी को नजर नहीं आ रही हैं 

बगुले
मछलियों के बच्चों को 
शेरों के दाँतों की फोटो बेच कर 
पेड़ों में चढ़ने के तरीके सिखा रहे हैं 

जय हो जंगल की 
जय हो शेरों की 
जय हो भक्तों की 
जय हो सरकार 
और 
सरकारी आदेशों की 

जय हो उन सभी की 
जो इन सब की बत्ती बनाने वालों 
को
देख समझ  कर 
खुद अपने अपने 
हनुमानों की चालीसा गा रहे हैं 



निचोड़: 

परेशान नहीं 
होना है 
आँख और कान वालो

शेखचिल्ली 
उलूक
और
उसके मुँगेरीलाल के हसीन 
सपने 

कौन सा 
पाठ्यक्रम में जुड़ने
जा रहे हैं

जंगल 
अपनी जगह 
शेर अपनी जगह 
बगुले अपनी जगह 
लगे हुऐ अपनी अपनी जगह 

जगह ही तो 
बना रहे हैं ।

सार:
श्श्श्श शोर नहीं 
मास्साब
आँख कान मुँह नाक बंद करके 
शिष्यों को आजकल 
इंद्रियाँ पढ़ा रहे हैं ।
चित्र साभार: country.ngmnexpo.com

बुधवार, 25 नवंबर 2015

अपनों के किये कराये पर लिखा गया ना नजर आता है ना पढ़ा जाता है ना समझ आता है

भाई ‘उलूक’
लिखना लिखाना है
ठीक है लिखा करो
खूब लिखा करो
मस्त लिखा करो
रोज लिखा करो
जितना मन में आये
जो चाहे लिखा करो
बस इतना और
कर दिया करो
क्या लिखा है
किस पर लिखा है
क्यों लिखा है
वो भी कहीं ऊपर
या कहीं नीचे
दो चार पंक्तियों में
हिंदी में या उर्दू में
लिख कर भी
कुछ कुछ
बता दिया करो
बहुत दिमाग लगाने
के बाद भी तुम्हारे
लिखे लिखाये में से
कुछ भी निकलकर
कभी भी नहीं आता है
जितना दिमाग के अंदर
पहले से होता है वो भी
गजबजा कर पता नहीं
कहाँ को चला जाता है
अब कहोगे जिसे समझ
में नहीं आता है तो वो
फिर पढ़ने के लिये
किस लिये रोज यहाँ
चला आता है
लोगों के आने जाने
की बात आने जाने
वालों की संख्या बताने
वाला गैजेट बता जाता है
लिखने लिखाने वाला
उसी पर लिखता है
जो लिखने वाले के
साथ पढ़ने वाले को
साफ साफ सामने
सामने से दिखता है
और नजर आता है
लिखने वाला आदतन
लिखता है सब कुछ
उसे पता होता है
पढ़ने वाला
कहीं साफ साफ सब
लिख तो नहीं दिया गया है
देखने के लिये चला आता है
पढ़ता है सब कुछ
साफ साफ समझता है
लिख दिये पर खिसियाता है
और फिर इसका लिखा
समझ में नहीं आता है
की डुगडुगी बजाता हुआ
गली मोहल्ले बाजार से
होते हुऐ शहर की ओर
निकल कर चला जाता है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

सोमवार, 2 नवंबर 2015

खाली सफेद पन्ना अखबार का कुछ ज्यादा ही पढ़ा जा रहा था

कुछ ज्यादा
ही हलचल
दिखाई
दे रही थी
अखबार के
अपने पन्ने पर

संदेश भी
मिल रहे थे
एक नहीं
ढेर सारे
और
बहुत सारे
क्या
हुआ होगा
समझ में
नहीं आ
पा रहा था

पृष्ठ पर
आने जाने
वालों पर
नजर रखने
वाला
सूचकाँक
भी ऊपर
बहुत ऊपर
को चढ़ता
हुआ नजर
आ रहा था

और
ये सब
शुरु हुआ था
जिस दिन से
खबरें छपना
थोड़ा कम होते
कुछ दिन के
लिये बंद
हुआ था

ऐसा नहीं था
कि खबरें नहीं
बन रही थी

लूट मार हमेशा
की तरह धड़ल्ले
से चल रही थी
शरीफ लुटेरे
शराफत से रोज
की तरफ काम
पर आ जा रहे थे

लूटना नहीं
सीख पाये
बेवकूफ
रोज मर्रा
की तरह
तिरछी
नजर से
घृणा के
साथ देखे
जा रहे थे

गुण्डों की
शिक्षा दीक्षा
जोर शोर से
औने पौने
कोने काने
में चलाई
जा रही थी

पढ़ाई लिखाई
की चारपाई
टूटने के
कगार पर
चर्र मर्र
करती हुई
चरमरा रही थी

‘उलूक’
काँणी आँख से
रोज की तरह
बदबूदार
हवा को
पचा रहा था
देख रहा था
देखना ही था
आने जाने के
रास्तों पर
काले फूल
गिरा रहा था

कहूँ ना कहूँ
बहुत कह
चुका हूँ
सभी
कुछ कहा
एक ही
तरह का
कब तक
कहा जाये
सोच सोच
कर कलम
कभी
सफेद पानी में
कभी
काली स्याही में
डुबा रहा था

एक दिन
दो दिन
तीन दिन
छोड़ कर
कुछ नहीं
लिखकर
अच्छा कुछ
देखने
अच्छा कुछ
लिखने
का सपना
बना रहा था

कुछ नहीं
होना था
सब कुछ
वही रहना था
फिर लिखना
शुरु
किया भी
दिखा भी
अपनी सूरत
का जैसा ही
जमाने से
लिखा गया
आज भी
वैसा ही कुछ
कूड़ा कूड़ा
सा ही
लिखा जा
रहा था

जो है सो है
बस यही पहेली
बनी रही थी
देखने पढ़ने
वाला खाली
सफेद पन्ने को
इतने दिन
बीच में
किसलिये
देखने के लिये
आ रहा था ।

चित्र साभार: www.clker.com

रविवार, 7 सितंबर 2014

लिखा हुआ पढ़ते पढ़ते नहीं लिखा पढ़ने से रह गया था

कुछ था
जरूर
उन सब
जगहों पर

जहाँ से
गुजरा
था मैं

एक नहीं
हजार बार
जमाने के
साथ साथ

और
कुछ नहीं
दिखा था
कभी भी

ना मुझे

ना ही
जमाने को

कुछ दिखा
हो किसी को

ऐसा
जैसा ही
कुछ लगा
भी नहीं था

अचानक
जैसे बहुत
सारी आँखे
उग आई थी
शरीर में

और
बहुत कुछ
दिखना शुरु
हो गया था

जैसे
कई बार
पढ़ी गई
किताब के

एक खाली
पड़े पन्ने को

कुछ नहीं
लिखे होने
के बावजूद

कोई पढ़ना
शुरु
हो गया था

आदमी
वही था

कई कई
बार पढ़ा
भी गया था

समझ में
हर बार
कुछ
आया था

और
जो आया था

उसमें
कभी कुछ
नया भी
नहीं था

फिर
अचानक

ऐसा
क्या कुछ
हो गया था

सफेद पन्ना
छूटा हुआ
एक पुरानी
किताब का

बहुत कुछ
कह गया था

एक
जमाने से

जमाना भी
लगा था
पढ़ने
पढ़ा‌ने में

लिखा
किताब का

और
एक खाली
सफेद पन्ना

किसी का
सफेद
साफ चेहरा
हो गया था

‘उलूक’
आँख
ठीक होने
से ही
खुश था

पता ही
नहीं चला
उसको

कि
सोच में
ही एक
मोतियाबिंद
हो गया था ।

चित्र साभार: http://www.presentermedia.com/

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

चुटकी बजा पर्यावरण पढ़ा

वाणिज्य हो
या कला हो
विज्ञान हो
चित्रकला हो
संगीत हो
या शिक्षा हो

हर जगह पर
दिखता हो
ऎसा भी बहुत
कुछ अब यहाँ
पाया जाता है

‘पर्यावरण’
उनमें से एक है
जो हर जगह
पढ़ाया जाता है

जिसे
पास करना
भी जरूरी
होता है

वरना
परीक्षाफल
में फेल लिख
दिया जाता है

सब ही को
पर्यावरण
आता है

इसलिये
हर कोई
पढ़ा भी
ले जाता है

किताबों से
इसका कोई
मतलब कहीं
नहीं दिखता है

इसलिये
कोई भी हो
पढ़ा हो या
अनपढ़ हो

आसपास
से ही अपने
इतना
कुछ सीख
ले जाता है

कुछ हो पाये
या ना हो पाये
एक पर्यावरणविद
जरूर हो पाता है

पर्यावरण का
भूगोल होता है
पर्यावरण का
इतिहास होता है

पर्यावरण का
शिक्षाशास्त्र होता है
पर्यावरण का
समाजशास्त्र होता है

बिना
राजनीतिशास्त्र के
‘पर्यावरण बिल’
कहीं भी नहीं
पास होता है

पर्यावरणविद
होने के लिये
विज्ञान का ज्ञान
होना ही बस
सबसे बड़ा
अपवाद होता है

हिमालय है
अभी भी
टिका हुआ
उसमें भी
इस सब का
बहुत बड़ा
हाथ होता है

परेशान क्यों
ऎसे में तू
यूँ ही होता है
एक छोटी सी
आपदा आने
से कुछ नहीं
होता है

इतना
सब कुछ जब
पर्यावरण पर
पर्यावरणविद
रोज का रोज
कुछ ना कुछ
चुटकियों में
कह देता है ।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

स्पोक्समैन

पढ़ा लिखा
होने से

कुछ हो ना हो

आदमी
समझदार
बड़ा हो जाता है

कुछ नहीं कहता है

उसे
अपने मुँह पर
हैरीसन का
ताला लगाना
आ जाता है

सबसे
ज्यादा
होशियार
पढ़ा लिखा

पढे़ लिखों
की एक
जमात का

कहने सुनने
की जिम्मेदारी
अपने आप
ही उठाता है

बिना
किसी से पूछे हुऎ

अपने
मन की
कहानियाँ
खुद ही
बनाता पकाता है

अखबार में
अपने वक्तव्य

पढे़ लिखों
की तरफ से
भिजवाता है
छपाता है

अखबार
वाला भी
पढे़ लिखों से
कुछ पूछने
नहीं आता है

पढे़ लिखों
की बाते हैं
सोच कर

कुछ भी
छाप ले जाता है

पढे़ लिखे
ने क्या कहा
उनको अखबार में
छपी खबर से ही
पता चल पाता है

पढ़ा 
लिखा
उसको
चश्मा लगा
कर पढ़ता है

इधर उधर
देखता 
है 
कि उसे
पढ़ते हुऎ तो
कोई नहीं
देखता है

और सो जाता है

पढ़ा
 लिखा
सब्जी की
तरह होता है

बड़ी

मुश्किल से

पैदा हो पाता है

उसकी
तरफ से
बात
को
कहने वाला

झाड़ की
माफिक होता है


कहीं भी
किसी मौसम में

बिना खाद के
उग जाता है


ऎसे
पढे़ लिखे को

आजकल

स्पोक्समैन
कहा जाता है ।