उलूक टाइम्स: मकड़ियाँ
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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

लिखना किसी के लिये नहीं अपने लिये बहुत जरूरी हो जाता है

किसी
का शौक
किसी के
लिये मौज

किसी के
लिये काम
और
किसी के लिये
धंधा होता होगा

अपने
लिये तो
बस एक
मजबूरी
हो जाता है

किसी
डाक्टर ने
भी नहीं
कहा कभी

पर जिंदा
रहने के लिये
लिखना
बहुत जरूरी
हो जाता है

क्या किया जाये

अगर
अपने ही
चारों तरफ

मुर्दा मुर्दों
के साथ
दिखना शुरु
हो जाता है

जीवन
मृत्यू का गुलाम
हो जाता है

ऐसे समय में
ही महसूस होना 

शुरु हो जाता है

अपनी
लाश को
ढो लेना
सीख लेना
कम से कम
बहुत जरूरी
हो जाता है

हर जगह लगे
होते हों अगर पहरे
सैनिक और सिपाही
चले गये हों
नींद में बहुत गहरे

रोटी छीनने वाला
ही एक रसोईया
बना दिया जाता है

ऐसे में भूखा सोना
मजबूरी हो जाता है

लिखने से भूख
तो नहीं मिटती
पर लिखना बहुत
जरूरी हो जाता है

हर जगह हर कोई
तलाश में रहने
लगता है एक कंधे के

अपने सबसे खास
के पीछे से उसी के
कंधे पर बंदूक रख
कर गोलियाँ चलाता है

गिरे खून का हिसाब
करने में जब दिल
बहुत घबराता है

जिंदा रहने के लिये
ऐसे समय में ही
लिखना बहुत जरूरी
हो जाता है

कोई किसी के लिये
लिखता चला जाता है
कोई खुद से खुद को
बचाना तक नहीं
सीख पाता है

लिखना तब भी
जरूरी हो जाता है

इस खाली जगह पर
एक लगाम जब तक
कोई नहीं लगाता है

लिखना बहुत
जरूरी हो जाता है

मकड़ियाँ जब बुनने
लगे मिल कर जाल
मक्खियों के लिये
कोई रास्ता नहीं
बच पाता है

कभी कहीं तो लगेगी
शायद कोई अदालत
का विचार अंजाने
में कभी आ ही जाता है

सबूत जिंदा रखने
के लिये भी कभी
लिखना बहुत
जरूरी हो जाता है।