उलूक टाइम्स: छब्बीस जनवरी
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बुधवार, 25 जनवरी 2017

बधाई है बधाई है बधाई है बधाई है



गण हैं तंत्र है सिपाही हैं
झंडा है एक है तिरंगा है

आजाद हैं आजादी है
शहनाई हैं देश है जज्बा है सेवा है
मिठाई है मलाई है मेवा है

चुनाव हैं जरूरी हैं लड़ना है मजबूरी है

दल है बल है
कोयला है कोठरी हैं
काजल है धुलाई है
निरमा है सफेद है जल है सफाई है

दावेदारी है दावेदार हैं
कई हैं प्रबल हैं
इधर हैं उधर हैं
इधर से उधर हैं उधर से इधर हैं

खुश हैं खुशी है
शोर है आवाजाही है

चश्मा है लाठी है धोती है
काली है सूची है
नाम लेने की भी मनाही है

सिल्क है अंगूठी है
कलफ है कोठी है
वाह है वाहवाही है

छब्बीस है जनवरी है
सालों से आई है

आती है जाती है
आज फिर से चली आई है

शरम की बात नहीं
बेशर्मी नहीं बेहयाई नहीं
‘उलूक’ की चमड़ी
खुजली वाली है खुजलाई है

कबूतरों की बारात है
देखी कहीं एसी कभी
कौओं की अगुआई है
कौओं ने सजाई है

गण हैं तंत्र है सिपाही हैं
झंडा है बधाई है
बधाई है बधाई है बधाई है ।


चित्र साभार: www.fotosearch.com

रविवार, 26 जनवरी 2014

कोई गुलाम नहीं रह गया था तो हल्ला किस आजादी के लिये हो रहा था

गुलामी थी सुना था लिखा है किताबों में
बहुत बार पढ़ा भी था आजादी मिली थी
देश आजाद हो गया था

कोई भी किसी का भी गुलाम नहीं रह गया था
ये भी बहुत बार बता दिया गया था 
समझ में कुछ आया या नहीं
बस ये ही पता नहीं चला था

पर रट गया था
पंद्रह अगस्त दो अक्टूबर और
छब्बीस जनवरी की तारीखों को
हर साल के नये कलैण्डर में हमेशा
के लिये लाल कर दिया गया था

बचपन में दादा दादी ने
लड़कपन में माँ पिताजी ने
स्कूल में मास्टर जी ने
समझा और पढ़ा दिया था

कभी कपड़े में बंधा हुआ
एक स्कूल या दफ्तर के डंडे के ऊपर
खुलते खुलते फूल झड़ाता हुआ देखा था

समय के साथ शहर शहर गली गली
हाथों हाथ में होने का फैशन बन चला था

झंडा ऊंचा रहे हमारा
गीत की लहरों पर झूम झूम कर
बचपन पता नहीं कब से कब तक
कूदते फाँदते पतंग उड़ाते बीता था

जोश इतना था किस चीज का था
आज तक भी पता ही नहीं किया गया था 
पहले समझ थी
या अब जाकर समझना शुरु हो गया था

ना दादा दादी ना माँ पिताजी
ना उस जमाने के मास्टर मास्टरनी
में से ही कोई एक जिंदा बचा था

अपने साथ था अपना दिमाग
शायद समय के साथ
उस में ही कुछ गोबर गोबर सा हो गया था

आजादी पाने वाला
हर एक गुलाम समय के साथ कहीं खो गया था 
जिसने नहीं देखी सुनी थी गुलामी कहीं भी
वो तो पैदा होने से ही आजाद हो गया था

बस झंडा लहराना
उसके लिये साल के एक दिन जरूरी
या शायद मजबूरी एक हो गया था

कुछ भी कर ले कोई कहीं भी कैसे भी
कहना सुनना कुछ किसी से भी नहीं रह गया था 
देश भी आजाद देशवासी भी आजाद
आजाद होने का ऐसे में क्या मतलब रह गया था

किसी को तो पता होता ही होगा
जब एक 'उलूक' तक अपने कोटर में
तिरंगा लपेटे “जय हिंद” बड़बड़ाते हुऐ 
गणतंत्र दिवस के स्वागत में सोता सोता सा रह गया था ।