उलूक टाइम्स: बरसात
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रविवार, 28 फ़रवरी 2021

किसी महीने बरसात कम होती किसी महीने बकवास कम होती



करते करते
बकवास निरन्तर
सुजान हो चले जड़मति
ये भी तो किस्मत है होती

अभ्यास
समझ रोज का लेखन
आभासी कलम पन्ने जोतती
खुद ही कुछ बोती

जमा होते चले 
आगे के पीछे पीछे के आगे
आँखें मूंद वर्णमाला के मोती पर मोती

वाक्य चढ़े वाक्य के ऊपर
शब्दों की पहन कहीं अटपटी
कहीं फटी एक धोती

चित्र जड़े श्रँगार समझ कर
कुछ हल्के पर कुछ भार पटक कर
लिख डाली पोथी पर पोथी

धुँआ सोच कर हवा नोच कर
राख बनाते लिखे लिखाये अंगार दहक कर
कविता घोड़े बेच कर सोती

समझ समझ कर समझा लिखना
घुप्प अँधेरा जिसको दिन दिखना
सुबह सवेरे शुरु रात है होती

लिखना भर कर पेट गले तक
घिस घिस लिख कर गले गले तक
‘उलूक’ बेशरम पढ़ने वाले की आँखे
रोती हैं तो रोती।

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

जितनी जोर की टर्र टर्र करेगा टर्राना उतनी दूर से दिखेगा बात है बस ताड़ कर निशाना लगाने की

उदघोषणा जैसे ही हुयी 

बरसात के मौसम के जल्दी ही 
आने की 

मेंंढक दीवाने सारे लग गये तैयारी में 
ढूढना शुरु कर दिये दर्जी 
अपने अपने 

होड़ मच चुकी है नजर आने लगी 
पायजामे बिना इजहार के सिलवाने की 

टर्र टर्र 
दिखने लगी हर जगह 
इधर भी उधर भी 

आने लगी घर घर से आवाज 

करने की रियाज 
टर्राने की 

फुदकना 
शुरु हो गये मेंढक 

अपने अपने 
मेंढकों को लेकर मेढ़ पर कूओं के 

जल्दी मची 
दिखने लगी अपनी छोड़ 
दूसरे की पकड़ नैया पार हो जाने की 

कलगी 
लग गयी देख कर 
कुछ मेढकों के सर पर 

दिखने लगे 
कुछ नोचते हुऐ बाल अपने 

खबर छपनी 
शुरु हो गयी अखबारों में 
कुछ के बाल नोचने की 
कुछ के गंजे हो जाने की 

छूटनी शुरु हो गयी पकड़ 
कुओं की मुडेरों पर अपने 

नजर आने लगी 
खूबसूरती दूसरों की 
नालियों धारों की पाखानों की 

बरसात का 
भरोसा नहीं 
कब बादल चलें कब बरसें 

कब 
नाचें मोर भूल चुके कब से 
जो आदत 
अपने पंख फैलाने की 

‘उलूक’ 
छोटे उत्सव मेंढकों के 
जरूरी भी हैं 

बहुत बड़ी 
नहर में तैरने कूदने को जाने की बारी 

किस की 
आ जाये अगली बरसात 
से पहले ही 

बात ही तो है 
तिकड़म भिड़ाने की 

आये तो सही किसी तरह 

हिम्मत थोड़ी सी 
शरम हया छोड़ 
हमाम तोड़ कर अपना 

कहीं बाहर निकल कर 
खुले में नंगा हो जाने की । 

चित्र साभार: https://www.prabhatkhabar.com

सोमवार, 3 सितंबर 2018

कुछ बरसें कुछ बरसात करें बात सुनें और बात सुनायें बातों की बस बात करें



किसी को लग पड़ कर कहीं पहुचाने की बात करें
रास्ते काम चलाऊ उबड़ खाबड़ बनाने की बात करें

कौन सा किसी को कभी कहीं पहुँचना होता है
पुराने रास्तों के बने निशान मिटाने की बात करें

बात करने में संकोच भी नहीं करना होता है
पुरानी किसी बात को नयी बात पहनाने की बात करें

बात है कि छुपती ही नहीं है दूर तक चली जाती है
बेशरम बात को कुछ शरम सिखाने की बात करें

खुद के धंधों में कुछ बेवकूफ होते हैं लगे ही रहते हैं
किसी और के धंधे को अपनी दुकान से पनपाने की बात करें

अपने घर के अपने बच्चे खुद ही बहुत समझदार होते हैं
दूसरों के बच्चों को अपनी बात से चलाने की बात करें

बातों का सिलसिला है सदियों से इसी तरह चलता है
कुछ बात की बरसात करें कुछ बरसात की बात करें

‘उलूक’देर रात गये बैठ कर उजाले की बात लिखता है
रहने भी दें किसलिये एक बेवकूफ की गफलतों की बात करें।

चित्र साभार: http://cliparting.com

बुधवार, 6 अगस्त 2014

बारिशों का पानी भी कोई पानी है नालियों में बह कर खो जाता है

खुली खिड़कियों
को बरसात
के मौसम में
यूँ ही खुला
छोड़ कर
चले जाने
के बाद
जब कोई
लौट कर
वापस
आता है
कई दिनों
के बाद
गली में
पाँवों के
निशान तक
बरसते पानी
के साथ
बह चुके
होते हैं
पता भी
नहीं चलता है
किसी के आने
और
झाँकने का भी
दरवाजे भी
कुछ कुछ
अकड़ चुके
होते है
बहुत सारे
लोग
बहुत सारे
लोगों के
साथ साथ
आगे पीछे
होते होते
कहीं से
कहीं की
ओर निकल
चुके होते हैं
वहम होने
या
ना होने का
हमेशा वहम
ही रह
जाता है
जब कोई
गया हुआ
वापस लौट
कर आता है
जहाँ से
गया था
वहाँ पहुँच
कर बस
इतना ही
पता चल
पाता है
पता नहीं
किसी ने
पता लिख
दिया था
उस का
उस जगह का
जहाँ उसे
लगता था
वो है
उस जगह पर
लौट कर
खुद अपने
को ही बस
नहीं ढूँढ
पाता है
हर कोई
अपने अपने
पते को
लेकर
अपनी अपनी
चिट्ठी

खुद के
लिये ही

लिखता हुआ
नजर आता है
ना पोस्ट आफिस
होता है जहाँ
ना ही कोई
डाकिया
कहीं दूर
दूर तक
नजर आता है
‘उलूक’
बहुत ही
जालिम है ये
सफेद पन्ना
काला नहीं
हो पाता है
अगर कभी
तो कोई
भी झाँकने
तक नहीं
आता है
काँटा
चुभा रहना
जरूरी है
पाँव के
नीचे से
खून दिखना
भी जरूरी
हो जाता है
तेरा पता तुझे
पता होता है
खुद ही खोना
खुद ही ढूँढना
खुद को यहाँ
हर किसी को
इतना मगर
जरूर
आता है ।

गुरुवार, 1 मई 2014

क्या किया जाये अगर कभी मेंढक बरसात से पहले याद आ जाते हैं



कूँऐं के 

अंदर से चिल्लाने वाले मेढक की 

आवाज से परेशान क्यों होता है 

उसको
आदत होती है शोर मचाने की 

उसकी तरह का
कोई दूसरा मेंढक 
हो सकता है वहाँ नहीं हो 
जो समझा सके उसको 

दुनिया गोल है
और बहुत विस्तार है उसका
यहाँ से शुरु होती है और
पता नहीं कहाँ कहाँ तक फैली हुई है 

हो सकता है 
वो नहीं जानता हो कि किसी को 
सब कुछ भी पता हो सकता है 

भूत भविष्य और वर्तमान भी 

बहुत से मेंढक 
कूँऐं से कूद कर 
बाहर भी निकल जाते हैं 
जानते हैं कूदना बहुत ऊँचाई तक 

ऐसे सारे मेंढक 
कूँऐं के बाहर निकलने के बाद 
मेंढक नहीं कहलाते हैं 

एक मेंढक होना 
कूँऐं के अंदर तक ही ठीक होता है 

बाहर 
निकलने के बाद भी मेंढक रह गया 
तो फिर
बाहर आने का क्या मतलब रह जाता है 

वैसे 
किसी को ज्यादा फर्क भी नहीं 
पड़ना चाहिये 

अगर 
कोई मेंढक अपने हिसाब से कहीं टर्राता है 
किसी के 
चुप चुप कहने से बाज ही नहीं आता है 

होते हैं बहुत से मेंढक 
जरा सी आवाज से चुप हो जाते हैं 

और 'उलूक'
कुछ सच में 
बहुत बेशरम और ढीट होते हैं 

जिंदगी भर बस टर्राते ही रह जाते हैं ।

चित्र साभार:
https://www.shutterstock.com/

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

किसी की लकीरों का किसी को समझ में आ जाना

कई दिन से
देख रहा हूँ
उसका एक
खाली दीवार
पर कुछ
आड़ी तिरछी
लकीरें बनाते
चले जाना
उसके चेहरे
के हाव भाव
के अनुसार
उसकी लकीरों
की लम्बाई
का बढ़ जाना
या फिर कुछ
सिकुड़ जाना
रोज निकलना
दीवार के
सामने से
राहगीरों का
कुछ का
रुकना
कुछ का
उसे देखना
कुछ का
बस दीवार
को देखना
कुछ का
उसके चेहरे
को निहारना
फिर मुस्कुराना
उसका किसी
के आने जाने
ठहरने से
प्रभावित
नहीं होना
बिना नागा
जाड़ा गरमी
बरसात
लकीरों को
बस गिनते
चले जाना
हर लकीर
के साथ
कोई ना
कोई अंतरंग
रिश्ता बुनते
चले जाना
उसकी खुशी
उसके गम
उसके
अहसासों का
कुछ लकीरें
हो जाना
सबसे बड़ी बात
मेरा कबूल
कर ले जाना
उसकी हर
लकीर का
मतलब उतना
ही उसकी
समझ के
जितना ही
समझ ले जाना
उसकी लकीरों
का मेरी अपनी
लकीरें हो जाना
महसूस हो जाना
लकीर से
शुरु होना
एक लकीर का
और लकीर पर
जा कर
पूरी हो जाना | 

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

याद नहीं रहा आज से पहले खतड़ुवा कब था हुआ

बरसात जब
कुछ कम हो गई
घर की सफाई
कुछ शुरु हो गई
काम पर लगे नंदू
से पूछ बैठा यूं ही
ठंड भी शुरु
हो गई ना
हां होनी ही है
खतड़ुवा भी हो गया
उसका ये बताना
जैसे मुझे धीरे से
छोटा करते हुऐ
कहीं बहुत
पीछे पहुंचाना
याद आने लगा मुझे
पशु प्रेमी ग्वालों
का पारंपरिक पर्व
का हर वर्ष अश्विन
माह की संक्रांती
को मनाना और
याद आया
भूलते चले जाना
घास का एक
त्योहार पशुधन
की कुशलता और
गौशालाऐं गाय से
भरी रहने की कामना
गाय के मालिकों की
वंशवृद्धि होती रहे
गाय का सम्मान भी
करती रहे की भावना
त्योहार मनाना
ना होता हो जैसे
कोई खेल होता हो
भांग के पौंधे के एक
सूखे से डंडे को
सुबह से घास फूल
पत्तियों से सजाना
गाय के जाने के
रास्ते के चौराहे पर
घास के चार हाथ पैर
बनाकर फुलौरी
एक बनाना
शाम ढले सपरिवार
उस आकृति
को आग लगाना
सुबह बनायी गई
सजायी गई
लकड़ी से आग को
पीटते चले जाना
'भैल्लो जी भैल्लो
भैल्लो खतड़ुवा
भाग खतड़ुवा भाग'
साथ साथ चिल्लाते
भी चले जाना
जली आग का एक
हिस्सा ले जा कर
गाय के गौठ और
घर पर ला
कर घुमाना
पीली ककड़ी
काट कर बांटना
और मिलकर खाना
फिर याद आया
खो जाना शहर के
पेड़ और घास
घर से गायों
का रंभाना
गायों का
कारें हो जाना
दूध का
यूरिया हो जाना
हर हाथ का
कान से जा कर
चिपक जाना
सड़क पर
चलते चलते
बोलते चले जाना
पड़ोसी की
मौत की खबर
अखबार से
पता चल पाना
ऐसे में बहुत
 बड़ी बात है
खतड़ुऐ की याद
भर आ जाना ।

रविवार, 8 जुलाई 2012

सावन / बादल / बरसात

बादलों
में भी

हिस्सा
दिखाता है

अपना सावन
अपनी रिमझिम
अपनी बरसात

अपनी
तरह से
चाहता है

खाली पेट
हो तो

दिलाता है
सूखे खेत
की याद

रोटी
पेट में
जाते ही
जरूर
आती है याद

फिर से बरसात

कोई बस
देखना भर
चाहता है
कुछ बूँदे

छाता खोल
ले जाता है

किसी को
भीगना होता है

खुले
आसमान
के नीचे
चला आता है

वो
उसकी
बारिश में

अपनी
बारिश
कहाँ
मिलाता है

सब को
अपनी अपनी
बारिश करना
आता है

कोई
अपने चेहरे
में ही बारिश
दिखाता है

किसी
का बादल

उसके
नयनों में ही
छा जाता है

किसी को
आ जाता है

कलम से
बरसात को
लिख ले जाना

कोई
अपने अंदर
ही बरसात
कर ले जाता है

पानी
कहीं पर
भी नजर
नहीं आता है

और
किसी का पेट

इतना
भर जाता है

कितना
खा गया
पता ही नहीं
चल पाता है

बादल
ऎसे में
गोल घूमना
शुरु हो जाता है

बारिश
का नाम भी
तब अच्छा
नहीं लगता

लेकिन
रोकते रोकते
भी बादल
फट जाता है

पानी
ही पानी
चारों तरफ
हो जाता है

कितने मन
और
कितने सावन

किसके
हिस्से में
कितने बादल

तब
जाके थोड़ा
समझ में
आता है ।

चित्र साभार: 
https://www.gettyimages.in

गुरुवार, 7 जून 2012

आपदा फिर से आना

भीषण हुवी थी
उस बार बरसात
आपदा थी
दूर कहीं एक गाँव था
एक स्कूल था
दर्जन भर बच्चे थे
मौत थी वीरानी थी
कुल जमा दो
साल पहले की
ये बात थी
सभी को हैरानी थी
निकल गयी उसके
बाद कई बरसात
मंत्री जी से ठेकेदार
पैसे की थी इफरात
स्कूल फिर से गया
उसी जगह पर बनाया
मंत्री जी
हो गये भूतपूर्व
सरकार को
इस बीच गंवाया
अखबार हो गये
सब जब दूर
खबर बनाने को
स्कूल के
उदघाटन का
मन बनाया
कार्यक्रम होने
ही वाला था
पूर्व संध्या को
स्कूल भरभराया
सीमेंट रेता
मिट्टी हो कर
जमीन में सोने
चला आया
हाय रे हाय
वर्तमान सरकार
ठीकरा तेरे सर
फूटने को आया
मंत्री जी ने अपनी
झेंप को मिटाया
सी बी आई से
होगी इन्क्वारी
का भरोसा गांव
वालों को दिलवाया
लाव लश्कर के साथ
अपना काफिला
वापस लौटाया
ऎसा वाकया
पहली बार
देखने में
है आया।

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शैतान बदरिया

ओ बदरिया कारी
है गरमी का मौसम
और तू रोज रोज
क्यों आ जा रही
बेटाईम आ आ के
भिगा रही
बरस जा रही
सबको ठंड लगा रही
जाडो़ भर तूने नहीं
बताया कि तू क्यों
नही बरसने
को आ रही
लगता है तू आदमी
को अपना
मूड दिखा रही
आदमी के
कर्मों का
फल उसको
दिला रही
पर तू ये भूल
क्यों जा रही
कि तेरे बदलने
से ही तो
आदमी की पौ
बारा हो जा रही
क्लाईमेट चेंज और
ग्लोबल वार्मिंग
के नाम पर
जगह जगह दुकानें
खुलते जा रही
जैसे ही नदी सूख
जाने की खबर
दी जा रही
तू शैतान बरस
के पानी से लबालब
करने क्यों आ रही
बदरिया जरा कुछ
तो बता जा री।