उलूक टाइम्स: गुरु
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शनिवार, 6 अप्रैल 2019

कहाँ आँखें मूँदनी होती हैं कहाँ मुखौटा ओढ़ना होता है तीस मार खान हो जाने के बाद सारा सब पता होता है

फर्जी
सकारात्मकता
ओढ़ना सीखना

जरूरी होता है

जो
नहीं सीखता है

उसके
सामने से

खड़ा
हर बेवकूफ

उसका
गुरु होता है

सड़क
खराब है
गड्ढे पड़े हैं

कहना
नहीं होता है

थोड़ी देर
के लिये
मिट्टी भर के

बस
घास से
घेर देना
होता है

काफिले
निकलने
जरूरी होते हैं

उसके बाद

तमगे
बटोरने
के लिये

किसी
नुमाईश में

सामने से
खड़ा होना
होता है

हर जगह
कुर्सी
पर बैठा

एक मकड़ा

जाले
बुन
रहा होता है

मक्खियों
के लिये काम

थोड़ा थोड़ा

उसी के
हिसाब से

बंटा हुआ
होता है

पूछने वाले

पूछ
रहे होते हैं

अन्दाज
खून चूसे 
गये का 

किसलिये

मक्खियों को
जरा सा भी

नहीं
हो रहा
होता है

प्रश्न
खुद के
अपने

जब
झेलना

मुश्किल
हो रहा
होता है

प्रश्न दागने
की मशीन

आदमी
खुद ही
हो ले रहा
होता है

कुछ
नहीं कहना

सबसे अच्छा

और बेहतर
रास्ता होता है

बेवकूफों के

मगर
ये ही तो

 बस में
नहीं होता है

हर
होशियार

निशाने पर

तीर मारने
के लिये

धनुष

खेत में
बो रहा
होता है

किसको
जरूरत
होती है

तीरों की

अर्जुन
के नाम के

जाप करने
से ही वीर
हो रहा होता है

काम
कुछ भी करो

मिल जुल कर
दल भावना
के साथ
करना होता है

नाम
के आगे
अनुलग्न
लगा कर

साफ साफ
नंगा नहीं
होना होता है

‘उलूक’

जमाना
बदलते हुऐ

देखना
भी होता है

समझना
ही होता है

पता करना
भी होता है

कहाँ

आँखें
मूँदनी
होती हैं

कहाँ

मुखौटा
ओढ़ना
होता है ।

चित्र साभार: www.exoticindiaart.com

बुधवार, 5 सितंबर 2018

लिखना जरूरी हो जा रहा होता है जब किसी के गुड़ रह जाने और किसी के शक्कर हो जाने का जमाना याद आ रहा होता है

नमन
उन सीढ़ियों को
जिस पर चढ़ कर
बहुत ऊपर तक
कहीं पहुँच लिया
जा रहा होता है

नमन
उन कन्धों को
जिन को
सीढ़ियों को
टिकाने के लिये
प्रयोग किया
जा रहा होता है

नमन
उन बन्दरों को
जिन्हेंं हनुमान
बना कर
एक राम
सिपाही की तरह
मोर्चे पर
लगा रहा होता है

नमन
उस सोच को
जो गाँधी के
तीन बन्दरों
के जैसा

एक में ही
बना ले जा
रहा होता है

नमन
और भी हैं
बहुत सारे हैं
करने हैं

आज ही
के शुभ दिन
हर साल की तरह

जब
अपना अपना सा
लगता दिन
बुला रहा होता है

कैसे करेगा
कितने करेगा
नमन ‘उलूक’

ऊपर
चढ़ गया
चढ़ जाने के बाद
कभी नीचे को
उतरता हुआ
नजर ही नहीं
आ रहा होता है

गुरु
मिस्टर इण्डिया
बन कर ऊपर
कहीं गुड़
खा रहा होता है

चेलों
का रेला

वहीं
सीढ़ियाँ पकड़े
नीचे से

शक्कर
हो जाने के
ख्वाबों के बीच

कहीं
सीटियाँ बजा
रहा होता है।

चित्र साभार: www.123rf.com

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

गुरु की पूर्णिमा को सुना है आज ग्रहण लगने जा रहा है चाँद भी पीले से लाल होना चाह रहा है

गुरुआइन को
सुबह से
क्रोध आ रहा है

कह कुछ
नहीं रही है

बस
छोटी छोटी
बातों के बीच

मुँह कुछ लाल
और
कान थोड़ा सा
गुलाल हो
जा रहा है

गुरु के चेले
पौ फटते ही
शुरु हो लिये हैं

कहीं चित्र में
चेला गुरु के
चरणों में झुका

कहीं गुरु चेले की
बलाइयाँ लेता
नजर आ रहा है

चेले गुरु को
भेज रहे हैं
शुभकामनाएं
गुरु मन्द मन्द
मुस्कुरा रहा है

ब्रह्मा विष्णु
महेश ही नहीं
साक्षात परम ब्रह्म
के दर्शन पा लिया
दिखा कर चेला
धन्य हुआ जा रहा है

‘उलूक’ आदतन
अपने पंख लपेटे
सूखे पेड़ के
खोखले ठिये पर
बार बार पंजे
निकाल कर
अपने कान
खुजला रहा है

गुरु चेलों की
संगत में
अभी अभी
सामने सामने
दिखा नाटक
और
तबलेबाजी
का नजारा

उससे
ना उगला
जा रहा है
ना निगला
जा रहा है

कैसे समझाये
गुरुआइन को गुरु

उसे पता है
आज शाम
पूर्णिमा को
ग्रहण लगने
जा रहा है

इतिहास का
पहला वाकया है

चाँद भी
पीले से
लाल होकर
अपना क्रोध

कलियुगी
गुरु के
साथ पूर्णिमा
को जोड़ने
की बात पर
दिखा रहा है

थूक
देना चाहिये
गुरुआइन ने भी
आज अपना क्रोध

सुनकर

गुरु की
पूर्णिमा को
आज ग्रहण
लगने जा रहा है।

चित्र साभार: www.istockphoto.com

सोमवार, 5 सितंबर 2016

अर्जुन को नहीं छाँट कर आये इस बार गुरु द्रोणाचार्य सुनो तो जरा सा फर्जी ‘उलूक’ की एक और फर्जी बात

जब
लगाये गये
गुरु कुछ
गुरु छाँटने
के काम पर
किसी गुरुकुल
के लिये
दो चार और
गुरुओं के साथ
एक ऐ श्रेणी के
गुरुकुल के
महागुरु
के द्वारा

पता चला
बाद में
अर्जुन पर नहीं
एकलव्य पर
रखकर
आ चुके हैं
गुरु अपना हाथ
विश्वास में लेकर
सारे गुरुओं की
समिति को
अपने साथ

अब जमाना
बदल रहा
हो जब
गुरु भी
बदल जाये
तो कौन सी
है इसमें
नयी बात

एक ही
अगर होता
तो कुछ
नहीं कहता
पर एक
अनार के
लिये सौ
बीमार हो
जाते हों जहाँ
वहाँ यही तो
है होना होता

समस्या बस
यही समझने
की बची
इस सब के बाद
एक लव्य ने
किसे दे दिया
होगा अँगूठा
अपना काट

फिर समझ
में आया
फर्जी गुरु
‘उलूक’ के
भी कुछ

कुछ कुछ
सब कुछ में
से देख कर
जब देख बैठा
एक सफेद
लिफाफा मोटा
भरा भरा
हर गुरु
के हाथ

वाह
एकलव्य
मान गये
तुझे भी
निभाया
तूने इतने
गुरुओं को
अँगूठा काटे
बिना अपना
किस तरह
एक साथ ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

गुरु पूर्णिमा पर प्रणाम गुरुओं को भी घंटालों को भी

कहाँ हो गुरु
दिखाई नहीं
देते हो
आजकल

कहाँ रहते हो
क्या करते हो

कुछ पता
ही नहीं
चल पाता है

बस दिखता है
सामने से कुछ
होता हुआ जब

तब तुम्हारे और
तुम्हारे गुरुभक्त
चेलों के आस पास
होने का अहसास
बहुत ही जल्दी
और
बहुत आसानी
से हो जाता है

एक जमाना था गुरु
जब तुम्हारे लगाये
हुऐ पेड़ सामने से
लगे नजर आते थे

फल नहीं
होते थे कहीं
फूल भी नहीं

तुम किसी को
दिखाते थे
कहीं दूर
बहुत दूर
क्षितिज में

निकलते हुऐ
सूरज का आभास
उसके बिना
निकले हुऐ ही
हो जाता था

आज पता नहीं
समय तेज
चल रहा है
या
तुम्हारा शिष्य ही
कुछ धीमा
हो गया है

दिन ही होता है
और रात का
तारा निकल
बगल में
खड़ा हो कर
जैसे मुस्कुराता है
और
मुँह चिढ़ाता है

गुरु
क्या गुरु मंत्र दिये
तुमने उस समय

लगा था
जग जीत
ही लिया जायेगा

पर आज
जो सब
दिख रहा है
आस पास

उस सब में तो
गुरु से कुछ
भी ढेला भर
नहीं किया जायेगा

तुमने जो
भी सिखाया
जिस की
समझ में आया

उसकी पाँचों
अँगुलियाँ
घी में हैं
जो दिख रहा है

उसका सिर
भी कढ़ाही
में है या नहीं है
ये पता नहीं है

अपना सिर
पकड़ कर
बैठे हुऐ
एक शिष्य को
आगे उससे
कुछ भी नहीं
अब दिख रहा है

जो है सो है

गुरु
गुरु तुम भी रहे
कुछ को
गुरु बनने
तक पहुँचा ही गये

लेकिन लगता है
दिन गुरुओं के
लद गये गुरु

गुरु घंटालों के
बहुत जोर शोर के
साथ जरूर आ गये

जय तो होनी
ही चाहिये गुरु
गुरु की

गुरु गुरु
ही होता है

पर गुरु
अब बिना
घंटाल बने
गुरु से भी
कुछ
नहीं होता है ।

चित्र साभार: blogs.articulate.com


शुक्रवार, 22 मई 2015

समय समय के साथ किताबों के जिल्द बदलता रहा

गुरु
लोगों ने
कोशिश की

और
सिखाया भी

किताबों
में लिखा
हुआ काला

चौक से काले
श्यामपट पर

श्वेत चमकते
अक्षरों को
उकेरते हुऐ
धैर्य के साथ

कच्चा
दिमाग भी
उतारता चला गया

समय
के साथ
शब्द दर शब्द
चलचित्र की भांति

मन के
कोमल परदे पर
सभी कुछ

कुछ भरा
कुछ छलका
जैसे अमृत
क्षीरसागर में
लेता हुआ हिलोरें

देखता हुआ
विष्णु की
नागशैय्या पर
होले होले
डोलती काया

ये
शुरुआत थी

कालचक्र घूमा
और
सीखने वाला

खुद
गुरु हो चला

श्यामपट
बदल कर
श्वेत हो चले

अक्षर रंगीन
इंद्रधनुषी सतरंगी
हवा में तरंगों में
जैसे तैरते उतराते

तस्वीरों में बैठ
उड़ उड़ कर आते

समझाने
सिखाने का
सामान बदल गया

विष्णु
क्षीरसागर
अमृत
सब अपनी
जगह पर

सब
उसी तरह से रहा
कुछ कहीं नहीं गया

सीखने
वाला भी
पता नहीं
कितना कुछ
सीखता चला गया

उम्र गुजरी
समझ में
जो आना
शुरु हुआ

वो कहीं भी
कभी भी
किसी ने
नहीं कहा

‘उलूक’
खून चूसने
वाले कीड़े
की दोस्ती

दूध देने वाली
एक गाय के बीच

साथ  रहते रहते
एक ही बर्तन में

हरी घास खाने
खिलाने का सपना

सोच में पता नहीं
कब कहाँ
और
कैसे घुस गया

लफड़ा हो गया
सुलझने के बजाय
उलझता ही रहा

प्रात: स्कूल भी
उसी प्रकार खुला

स्कूल की घंटी
सुबह बजी

और
शाम को
छुट्टी के बाद

स्कूल बंद भी
रोज की भांति

उसी तरह से ही
आज के दिन
भी होता रहा ।

चित्र साभार: www.pinterest.com

रविवार, 15 सितंबर 2013

गर्व से कहो फर्जी हैं


देश में
फर्जी लोगों की
कमी नहीं है

ये मैं नहीं कह रहा हूं

आज के
हिंदुस्तान के
मुख्य पृष्ठ में छपा है
और
इस बात को
देश का सुप्रीम कोर्ट
सुना है कह रहा है

फर्जी डाक्टर
फर्जी पुलिस
फर्जी पायलट
जैसे और कई
खुशी हुई बस
ये देख कर
फर्जी मास्टर कहीं
भी नहीं लिखा है

मजे की
बात देखिये
कोर्ट को जैसे
बहुत
गर्व हो रहा है

कि
इन फर्जी लोगों
के कारण ही तो
देश सही ढंग से
चल रहा है

कोर्ट
मानता है
हजारों फर्जी वकील
रोज वहां आ रहे हैं
अच्छा काम कर रहे हैं
समय पर लोगों को
न्याय दिलवा रहे हैं

ऐसे में
आप लोग
क्यों परेशान
इतना
हो जा रहे हैं

क्यों
फर्जी पायलटों
की बात
हमें बता रहे हैं

एक दो
हवाई जहाज
अगर वो कहीं
गिरा रहे हैं
तो कौन सा
देश के लिये
खतरा हो जा रहे हैं

थोड़े कुछ
अगर मर
भी जा रहे हैं
तो देश की
जनसंख्या
कम करने में
अपना योगदान
कर जा रहे हैं

देख
क्यों नहीं रहे हैं
बहुत से ऐसे लोग
देश को तक
चला रहे हैं

इतना बड़ा देश
हवा में उड़ रहा है
कई साल हो गये
इसे उड़ते उड़ते
आज तक तो कहीं
भी नहीं गिरा है

फिर काहे में कोर्ट
का समय आप
लोग खा रहे हैं

फर्जी होना ही
आज के समय में
बहुत जरूरी
हो गया है

जो
नहीं हुआ है
उसने कुछ
भी नहीं
अभी तक
किया है

सही समय पर
सही निर्णय जो
लोग ले पा रहे हैं

किसी ना किसी
फर्जी को अपना
गुरु बना रहे हैं

और
जो लोग फर्जी
नहीं हो पा रहे हैं

देश के नाम पर
कलंक एक हो
जा रहे हैं

ना ही
अपना भला
कर पा रहे हैं
ना ही किसी के
काम आ पा रहे हैं

आपको
शरम भी
नहीं आ रही है

ऐसे में भी

एक
फर्जी के ऊपर
मुकदमा ठोकने
कोर्ट की शरण में
आ जा रहे हैं ।

रविवार, 25 अगस्त 2013

सीधा साधा एक लड़का था कभी मेरे स्कूल में भी पढ़ता था

पक्ष की कर 
नहीं तो विपक्ष
की ही कर
सरकार की कर
नहीं तो उसके
ही किसी एक
अखबार की कर
बात करनी है
तुझे अगर कुछ
तो इनमें से किसी
एक के ही
कारोबार की कर
किसने कहा था
गाँव के स्कूल को
छोड़ के बड़े
शहर के बड़े
स्कूल में चला जा
चला भी गया था
तो किसने कहा था
गाँव की ढपली वहाँ
जा कर बजा जा
अब भुगत
घर की पुलिस नहीं
बड़े शहर की
पुलिस ने भी नहीं
देश की पुलिस ने
पकड़ कर अंदर
तुझे करा दिया
सारे के सारे
अखबारों में फोटो
छाप के तुझे एक
माओवादी बता दिया
समझा ही नहीं
इतने साल मेरे
स्कूल में रहकर भी
अरे कांग्रेसी
ही हो जाता
नहीं हो पा
रहा था तो
भाजपा में
ही चला जाता
अब ना
इधर का रहा
ना उधर का रहा
बिना बात के
अंदर को जा रहा 
इधर होता
या उधर होता
कभी तो
तेरे पास भी
कोई पोर्टफोलियो
एक जरूर होता
अभी भी समय है
सुधर जा
अधिसंख्यक
चल रहे हैं
जिन रास्तों पर
उन रास्तों में
चलना शुरु हो जा
जो नियम ज्यादा
लोगों की जेब में
देखे जाते हैं
वो ही भगवान जी
तक के द्वारा भी
फौलो किये जाते हैं
इसकी भी हाँ
में हाँ मिला
उसकी भी हाँ
में हाँ मिला
अब जेल भी
चला गया
और बोलेगा
तमगा भी
कोई नहीं
मिलेगा
पक्ष या
विपक्ष के
लिये जेल 

जाता तो
राजनीतिक कैदी
एक हो जाता
क्या पता 

किसी दिन
कोई मंत्री संत्री
बनने का मौका भी
जेल के सार्टिफिकेट
से तू पा जाता
मेरे स्कूल में इतने
साल तू पढ़ा पर
हेम तूने गुरुओं से
इतना भी नहीं सीखा । 


शुक्रवार, 7 जून 2013

क्या आपने देखी है/सोची है भीड़



भीड़ देखना 
भीड़ सोचना
भीड़ में से गुजरते हुऎ भी भीड़ नहीं होना
बहुत दिन तक नहीं हो पाता है

हर किसी के 
सामने 
कभी ना कभी कहीं ना कहीं 
भीड़ होने का मौका जरूर आता है 

कमजोर दिल 
भीड़ को देख कर अलग हो जाता है
भीड़ को दूर से देखता जाता है 

मजबूत दिल 
भीड़ से नहीं डरता है कभी 
भीड़ देखते ही भीड़ हो जाता है 

भीड़ कभी 
चीटियों की कतार नहीं होती 
भीड़ कभी बीमार नहीं होती
भीड़ में से गुजरते हुऎ
भीड़ में समा जाना 
ऎसे ही नहीं आ पाता है

भीड़ का भी 
एक गुरु होता है
भीड़ बनाना भीड़ में समाना
बस वो ही सिखाता है

भीड़ेंं तो बनती 
चली जाती हैं 
भीडे़ंं सोचती भी नहीं हैं कभी
गुरु लेकिन सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है

भीड़ फिर कहीं 
भीड़ बनाती है 
गुरू कब भीड़ से अलग हो गया
भीड़ की भेड़ को कहाँ समझ में आ पाता है ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

गुरुवार, 15 मार्च 2012

अपना कल याद नहीं

वो कल नंगा
हो गया था
आज उसे
कुछ याद नहीं

हंस रहा है
आज सुबह से
सामने खड़े हुवे
नंगो को
देख देख कर

बिना कपड़ों के
भूखे की रोटी
छीन कर खाने
मरीज की
दवा बेच कर
उसे ऊपर पहुंचाने
में माहिर होने के
आरोपों के मेडल
छाती से चिपकाये

आज भौंक रहा है
सुबह से उन्ही
भाई भतीजों पर
जिनको आज उसने
इस लायक बना के
यहां तक आने के
लिये तैयार किया है

उससे दो
कदम आगे
पहुंचने वाले
उसके शागिर्द
काट खा रहे हैं
एक दूसरे को
खुले आम

कर रहे हैं
वो काम
जो उसने
भी किया

चुटकी में
पटक दिया
अपने सांथी को
बिना भनक लगे

सुना था
देख
भी लिया
गुरू सब
दाँव सिखाता है

एक को
छोड़ कर
अपने बचाव
के लिये।