उलूक टाइम्स: सुहागा
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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

यहाँ होता है जैसा वहाँ होता है

होने को 
माना
बहुत कुछ 
होता है

कौन सा 
कोई 
सब कुछ 
कह देता है

अपनी 
फितरत से 
चुना जाता है 
मौजू

कोई 
कहता है 
और
कहते कहते 
सब कुछ 
कह लेता है 

जो 
नहीं चाहता 
कहना
देखा सुना 
फिर से 

वो 
चाँद की 
कह लेता है 

तारों की 
कह लेता है

आत्मा की 
कह लेता है

परमात्मा की 
कह लेता है 

सुनने वाला 
भी 
कोई ना कोई 

चाहिये 
ही होता है 

कहने वाले को 
ये भी
अच्छी तरह 
पता होता है 

लिखने वाले 
का भी 
एक भाव होता है

सुनने वाला 
लिखने वाले से 
शायद 
ज्यादा 
महंगा होता है 

सुन्दर लेखनी 
के साथ
सुन्दर चित्र हो

ज्यादा नहीं 
थोड़ी सी भी 
अक्ल हो 
सोने में 
सुहागा होता है 

हर कोई 
उस भीड़ में
कहीं ना कहीं 
सुनने के लिये 
दिख रहा होता है 

बाकी बचे 
बेअक्ल
उनका अपना 
खुद का 
सलीका होता है

जहाँ 
कोई नहीं जाता
वहां जरूर 
कहीं ना कहीं उनका 
डेरा होता है

कभी किसी जमाने में
चला आया था 
मैं यहाँ
ये सोच के 

शायद 
यहां कुछ 
और ही
होता है

आ गया समझ में 
कुछ देर ही से सही
कि 
आदमी
जो 
मेरे वहाँ का होता है 

वैसा ही 
कुछ कुछ 
यहाँ का होता है 

अंतर होता है 
इतना 
कि 
यहाँ तक आते आते

वो
ऎ-आदमी
से 
ई-आदमी 
हो लेता है ।