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शनिवार, 28 दिसंबर 2013

ऐसा भी तो होता है या नहीं होता है


जाने
अंजाने में 

खुद
या
सामूहिक 
रूप से

किये गये 
अपराधों के 
दंश को 

मन के
किसी 
कोने में दबा कर 

उसके ऊपर 

रंगबिरंगी 
फूल पत्तियाँ 

कुछ
बनाकर 
ढक देने से 

अपराधबोध
छिप 
कहाँ पाता है 

सहमति
के
साथ 
तोड़ मरोड़कर 

काँटों के जाल
का 
एक फूल
बना 
देने से

ना तो 
उसमें खुश्बू 
आ पाती है 

ना ही
ऐसा कोई 
सुन्दर
सा रंग

जो 
भ्रमित कर सके 
किसी को
भी 
कुछ देर
के 
लिये ही सही 

सदियां
हो गई 
इस तरह की
प्रक्रिया
को 
चलते आते हुऐ 

पता नहीं
कब से 

आगे भी
चलनी हैं 

बस
तरीके बदले हैं 
समय के साथ 

जुड़ते
चले जा रहे हैं 
इस तरह एक साथ 
अपराध दर अपराध 

जिसकी
ना किसी 
अदालत में सुनवाई 
ही होनी है

ना ही 
कोई फैसला
किसी 
को ले लेना है
सजा के लिये 

बस
शूल की तरह 
उठती हुई चुभन को 

दैनिक जीवन
का 
एक नित्यकर्म 
मानकर

सहते 
चले जाना है 
और
मौका मिलते ही 
संलग्न
हो जाना है 
कहीं
खुद

या कहीं 
किसी
समूह के साथ 
उसके दबाव
में 

करने
के लिये एक 
मान्यता प्राप्त
अपराध।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

यहाँ होता है जैसा वहाँ होता है

होने को 
माना
बहुत कुछ 
होता है

कौन सा 
कोई 
सब कुछ 
कह देता है

अपनी 
फितरत से 
चुना जाता है 
मौजू

कोई 
कहता है 
और
कहते कहते 
सब कुछ 
कह लेता है 

जो 
नहीं चाहता 
कहना
देखा सुना 
फिर से 

वो 
चाँद की 
कह लेता है 

तारों की 
कह लेता है

आत्मा की 
कह लेता है

परमात्मा की 
कह लेता है 

सुनने वाला 
भी 
कोई ना कोई 

चाहिये 
ही होता है 

कहने वाले को 
ये भी
अच्छी तरह 
पता होता है 

लिखने वाले 
का भी 
एक भाव होता है

सुनने वाला 
लिखने वाले से 
शायद 
ज्यादा 
महंगा होता है 

सुन्दर लेखनी 
के साथ
सुन्दर चित्र हो

ज्यादा नहीं 
थोड़ी सी भी 
अक्ल हो 
सोने में 
सुहागा होता है 

हर कोई 
उस भीड़ में
कहीं ना कहीं 
सुनने के लिये 
दिख रहा होता है 

बाकी बचे 
बेअक्ल
उनका अपना 
खुद का 
सलीका होता है

जहाँ 
कोई नहीं जाता
वहां जरूर 
कहीं ना कहीं उनका 
डेरा होता है

कभी किसी जमाने में
चला आया था 
मैं यहाँ
ये सोच के 

शायद 
यहां कुछ 
और ही
होता है

आ गया समझ में 
कुछ देर ही से सही
कि 
आदमी
जो 
मेरे वहाँ का होता है 

वैसा ही 
कुछ कुछ 
यहाँ का होता है 

अंतर होता है 
इतना 
कि 
यहाँ तक आते आते

वो
ऎ-आदमी
से 
ई-आदमी 
हो लेता है ।